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दुनिया लेखकों से चलती है (भाग 3)

एक सफल लेखक जो लिखता है, समाज उसे सच मानता है, लेकिन मिथकीय तौर पर यदि जीते-जागते मनुष्य को ही अमानवीय ऊर्जा और लोक-शत्रु का रूपक दे दिया जाय तथा हज़ारों भावी लेखक उसी रूपक को आगे बढ़ाते रहें तो उस समाज, संस्कृति और समुदाय के लिए जीवन चुनौतीपूर्ण हो जाता है। पढ़ें, युवा समालोचक गनेशी लाल के विस्तृत आलेख का अंतिम भाग

दूसरे भाग से आगे

पिछले भाग में जो विवेचनाएं व विश्लेषण किए गए हैं, वे ग्रंथों के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर आधारित हैं। अब यहां यह समझना होगा कि ये घटनाएं कैसे अलौकिकता के जाल में बींधीं गईं? वे कौन लोग थे जिन्होंने इन साहित्यिक स्वाभाविक मानवीय घटनाओं को अलौकिकता का जामा पहनाया, जिसके कारण इनको समझना मुश्किल हो गया? जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि ये घटनाएं बहुत पुरानी हैं, लेकिन लिपिबद्ध इन्हें बहुत बाद में किया गया है, और किसी एक व्यक्ति ने नहीं किया है। यह बिलकुल संभव नहीं है कि अठारह पुराण, गीता और महाभारत इत्यादि सब एक व्यक्ति ने लिपिबद्ध किया हो। कुछ विद्वानों ने जो संभावना जताई है कि हो सकता है कि व्यास एक व्यक्ति नहीं, एक उपाधि अथवा पदवी रही हो, जिसे धारण करनेवाले इन ग्रंथों को लिपिबद्ध करते रहे हों। इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि आज भी जो रामलीला-कृष्णलीला के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं, उसमें एक ‘व्यास’ होता है, जो कार्यक्रम को दिशा देता है।

इस प्रकार हमें यह मानना चाहिए कि व्यास कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक पदवी/व्यवस्था रही होगी, जो इन ग्रंथों को लिपिबद्ध करती रही होगी। ज़ाहिर है उन सभी का समय भी अलग-अलग रहा होगा। यही कारण है कि इन सभी ग्रंथों का रचनाकार तो एक व्यक्ति को बताया जाता है, लेकिन सभी ग्रंथों का रचनाकाल अलग-अलग है। लेकिन इतना तय है कि जिस दार्शनिक दृष्टिकोण से आरंभिक लेखकों ने इन ग्रंथों का सैद्धांतिकीकरण किया, बाद के सभी लेखकों ने उसी मूल दार्शनिक दृष्टि का अनुसरण किया। और एक के बाद एक रचनाएं रची गईं। भारत में दर्शन प्राचीन काल से अस्तित्व में आ गया था। ईश्वर के बारे में चिंतन-मनन लंबे समय से चल रहा था, अलग-अलग दार्शनिकों व सिद्धांतकारों ने अपने-अपने ढंग से ईश्वर के बारे में विचार किया। उसी में एक दृष्टि यह भी रही, जिसने इन लौकिक और भौतिक सांस्कृतिक संघर्ष के इतिहास को अलौकिकता का जामा पहनाया। उसने इस संघर्ष के दो ख़ेमों को मन की सकारात्मक और नकारात्मक वृत्तियों के रूपक के रूप में प्रस्तुत किया, और यह दार्शनिक रूपक का दृष्टिकोण इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग इसी को सत्य मानने लगे।

