दिसंबर, 1956 को डा. आम्बेडकर दिवंगत हुए थे। इस दिसंबर में उन्हें दिवंगत हुए 56 वर्ष हो गये लेकिन इन 56 वर्षों मेें भारत बहुत कुछ बदल चुका है। आज जो भारत है, उसके निर्माण में सबसे ज्यादा भूमिका किसकी है? दूसरे शब्दों में कहें तो आज का भारत किससे ज्यादा प्रभावित है? यह सवाल जब आप किसी सवर्ण हिन्दू से करेंगे, तब वह यह कहेगा गांधी से या नेहरू से। कुछ विशिष्ट किस्म के मध्यवर्गीय लोग होंगे जो कहेंगे कई चीजें, कई व्यक्तित्वों ने भारत को प्रभावित किया है। संभव है, वे कई और नाम जोड़ें, लेकिन गांधी, नेहरू को जरूर शामिल करेंगे। बहुत कम लोग होंगे, जो अपनी सूची में डा. आम्बेडकर को रखेंगे।
लेकिन दलितों व सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग, जिसे अब सामान्यत: ओबीसी कहा जाने लगा है, के लोगों से जब आप यही सवाल करेंगे तब ज्यादातर के पास बाबा साहेब डा. आम्बेडकर का नाम होगा। दलितों और पिछड़े वर्गों के शिक्षित समुदाय के मानसिक गठन की पृष्ठभूमि आम्बेडकरवादी अवयवों से हुई है। कुछ मामलों में प्रत्यक्ष रूप से और ज्यादातर मामलों में परोक्ष रूप से। 6 दिसंबर, 1956 को बाबा साहेब का निधन दिल्ली में हुआ था। रात में वह देर तक काम कर रहे थे। कागजों के जिस ढेर पर काम कर रहे थे, सुबह उसी पर गिरे पाए गए। दिल्ली के एक छोटे समूह में शोक की लहर छा गई। छोटा समूह इसलिए कहा गया, क्योंकि दिल्ली में दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों का तब कोई बड़ा समूह नहीं था। आज भी नहीं है। लेकिन अब पहले वाली बात नहीं है।
हां, मुंबई और महाराष्ट्र बड़े पैमाने पर शोकाकुल हुआ था और उनकी शवयात्रा में लोगों की भागीदारी को आज भी याद किया जाता है। समाचार पत्रों ने उन पर अग्रलेख लिखे और तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से लेकर अनेक गणमान्य लोगों ने अपनी शोकांजलियां अर्पित कीं, लेकिन आज जो डा. आम्बेडकर का प्रभाव है, उसके अनुरूप वह नहीं था। 1980 के पूर्व स्कूल-कालेजों में विनोबा भावे तक की जीवनी पढाई जाती थी लेकिन दूर-दूर तक आम्बेडकर नाम की चर्चा नहीं होती थी। आम्बेडकर चर्चा के केंद्र में किसी सरकारी प्रचार माध्यम या मीडिया के बूते नहीं, बल्कि अपनी ताकत से आए। जैसे-जैसे दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों में शिक्षा का प्रसार हुआ, उनके मानस पर थोपे गए गांधी व नेहरू कमजोर होने लगे और आंबेडकर का प्रभाव स्वाभाविक रूप से बढता गया। आज पूरे भारत के गांव-टोलों और नगरों में सबसे अधिक मूर्तियां किसी की हैं तो वह डा. आम्बेडकर की हैं। इनमें बहुत कम मूर्तियां सरकारी कोष से बनी हैं। ज्यादातर के निर्माता वह जनसमूह है, जिसने अपने मुक्तिदाता के रूप में उन्हें स्वीकार किया है। आधुनिक भारत के सबसे बड़े मूर्तिभंजक की सबसे अधिक मूर्तियां अपने आप में एक सवाल है। लेकिन जो है, वह है। इस दौर में नेहरू तो कहीं नहीं ठहरते, गांधी भी बहुत पीछे छूट चुके हैं और छूटते ही जा रहे हैं। कोई नेता लोकप्रियता के मामले में डा. आम्बेडकर का मुकाबला नहीं कर सकता। राम, कृष्ण, बुद्ध जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक महापुरुषों के बाद आधुनिक युग के दो महत्वपूर्ण लोग हैं जिनके जन्मदिन पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। ये दो हैं गांधी और आम्बेडकर।
