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नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार : दो मित्रों की कहानी

नरेंद्र मोदी बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार हैं। नीतीश कुमार के मन में भी इसी पद की व्याकुल लालसा है। स्वार्थ के इस टकराव ने ही मित्र को शत्रु बना दिया है

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार क्रमश: गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्री हैं और इन दिनों लगातार सुर्खियों में हैं। दोनों न केवल एक ही राशि के हैं, बल्कि एक राजनीतिक गठबंधन के भी; लेकिन दोनों में आजकल ठनी है। कम-से-कम दिखता तो ऐसा ही है।

लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि नीतीश कुमार का अंतरमन नरेंद्र मोदी से गहरे प्रभावित रहा है। आज दिख रही शत्रुता में भी कभी-कभी मुझे मित्रता का ही भाव दिखता है। मनोविज्ञान में प्यार घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं। ऐडना विन्सेंट मेले की एक पंक्ति ‘ओह माई फ़ोर्ज, एन्ड ओ माई फ्रेंड्स’ किंचित याद आती है। इन दोनों की मित्रता और शत्रुता कुछ ज्यादा ही गड्ड-मड्ड हो गई है।

एक घटना को याद कर रहा हूं। 2004 की गरमियां थीं। लोकसभा के चुनावों का नतीजा आ चुका था और बिहार में लालू प्रसाद के नेतृत्व में यूपीए को निर्णायक बढ़त मिली थी। जार्ज-नीतीश के नेतृत्व में एनडीए बुरी तरह पिट चुका था। नीतीश जी मेरे घर आये थे। फ़ुरसत में थे, सो घंटों दुनिया जहान की बातें होती रहीं। मेरा कहना था कि नरेंद्र मोदी के कारण एनडीए को हार का सामना करना पड़ा। नीतीश जी इसे मानने के लिए तैयार नहीं थे। मैं नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ रुख लिये हुए था। नीतीश जी ने स्थिर और गंभीर होकर कहा– नरेंद्र मोदी बीजेपी का नया चेहरा है। वह अति पिछड़े तबके से आता है। घांची है, घांची। गुजरात की एक अत्यल्पसंख्यक पिछड़ी जाति है यह। बीजेपी की ब्राह्मण लाबी उसे बदनाम करने पर तुली है। इसमें वाजपेयी तक शामिल हैं। डायनमिक आदमी है। आप अगर उससे एक बार मिल लीजिएगा तो उसका प्रशंसक हो जाइएगा। निहायत गरीब परिवार से आता है। सादगी और कर्मठता कूट-कूट कर भरी है उसमें। नीतीश जी एक त्वरा (ट्रांस) में थे। वह बोले ही जा रहे थे। मोदी द्वारा दिये गये एक आतिथ्य को चुभलाते हुए उन्होंने अपनी बात को एक विराम दिया– “मैं तो उसका फ़ैन हो गया हूं।”

मुझे आश्चर्य होता है नरेंद्र मोदी का यह फ़ैन आज उसके लिए फऩ काढे बैठा है। क्या इसे ही राजनीति कहते हैं। क्या मुस्लिम वोट बैंक पर सेंध लगाने के लिए यह सब हो रहा है। या फिऱ कुछ और बात है?

मैं नहीं बता सकता कि असलियत क्या है। क्योंकि नीतीश कुमार से इस वक्त मेरी व्यक्तिगत दूरी है। अनुमान आखिर अनुमान होते हैं। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि प्रकारांतर से नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की मदद ही कर रहे हैं, वे उन्हें लगातार चर्चा में बनाये रखे हुए हैं। ऐसा मित्र लाभ भला कौन नहीं पाना चाहेगा। संभव है इस बात में कुछ सच्चाई हो, लेकिन सार्वजनिक संबंधों की जो कड़वाहट नीतीश कुमार ने पैदा की है, वह तो दिख रही है। इस कड़वाहट से शायद उन्हें किसी बड़े नतीजे की उम्मीद है। लेकिन क्या यह संभव है?

नरेंद्र मोदी बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार हैं। नीतीश कुमार के मन में भी इसी पद की व्याकुल लालसा है। स्वार्थ के इस टकराव ने ही मित्र को शत्रु बना दिया है। ऐसे में कोई क्या कर सकता है?

पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले जहां तक मुझे याद है जून, 2010 में नीतीश कुमार ने पटना में आयोजित बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में शामिल होने वाले लोगों के लिए अपने सरकारी आवास पर एक भोज का आयोजन किया था। ऐन वक्त पर एक विज्ञापन का बहाना बनाकर उस भोज को रद्द कर दिया गया। विज्ञापनकर्ता कोई व्यापारी था और उसने 2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान जालंधर में एक ही मंच से चुनावी उद्घोष कर रहे नरेंद्र-नीतीश की जगमग तस्वीर अखबारों में प्रकाशित करा दी थी। दरअसल वह बिहार की धरती पर इस तस्वीर के साथ नरेंद्र मोदी का इस्तकबाल करना चाहता था। बदहवास नीतीश ने सामान्य शिष्टाचार को भी ताक पर रख दिया। 2008 बाढ के समय गुजरात सरकार द्वारा भेजी गई सहायता राशि लौटा दी। नीतीश नरेंद्र मोदी से अपने संबंधों के सार्वजनिक करने के विरुद्ध थे। विज्ञापनकर्ता ने शायद इस बात को गंभीरता से नहीं समझा था कि कुछ संबंध – खासकर प्रेम संबंध – के सार्वजनिक करने के खतरे ज्यादा होते हैं। यही हुआ। भाजपा नेताओं को अपमानित होना पड़ा। उन्होंने सब कुछ बर्दाश्त किया। हालांकि उन्हें इन सब का अभ्यास है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती के नखरे भी उन्होंने खूब बर्दाश्त किये हैं। यह गठबंधन की विवशता है। भाजपा अपनी दुधारु गाय के लताड़ भी बर्दाश्त करेगी। असलियत तो यही है न कि भाजपा के राजनीतिक खूंटे पर नीतीश हैं। न कि नीतीश के खूंटे पर भाजपा।

2012 के राष्ट्रपति चुनाव में नीतीश ने भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन न करके कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया, तब एक बार फिऱ मीडिया ने नीतीश की धर्मनिरपेक्षता को थपथपाया। मीडिया ने इस बात की भी समीक्षा नहीं की कि इस मामले में धर्मनिरपेक्षता की बात कहां आती है। क्या भाजपा समर्थित उम्मीदवार संगमा सांप्रदायिक चरित्र के हैं? और नहीं तो फिऱ क्या कांग्रेस ही धर्मनिरपेक्षता का असली घराना है। नीतीश ने इस बीच ऐसा अलाप लगाया मानो वह ही धर्मनिरपेक्षता के मुख्य ध्वजवाहक हैं और इस मुल्क की सेक्यूलर पालिटिक्स बस उन्हीं के बूते चल रही है। किसी ने भी वास्तविकता को सामने लाने का साहस नहीं किया कि प्रणब मुखर्जी कांग्रेस से अधिक अंबानी घराने के उम्मीदवार थे, और नीतीश को इस घराने के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं थी; क्योंकि इस घराने का एक दूत नीतीश के दल में सांसद के रुप में बना हुआ है, और पूरे दल को संचालित करता है। नीतीश की पीठ थपथपा रहे लोगों को भी याद रखना चाहिए कि प्रणब के समर्थन में नीतीश थे, तो बगल में बाल ठाकरे भी थे।

मैं उनलोगों में नहीं हूं जो नरेंद्र मोदी को गोधरा उपरांत दंगों के लिए क्लीन चिट दे चुके हैं, या फिऱ बाबरी मस्जिद मामले के लिए आडवाणी के कृत्यों को भूल चुके हैं। 2002 का गुजरात दंगा भयावह था और मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की जिम्मेवारी थी कि वह उसे रोकें। मैं उन्हें आज भी दोषी मानता हूं। लेकिन क्या वह अकेले दोषी थे? उस वक्त केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उन्होंने गुजरात सरकार को बर्खास्त क्यों नहीं किया? उनके पास तो बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद कई राज्य सरकारों को एक साथ बर्खास्त किये जाने का उदाहरण मौजूद था। वाजपेयी ने गुजरात दंगों के पूर्व बिहार में सेनारी नरसंहार पर बिहार सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया था। सेनारी दुर्घटना से गुजरात दंगे कहीं ज्यादा भयावह थे। जब एक नरसंहार के लिए बिहार सरकार बर्खास्त हो सकती थी, तो फिऱ गुजरात सरकार क्यों नहीं? क्या नरेंद्र मोदी ने अकेले राजधर्म का पालन नहीं किया था? वाजपेयी कौन से राजधर्म का पालन कर रहे थे।