कालांतर में यह मानवीय संघर्ष भी मिथकीय घटनाओं में तब्दील हो गया। रचनाकार का अपना दार्शनिक स्वार्थ तो सध गया, लेकिन इससे संस्कृति, समाज और मनुष्य का भारी नुक़सान हुआ। उसने जिस पक्ष को नकारात्मक वृत्तियों का रूपक दिया, उन्हें लोगों ने वही समझ लिया और युगांतर में हमारा समाज जीते-जागते मनुष्य को तथाकथित राक्षस, दैत्य, दानव, निशाचर और असुर आदि अमानवीय शक्तियां समझने लगे। ज़ाहिर है विचार करने वाला दार्शनिक उसी खेमे का रहा होगा, जिस खेमे को उसने दैवीय और सकारात्मक वृत्तियों का रूपक दिया। इससे मानवीय समाज का भारी नुक़सान हुआ। इससे मनुष्य, मनुष्य के बीच ऊंच-नीच, गोरा-काला और स्त्री-पुरुष आदि का भेद उत्पन्न हो गया। इससे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से घृणा करने लगा। उदाहरण के लिए तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखी। उन्होंने अपने दृष्टिकोण से लिखी। उन्होंने कथा का संदर्भ वाल्मीकि रामायण, आगम-निगम और लोक-प्रचलित मान्यताओं से लिया। अपने अनुरूप राम के व्यक्तित्व में कुछ जोड़ा और कुछ घटाया। इससे तुलसीदास के अपने ईश्वर राम के रूप में तो स्थापित हो गए, लेकिन एक बड़ा नुक़सान भी हुआ। नुक़सान हुआ अतीत में हुए युद्धों की घटनाओं का। नुक़सान हुआ मानवीय सभ्यता का। नुक़सान हुआ राम के मानवीय व्यक्तित्व का। राम के अवगुण छिप गए और राम ने जिन लोगों के साथ ग़लत किया, उन लोगों ने अलौकिकता के महिमामंडन से उनको भी सही ठहराना उचित समझा। इस प्रकार यहां यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मानवीय सभ्यता की परस्पर टकराहट को अलौकिकता का जामा पहना कर किस प्रकार उसे नष्ट करने का काम किया गया।

इस संदर्भ में यहां इस बात की चर्चा करना बेमानी नहीं होगी कि इन पौराणिक परंपराओं का प्रभाव लोक में किस प्रकार है। मानव सभ्यता के विकास में जो परस्पर टकराहट हुई, जिसे अलौकिक रूप देकर भ्रामक बना दिया गया। आज वे सांस्कृतिक धाराएं किस रूप में हैं। बिहार प्रांत के बक्सर जिले में एक मेला लगता है, जिसे ‘पंचकोशी मेला’ कहा जाता है। इस मेले में वहां के स्थानीय लोग ‘ताड़का’ के यश के गीत गाते हैं। गीत का अंश इस प्रकार है–

“कह हो तारामति मईया/कहवा से अइली तू/बनवा में गिरिके/परानवा गवइलुऽ रात-दिन अगिया में/जरेला तहार देहिया/मरदा के परानव खातिर/बन गइलु रक्षिसिया/मुनि दिहले शाप तहरा के मरीच सुबाहु संगे छिछिआइल घूमे बनवा में/”

इस गीत का भावार्थ है–

“हे तारामति मां! हमें बताइए कि आप कहां से आई हैं और इस वन में कैसे गिर पड़ीं? किसने आपको यहां गिरा दिया? किसके प्राण चले गए हैं? आपके पति के? किसने लिया हैं? रात-दिन आप किस आग में जल रही हैं? हे यक्ष कन्या! किस मुनि ने आपको शाप देकर राक्षस बना दिया? ये दोनों मारीच और सुबाहु किसके पुत्र हैं? इन्हें लेकर आप जंगल में क्यों भटक रही हैं?”[1]

लेखक देवेंद्र चौबे ने अपनी पुस्तक ‘पंचकोशी मेला’ में इस बात का भी उल्लेख किया है कि जिन स्त्रियों ने यह गीत सुनाया था, उनका कहना था कि उन्हें पूरा गीत याद नहीं है, लेकिन उनकी सास आदि बड़े बुजुर्गों को पूरा गीत याद है। इसका अभिप्राय यह है कि इस तरह के गीत किसी पुस्तक में नहीं हैं क्योंकि जिन लोगों ने पुस्तकें लिखीं, वे तो मुख्यधारा की संस्कृति से आक्रांत हैं। वे ताड़का को राक्षसी मानते हैं, लेकिन यहां के लोगों की परंपरा में न जाने कब से ये बातें हैं जो इस बात का संकेत करती हैं कि किस तरह मुख्यधारा के वर्चस्वशाली लोगों ने धर्म और ईश्वर के माध्यम से लोगों की संपत्ति पर न सिर्फ़ कब्जा किया, बल्कि युगों-युगों के लिए अपने ग्रंथों में उनको लोक-शत्रु (राक्षस) भी घोषित कर दिया। वहां के लोग कहते हैं– “ताड़का के वध से वह दुखी थे, वह राक्षसी थोड़े ही थी; उसका नाम ‘तारामति’ था। लोगों ने उसका नाम बिगाड़कर ‘ताड़का’ रख दिया। वह तो अपने घर में ही रहती थी। उनके राजा रावण ने उन्हें वहां जंगल की रक्षा में रहने के लिए कहा था।”[2]