गांधी का शुरुआती दौर में जो महत्व था, उसके सामने आम्बेडकर कहीं नहीं टिकते थे। भारतीय बुर्जुआ तबके ने गांधी को एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती के रूप में खड़ा करने की पुरजोर कोशिश की। अनेक गांधी प्रतिष्ठानों, सैकड़ों विश्वविद्यालयों और हजारों-लाखों लेखकों-बुद्धिजीवियों ने उन्हें उत्पीडि़तों के मसीहा के रूप में खड़ा करना चाहा, लेकिन वे विफल हुए। आज एक बौद्धिक के लिए गांधी साम्राज्यवाद विरोधी और राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रणी नेता जरूर हैं, लेकिन स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा जैसे आधुनिक उसूलों के लिए आम्बेडकर ने जो कार्य किए, उसके सामने गांधी बौने दिखते हैं। किन्हीं मामलों में प्रतिनायक भी। जैसे आज के एक बुद्धिजीवी को यह स्वीकारने में कठिनाई होती है कि बीसवीं सदी का कोई भारतीय राष्ट्रनायक वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था का समर्थन करता था। 1940 के बाद गांधी का एक व्यापक राष्ट्रवादी चरित्र जरूर सामने आया था लेकिन उनकी विचारधारा में विज्ञान, विवेक और आधुनिकता के पहलू अब भी कमजोर थे। गांधी की मृत्यु के उपरांत, उनके वास्तविक उत्तराधिकारी विनोबा भावे बने, जिन्हें अंतत: कांग्रेसी शासन का सरकारी संत कहा जाने लगा था। नोबेल विजेता वीएस नायपाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इंडिया : ए वुंडेड सिविलाइजशन में विनोबा की जो तस्वीरें खींची हैं, वह एक प्रतिनायक जैसी है। हमें तय करना होगा कि गांधी की विरासत विनोबा में है, या फिर नेहरू व लोहिया में। नेहरू ने अनेक स्तरों पर गांधी से अपना मतभेद स्पष्ट कर दिया था और लोहिया तो अपने आप को कुजात गांधीवादी कहते थे। मेरी तो स्पष्ट राय है कि लोहिया गांधी से यदि पूरी तरह मोहभंग कर चुके होते तो, कहीं बड़े विचारक होते। गांधी की विरासत संभाल रहे लोग आज या तो हिन्दू समाज की दकियानूस विचारधारा में आधुनिकता का मुलम्मा चढाने में लगे हैं या फिर अन्ना हजारे की तरह भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारों के साथ सरकारी भ्रष्टाचार के उन्मूलन और ग्राम स्वराज की स्थापना जैसे अभियानों में लगे हैं। निश्चय ही मध्यवर्ग अथवा सिविल सोसायटी के बड़े तबके का समर्थन इन्हें प्राप्त है। लेकिन इस तबके के पास समाज को बदलने, उसे बेहतर करने, न्यायपूर्ण व समतापूर्ण बनाने का कोई लक्ष्य नहीं है, कोई दृष्टि भी नहीं है।
लेकिन आम्बेडकर की विरासत सगुण से अधिक निर्गुण है। उसका कोई स्पष्ट ढांचा दिखता नहीं। वह लगभग निराकार है लेकिन वह लगातार विस्तारित हो रहा है। दलित, अन्य पिछड़े वर्गों और अब तो सामान्य कहे जाने वाले सवर्ण तबकों के युवा भी इसके वाहक हो रहे हैं। हर छोटे-बड़े मामले पर इनकी राय होती है। इनके अपने पुख्ता विचार होते हैं, अपनी दृष्टि होती है। यह दृष्टि विज्ञान और विवेक के अवयवों से निर्मित होती है। वर्णव्यवस्था, जाति व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था की पूरी विचारना को इन्होंने नकार दिया है और गांधी को वह ऐतिहासिक से ज्यादा पौराणिक मानने लगे हैं। पौराणिक पात्रों की पूजा की जाती है, उनसे सीख नहीं ली जाती। उन पर बहस भी नहीं की जाती। गांधी बहस-विमर्श के विषय नहीं हैं। विमर्श के विषय हैं-आम्बेडकर। वही उनकी रुचि के विषय हैं और उन्हीं से वह कुछ सीख भी सकते हैं। आज भारत के लाखों-करोड़ों नौजवानों को आम्बेडकर अपनी सोच, अपनी दृष्टि से प्रभावित कर रहे हैं। वह उन्हें एक नए आधुनिक भारत का निर्माण करने को प्रेरित कर रहे हैं जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित होगा।
आम्बेडकर की विरासत संभाल रही यह पीढी नए भारतीय राष्ट्रवाद को मजबूत कर रही है-ऐसे राष्ट्रवाद को जो सच्चे अर्थों में न्यायपूर्ण व विज्ञान सम्मत है, इनका राष्ट्रवाद नदियों और पहाड़ों वाला-वंदे मातरम वाला-शुजलां-सुफलां राष्ट्र नहीं है। यह राष्ट्र करोड़ों लोगों का राष्ट्र है जिसे यहां के मजदूर, किसान, दलित व दस्तकार जन उठाए हुए हैं। राष्ट्र की अवधारणा को लूट रहे लोगों को भले ही भ्रष्टाचार भारत की मूल समस्या लगे, असली समस्या तो यहां मनुष्य का शोषण है। एक तबके के द्वारा पूरे देश का शोषण। यह तबका कहां है ? तब यह चुनौती भरा कार्य था। आम्बेडकर ने विषम परिस्थितियों में कार्य किया था। गांधी-विनोबा बनने में उनकी रुचि नहीं थी। उनकी रुचि वाल्तेयर, रूसो और माक्र्स बनने में थी। आम्बेडकर की विरासत संभाल रहे लोग उन्हें ढूंढ रहे हैं।