और वाजपेयी को मसीहा मानने वाले नीतीश कुमार ने तब किस राजधर्म का पालन किया था? नरेंद्र मोदी की आज वे चाहे जितनी तौहीन कर लें, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उस वक्त रेलमंत्री वही थे और गोधरा कांड रेल में ही हुआ था। उसके पूर्व गाइसल ट्रेन दुर्घटना में नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री पद से त्यागपत्र देने वाले (हालांकि त्यागपत्रित सरकार से) नीतीश गोधरा हादसे का निरीक्षण के लिए भी प्रस्तुत नहीं हुए। आश्चर्य है कि यह आदमी भी आज नरेंद्र मोदी को नसीहत दे रहा है और वह भी दंगों को लेकर।

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों गोधरा मामले में दूध के धुले नहीं हैं। दोनों ने, और फिऱ दोनों के दादागुरु वाजपेयी ने भी तब राजधर्म का पालन नहीं किया था। दोनों विज्ञापनप्रिय हैं, और दोनों ने विकास पुरुष की पट्टी अपने माथे पर खुद बांध रखी है। उपलब्धियों की बात की जाय तो गुजरात और बिहार, दोनों राज्यों में बेहतर असमानता बढ़ी है। दोनों जगह के अमीर ज्यादा पावरफ़ुल हुए हैं, और गरीब ज्यादा दयनीय।

लेकिन नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार में कुछ गैरमामूली अंतर भी है। नीतीश बिहार के कुलक उच्चकुर्मी परिवार से आते हैं और नरेंद्र मोदी गुजरात के निर्धन अति पिछड़े घांची परिवार से। नीतीश के पिता वैद्यराज और कांग्रेसी नेता थे जबकि नरेंद्र के पिता मामूली चाय दुकानदार – जहां नरेंद्र ने अपना बचपन ग्राहकों के जूठे गिलास मांजकर गुजारा। नीतीश इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे, तब नरेंद्र एक वकील परिवार में डोमेस्टिक हेल्पर थे – जहां रोज नौ कमरों की सफ़ाई और पंद्रह लोगों के खाना बनाने का काम उन्हें करना पड़ता था। उन्होंने प्राइवेट परीक्षायें देकर येन केन प्रकारेण डिग्रियां हासिल की हैं और जो सीखा है दुनिया की खुली युनिवर्सिटी में सीखा है। वह दक्षिणपंथी राजनीति से जुड़े हैं, लेकिन उनका बचपन और युवावस्था रुसी लेखक मैक्सिम गोर्की की तरह संघर्षमय रहा है। एक अंतर और रहा है नरेंद्र मोदी और नीतीश में। मुख्यमंत्री के रूप में भी नरेंद्र सादगी पसंद रहे हैं। उन्होंने चापलूसों-चाटुकारों को अपने से दूर ही रखा है। दागदार लोगों से जुड़ना नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं आया। लेकिन यही बात नीतीश कुमार के लिए नहीं कही जा सकती। कभी साफ़-सुथरी छवि वाले नीतीश आज विवादों से घिरे हैं। उनकी जीवन शैली बदल चुकी है। आरटीआई से प्राप्त जानकारी के मुताबिक अपने सरकारी आवास और पैतृक गांव को संवारने में उन्होंने सरकारी खजाने के सैंकड़ों करोड़ रुपए खर्च किये हैं। चापलूस, अपराधी और दागदार आज उनकी खास पसंद हैं और अपने खानदान की मूर्तियां स्थापित करने में वह मायावती से थोड़ा ही पीछे हैं।

(फारवर्ड प्रेस के सितंबर, 2012 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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