यहां के लोग मानते हैं कि विश्वामित्र आदि ऋषि धर्म के माध्यम से यज्ञ आदि करके उनके जंगल में कब्जा करना चाह रहे थे, जिसका ताड़का और मारीच-सुबाहु आदि विरोध करते थे। वे जंगल जल जाने के भय से जंगल में आग नहीं जलाने देते थे। वे उनकी आग को बुझा देते थे। यही कारण था कि बाद में विश्वामित्र आदि ऋषियों ने राम के द्वारा उनकी हत्या करवा दी। आगे वहां के लोग कहते हैं– “जब वे (ऋषि) लोग जंगल काटकर अपनी कुटिया बनाने लगे। तब उनके (ताड़का, मारीच-सुबाहु आदि के) सैनिकों ने आकर इन्हें रोका। वे जंगल से बाहर जाने को तैयार नहीं हुए। तब उन लोगों ने ऋषियों-मुनियों को परेशान करना शुरू किया ताकि वे जंगल से भाग जाएं।”[3]

धार्मिक ग्रंथों के सहारे बनाई गई है समाज में भेदभाव की व्यवस्था

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मुख्यधारा के लोग धर्म के माध्यम से लोगों के संसाधनों पर कब्जा करते थे, लेकिन यदि वे उसका विरोध करते थे तो ये लोग धर्म का सहारा लेकर उनकी मानवीय छवि भी ख़राब करते थे। मुख्यधारा की संस्कृति के ग्रंथों द्वारा प्रेरित आज भी लोक-नाट्य और रामलीला आदि में किस तरह ताड़का आदि को दिखाया जाता है, यह सर्वविदित है।

इसी प्रकार आज कई ऐसी रचनाएं मिल जाएंगीं, जो पौराणिक इतिहास में की गई छेड़खानी को दर्शाती हैं। जैसे रणेंद्र का एक उपन्यास है– ‘ग्लोबल गांव के देवता’। यह उपन्यास असुर आदिम जनजाति पर केंद्रित है। भारत में असुर जनजाति को किस तरह से लोक-शत्रु बना दिया गया है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। भारत सरकार की 2011 की जनगणना के अनुसार भारत के कई प्रांतों में असुर जनजाति के लोग रहते हैं, जिनका संबंध कई विद्वान सिंधु घाटी सभ्यता से जोड़ते हैं तथा लोहा और तांबा आदि धातुओं के आविष्कारक के रूप में उन्हें मानते हैं, लेकिन हिंदू ग्रंथों में किस तरह से उन्हें अमानवीय रूप में दिखाया गया है, यह सब जानते हैं। ‘ग्लोबल गांव के देवता’ उपन्यास में रुमझुम असुर कहता है– “ठीक कहते हैं, असुर सुनते ही दो बातें ध्यान में आती हैं। एक तो बचपन में सुनी कहानियों वाले असुर, दैत्य, दानव और न जाने क्या क्या! वर्णन भी खूब भयंकर। दस-बारह फीट लंबे। दांत-वांत बाहर। हाथों में तरह-तरह के हथियार। नरभक्षी, शिवभक्त, शक्तिशाली। किंतु अंत में मारे जाने वाले। सारे देवासुर संग्रामों का लास्ट सीन फिक्स्ड। दूसरी एंथ्रोपॉलोजी की 1926, 1947 या 1966 की किताबों में छपी केवल कॉपिन पहने मर्द और छाती तक नंगी औरतों वाली तस्वीरों वाले असुर। अब आप ख़ुद तय कर लीजिए मास्टर साहब कि हम क्या हैं?”[4]