दलितों की समस्या को उन्होंने राष्ट्रीय समस्या के रूप में स्थापित किया। 1932 के पुना प्रसंग के बाद गांधी जैसे नेता भी उनकी ओर मुखातिब हुए। वह आम्बेडकर ही थे जिन्होंने गांधी का ध्यान इनकी ओर खिंचा था। साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के आधुनिक कहे जाने वाले नेता भी, जैसे नेहरू व सुभाष इससे चिढ रहे थे लेकिन आम्बेडकर अपना काम करते रहे। उन्होंने माक्र्सवाद का व्यापक अध्ययन किया था, लेकिन रूढ माक्र्सवादी बनने में उन्होंने दिलचस्पी नहीं ली। इटालियन चिंतक-यौद्धा अन्तोनियो ग्राम्शी की तुलना में उनका काम ज्यादा चुनौतीपूर्ण था। वह एक माक्र्सवादी की तरह ही स्वीकारते थे कि राजनीति केवल अधिरचना है। इसमें फेरबदल करने से कुछ नहीं होगा। मूल चीज है समाज। जब हम समाज में बदलाव ला देंगे, तब अधिरचना में स्वत: बदलाव आ जाएगा। संरचना में बदलाव के बिना अधिरचना में बदलाव मुश्किल होगा। इसलिए उन्होंने जोर दिया कि राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक लोकतंत्र को मजबूत करना ही होगा। उनका सारा जोर सामाजिक बदलाव पर था। समाज को बदलने का मतलब था, उसकी सोच में बदलाव। ढोंग-ढकोसलों और अंधविश्वासों पर टिके हुए विचार-दर्शन की उन्होंने निर्मम आलोचना की। विचारों के लिए उन्होंने यह नहीं देखा कि ये किस दिशा, देश या काल के विचार हैं। अनेक दकियानूस, जिसमें गांधी भी कभी-कभी शामिल हो जाते थे-कुछ विचारों को पश्चिम का मानते थे और नकारते थे। हिन्द स्वराज का तो आधार ही यही है। आम्बेडकर ने इन सब की आलोचना की, अपनी पुस्तक व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स में पहली दफा व्यवस्थित रूप से उन्होंने गांधीवाद की आलोचना की। भारतीय नवजागरण (रेनेसां) के केंद्रक बने वैदिक-शास्त्रवाद के बरक्स बौद्ध विवेकवाद को खड़ा करके उन्होंने एक दूसरा बड़ा काम किया।
वह बहुत कम समय तक भारत सरकार में मंत्री पद पर रहे, लेकिन उनके द्वारा किए गए कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भारतीय संविधान के निर्माण में महती भूमिका और कानून मंत्री के रूप में हिन्दू कोड बिल प्रस्तुत करने का ऐतिहासिक कार्य तो सब लोग जानते हैं, लेकिन यह कम लोगों को मालूम है कि भारत की सिंचाई परियोजनाओं, बिजली उत्पादन और प्रांतीय वित्तीय व्यवस्था को ठीक करने में भी उनकी भूमिका है। दामोदर घाटी योजना और हीराकुंड बांध उनकी ही सोच की देन हैं। भारत के पंचवर्षीय योजनाओं को गांधीवादी रामनामी से अलग रखने में उन्होंने महती भूमिका निभाई।
इसलिए आज का भारत मुझे गांधी से ज्यादा आम्बेडकर का भारत प्रतीत होता है। भारतीय लोकतंत्र की गहरी हो रहीं जड़ें उनकी विरासत हैं। नौजवानों के दिल-दिमाग में आधुनिकता व विज्ञान के प्रति जो दिलचस्पी बढ रही है वह उनकी विरासत है। सामाजिक न्याय की आधारशिला उन्होंने रची थी। इसकी विचारना आज सभी राजनीतिक विचारनाओं से ऊपर है। हां, एक तबका यह जरूर चाहता है कि आम्बेडकर दलित दायरे से ऊपर न उठें। कुछ लोग तो उन्हें महार से भी ऊपर नहीं जाने देना चाहते। पता नहीं, वे आम्बेडकर को कितना समझ पाए हैंं। निरंतर परिवर्तन चाहने वाले, स्वतंत्रता के सबसे बड़े नायक को एक दायरे में बांध कर रखने वाले लोग निश्चित ही उनकी विरासत को आगे नहीं बढा रहे। उनका एक कथन है-लोकतंत्र के लिए अधिक घातक है-अर्ध दैविक लोगों को गुरु बनाने की भारतीय प्रवृत्ति। राजनीति में भक्ति निश्चय ही पतन और अंतत: तानाशाही का कारण है।
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)
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