असुर सहित कई जनजातीय समुदाय हैं, जो आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। हिंदू ग्रंथों में उन्हें जिस तरह से दिखाया गया है, उसके कारण मुख्यधारा का समाज आज भी उनसे घृणा करता है। इसके कारण बिना किसी अपराध के उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। भारत के कई प्रांतों और हिस्सों में मिथकीय इतिहास से जुड़े खलनायक पात्रों को पूजा जाता है, उनकी अपनी संस्कृति है, इतिहास है, लेकिन उनकी पहचान का संकट आज भी है। आज भी उनके अस्तित्व को नष्ट करने की कोशिशें जारी हैं। रणेंद्र लिखते हैं– “कभी कभी कोई पगलेट मानवशास्त्री या पुरातत्ववेत्ता इशारे करता रहा कि आज़मगढ़ से चौबीस किलोमीटर दूर धासी नामक स्थान पर मिट्टी के क़िले के अवशेष हैं, जिन्हें जनश्रुति असुरों का मानती हैं। आज़मगढ़ में ही कुंवर और मूंगी नदियों के किनारे के खंडहर आज भी असुरों के कहे जाते हैं। कहते हैं, शक्तिशाली राजा बाणासुर ने उत्तर भारत के बड़े हिस्से, उत्तरी बंगाल और असम तक शासन किया। उसके नाम से कई जगहें मिलती हैं, ख़ासकर शाहाबाद के एक गांव मसाढ़ की पक्की ईटों के खंडहर और जनश्रुति वहां बाणासुर की उपस्थिति और उसकी बेटी उषा की कृष्ण के पोते अनिरुद्ध से विवाह की कहानियां सुनाती हैं। बाणासुर के महल के पूर्वी छोर का तालाब अभी भी उनके ही नाम से जाना जाता है।

“बिहार में आरा से तीन किलोमीटर दूर स्थित एक गांव है– बकरी गांव। कहा जाता है कि बकासुर का बसाया हुआ है। पांडवों से उसके संघर्ष की कहानी आज भी वहां सुनी-सुनाई जाती है। और उसके आगे है गया, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे गयासुर नामक असुर ने बसाया। मगध का प्रतापी राजा जरासंध संभवतः असुर कुल का सबसे विख्यात सम्राट हुआ। उसकी राजधानी राजगृह हुआ करती थी। नवादा के सिधौल गांव से होकर राजगीर जाने वाली बहुत पुरानी, लेकिन आज भी बेहतरीन सड़क असुरिन ही कहलाती है। यानी हज़ारों-हज़ार साल से पीछे हटते-हटते इस पाट पर। धरती का आख़िरी छोर। अब यहां से कहां? नष्ट करने की प्रक्रिया तो आज भी जारी है। ज़मीन और बेटियां चुप-चुप, शांत-शांत, किन्तु रोज़ छीनी जा रहीं।”[5]

इस प्रकार की अनेक ऐसी पुस्तकें हैं जिनसे पता चलता है कि हिंदू ग्रंथों में जिन जीते-जागते लोगों को कर, बल, छल से मौत के घाट उतार कर जिन्हें अमानवीय छवि दे दी गई है, वह आज भी देश के कई हिस्सों में अपने अवशेषों में जीवित हैं। राजा बलि, जिन्हें विष्णु ने उनकी दानशीलता का लाभ उठा कर छला था, दक्षिण भारत में आज भी उन्हें याद किया जाता है। भगवान सिंह कहते हैं– “केरल में आज तक बलि की एक प्रजावत्सल असुर के रूप में पूजा होती है। उनकी राजधानी केरल में ही थी। एक स्थल ऐसा है (एर्णाकुलम-कोच्चि के निकट त्रिपुनीतुर) जहां बलि और वामन दोनों की प्रतिमाएं मिलती हैं। उत्तर में जिस तरह कार्तिक अमावस्या की रात को लक्ष्मी देवी घरों में आती हैं और उनके स्वागत में घरों की सफ़ाई और सजावट की जाती है, उसी तरह केरल में ओणम के दिन महाबलि नर्क से अपनी प्रजा का हाल-चाल जानने आते हैं। इस अवसर पर वहां भी उसी तरह की सजावट की जाती है और उसी तरह से समारोह मनाया जाता है।”[6]

इसी तरह ऋषियों के नाम पर हम केवल देव ऋषियों को जानते हैं। मुख्यधारा के हिंदू ग्रंथ जिनकी त्याग-तपस्या और तरह-तरह की साधनाओं की प्रशंसा के गीत गाते थकते नहीं हैं, लेकिन आदिवासी समुदायों के भी अपने ऋषि थे, जिनकी चर्चा नगण्य है और यदि है तो केवल मुख्यधारा की पंक्ति में शामिल करके। रणेंद्र लिखते हैं– “अंगिरा ऋषि भी अपने को आग से उत्पन्न बताते हैं और अगरियों की भी पैदाइश आग से हुई है। यह अंगिरा ही हैं जिन्होंने सबसे पहले आग की खोज की थी।”[7] इसी संदर्भ में भगवान सिंह लिखते हैं “भस्मासुर को वैदिक काल में अंगिरा ऋषि कहा जाता था। इनके कारनामे अचरज से भरे हैं। इन्होंने आग का सार्थक उपयोग करते हुए आविष्कारों की एक लंबी शृंखला आरंभ की। इनके नाम को एक व्यक्ति का नाम न मानकर एक समुदाय के रूप में देखना चाहिए, क्योंकि इनका नाम बहुवचन में भी (अंगीरस:, अंगिरोभि: 1.62.5; अंगिरोभ्य:, आदि) आता है। अंगिरा का अर्थ आग होता है और अनेक बार आग को इसी तरह संबोधित किया गया है।”[8]

इस प्रकार यहां दोनों लेखकों का निष्कर्ष समान है। रणेंद्र अंगिरा को अगरिया समुदाय से जोड़ते हैं और भगवान सिंह भी उन्हें वेद का उद्धरण देते हुए यह स्थापित करते हैं कि उनका नाम बहुवचन में आता है, इसलिए इनके नाम को एक समुदाय के रूप में देखना चाहिए। ‘ग्लोबल गांव के देवता’ में मुख्य रूप से दो बातें हैं। एक, हिंदू ग्रंथों में असुर आदि जनजातियों को लोक-शत्रु और अमानवीय शक्तियों के रूप में चित्रित किये जाने के कारण समाज उन्हें आज भी उसी रूप में देखता है। दूसरा, जिस तरह भारत में मुख्यधारा की संस्कृति ने उन्हें दरकिनार किया, उनके संसाधनों पर कब्जा करके उन्हें अमानवीय जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया, ठीक उसी प्रकार आज जो उपभोक्तावादी संस्कृति है, वह असुर सहित सभी आदिवासियों को उजाड़ रही है। उनके जीवन की बुनियादी ज़रूरतों (जल, जंगल, ज़मीन) को छीन रही है और यदि वे इसका विरोध करते हैं तो उन्हें देशद्रोही, माओवादी और नक्सली घोषित कर देती है। एक साथ सैकड़ों लोगों की हत्या कर दी जाती है और समाचार पत्र तथा मीडिया उन्हें नक्सली और माओवादी के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

‘ग्लोबल गांव के देवता’ उपन्यास में ऐसा ही एक प्रसंग देखिए– “हां, तीसरे पेज पर दो कॉलम का समाचार छपा था कि पाथरपाट में हुए पुलिस मुठभेड़ में छह नक्सली मारे गए। मारे गए नक्सलियों में कुख्यात एरिया कमांडर बालचन भी शामिल।”[9] यहां यह देखा जा सकता है कि कैसे गांव के सामान्य लोगों की पुलिस निर्मम हत्या करती है और फिर उन्हें नक्सली घोषित कर दिया जाता है, ताकि न्याय का दरवाज़ा भी उनके लिए हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाए।

इसी तरह आज भारत में मुख्यधारा की हिंदू संस्कृति का येन-केन प्रकारेण किस तरह प्रचार-प्रसार किया जाता है, और उनकी मूल संस्कृति जो सदियों से नष्ट होते-होते थोड़ी बहुत शेष है, को ख़त्म किया जा रहा है। उपन्यास में एक प्रसंग आता है, जहां एक हिंदू संस्कृति का प्रचारक बाबा कर, बल, छल से हिंदू संस्कृति का प्रचार करता है– “धीरे धीरे शिवदास बाबा का कंठी अभियान चल निकला। बाबा गांव-गांव घूमते, हवन करते और भगतों को कंठी धारण करवाते। कंठी धारण करने वाले को कुछ नहीं करना था, बस कुछ छोटे-छोटे नियमों का पालन भर करना था। उसे मांस खाना छोड़ देना था और हड़िया-दारू को हाथ भी नहीं लगाना था। घर के आंगन में तुलसी का पौधा और हाते में पीपल लगाना था। जादू-टोना, डाइन, बिसाही, भूत, प्रेत, चुड़ैल इन सबों से दूर रहना था। सियानियों को सवेरे जागने के बाद और रात में सोने से पहले अपने पतियों का पैर छूना था। गुरुवार के गुरुवार अखड़ा में सामूहिक रूप से भजन गाना और ग़ैर-कंठी वाले आदमी का छुआ पानी भी नहीं पीना था। साफ़-सफ़ाई पर पूरा ध्यान और काला वस्त्र, काली वस्तु, काले गाय-गरू, मुर्गी, सुअर से दूर रहना था। ये काले जानवर दरअसल जानवर नहीं थे, बल्कि वेश बदले हुए पिशाच थे। इनसे हर हाल में बचना था। नियम के पालन में कोताही नहीं बरतनी थी। कंठी की बेइज्जती से शाप लगता था। बाबा के कंट्रोल में जो प्रेत था वह कंठी का अनादर करने वाले को बरबाद कर देता था।”[10]

रामायण, महाभारत तथा पुराण आदि में मनुष्य के ख़िलाफ़ जो साज़िश रची गई है, आज उसका व्यावहारिक रूप हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं। शिवदास बाबा जैसे लोग आज देश में बढ़ते ही जा रहे हैं। ये बाबा संविधान के विरुद्ध भी बोलते हैं, फिर भी सरकार चुप रहती है। इस प्रकार सुनियोजित तरीक़े से मुख्यधारा की संस्कृति का वर्चस्व बढ़ाया जा रहा है। यह सांस्कृतिक वर्चस्व बढ़ते-बढ़ते बात यहां तक आ गई है कि देश में वर्चस्वशाली ताक़तें आए दिन हिंदू-राष्ट्र बनाने का भी आगाज करती रहती हैं।

इस प्रकार हमने यह देखा कि ‘लेखक’ समाज का कितना महत्वपूर्ण अंग होता है। एक सफल लेखक जो लिखता है, समाज उसे सच मानता है, लेकिन मिथकीय तौर पर यदि जीते-जागते मनुष्य को ही अमानवीय ऊर्जा और लोक-शत्रु का रूपक दे दिया जाय तथा हज़ारों भावी लेखक उसी रूपक को आगे बढ़ाते रहें तो उस समाज, संस्कृति और समुदाय के लिए जीवन चुनौतीपूर्ण हो जाता है। मनुष्य, मनुष्य का शत्रु बन जाता है। शक्तिशाली मनुष्य अपने से कम शक्तिशाली को एक बार दबाने के बाद कभी उबरने नहीं देता है। इसके लिए जिम्मेदार फिर वे ग्रंथ हैं, जिन्हें हमारा हृदय तथाकथित श्रद्धा का विषय मानता है। जहां आज भी हमारा मस्तिष्क जागृत नहीं होता सुषुप्त बना रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि शास्त्रों और ग्रंथों में जो लिखा है वह पक्षपाती और अमानवीय भी हो सकता है। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी किया जा सकता है।

(समाप्त)

संदर्भ

[1] देवेंद्र चौबे, पंचकोशी मेला, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, पहला संस्करण 2021, पृ. 115
[2] वही, पृ. 117
[3] वही, पृ. 118
[4] रणेंद्र, ग्लोबल गांव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवां संस्करण, 2022, पृ. 17
[5] वही, पृ. 33-34
[6] भगवान सिंह, भारतीय परंपरा की खोज, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2021, पृ. 98
[7] रणेंद्र, उपरोक्त, पृ. 18
[8] भगवान सिंह, उपरोक्त, पृ. 43
[9] रणेंद्र, उपरोक्त, पृ. 88
[10] वही, पृ. 57

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

गनेशी लाल

लेखक भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में पीएचडी शोधार्थी हैं

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