प्रिय दादू,
मैंने सुना है कि कुछ लोग योग का इस आधार पर विरोध करते हैं कि वह लोगों को हिन्दू धर्म में दीक्षित करता है। मैं आम्बेडकर का अनुयायी हूं और इसलिए इस मामले में दुविधा में हूं। आप हिन्दू हैं परंतु अपने निष्पक्ष नजरिए के लिए जाने जाते हैं। मैं जानना चाहता हूं कि इस मुद्दे पर आपके क्या विचार हैं।
सप्रेम,
साफा
प्रिय साफा,
यह सही है कि अमेरिका में कुछ अभिभावकों ने योग कक्षाओं के विरुद्ध कानूनी लड़ाई शुरू की है, क्योंकि उन्हें आशंका है कि योग के जरिए हिन्दू धर्म का प्रचार हो रहा है। वे इस तथ्य से चिंतित हैं कि योग की जड़ें हिन्दू परंपराओं, रीति-रिवाजों और आस्थाओं में है। उनके मन में यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या योग अपनी इन जड़ों से इस हद तक विलग हो चुका है कि उसे धर्मनिरपेक्ष स्कूलों में सिखाया जा सके। हम हिन्दू भी इस मामले में एकमत नहीं हैं और इस देश से संबंधित लगभग हर मुद्दे की तरह इस मुद्दे का भी कोई स्पष्ट या सीधा समाधान नहीं है।
हममें से कुछ योग के हिन्दू रीति-रिवाजों, परंपराओं और आस्थाओं से विलग होने की प्रक्रिया से प्रसन्न हैं और उसे प्रोत्साहित करना चाहते हैं। हममें से कुछ को हिन्दू धर्म और योग के बीच संबंध से कोई आपत्ति नहीं है। हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो योग को हिन्दू धर्म से विलग करने के प्रयासों के विरोधी हैं, उससे नाखुश हैं और यह चाहते हैं कि योग को एक बार फिर हिन्दू धर्म के झंडे तले लाया जाए।
इस मुद्दे पर अलग-अलग राय होने का एक कारण यह भी है कि अब योग की भी कई किस्में हो गई हैं और अलग-अलग गुरु अपने-अपने ब्रांड के योग को बढ़ावा दे रहे हैं।
बहुत कम लोग और इनमें वे लोग शामिल हैं जो अमेरिका या अन्य स्थानों पर योग की शिक्षा दे रहे हैं। योग के विभिन्न प्रकारों के विकास के इतिहास से परिचित हैं (इसमें यह तथ्य शामिल है कि योग पर पश्चिमी व्यायामों का प्रभाव भी है)। यह ठीक वैसा ही है जैसे हममें से बहुत कम हिन्दू आस्थाओं, परंपराओं और रीति-रिवाजों के इतिहास के बारे में जानते हैं।
किसी भी मौखिक परंपरा का एक नुकसान यह है कि कोई भी व्यक्ति उसमें कोई नया तत्व जोड़ सकता है और यह दावा कर सकता है कि वह तत्व तो सैकड़ों या हजारों सालों से उस परंपरा का हिस्सा था। इसी तरह, परंपरा में से किसी तत्व को हटाया जा सकता है या उसमें परिवर्तन किया जा सकता है और वह तत्व ऐसा भी हो सकता है जो सच में उस परंपरा का सैकड़ों या हजारों सालों से हिस्सा था। मजे की बात यह है कि उस व्यक्ति के अनुयायियों में से शायद ही कोई यह समझ सकेगा कि उनके साथ क्या खेल खेला गया है।
वैसे भी, हम हिन्दुओं में से भी कुछ योग को सिर्फ इसलिए अपनाते हैं ताकि हमारा शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर रह सके। हमारे लिए योग के धार्मिक या दार्शनिक पहलुओं का कोई महत्व नहीं होता। हममें से कुछ अन्य योग के किसी प्रकार विशेष को इसलिए अपनाते हैं ताकि हमें मानसिक शांति मिल सके। एक तीसरा वर्ग उन लोगों का हो सकता है जो योग का इस्तेमाल दैवीय शक्तियां हासिल करने के लिए करना
चाहते हैं। वह दैवीय शक्ति या तो बाहर से प्राप्त हो सकती है या हमारे अंदर से (कुंडलिनी)।
हिन्दुओं के बीच इतनी मत विभिन्नता होने का एक कारण यह है कि हमारे धर्म की कोई केंद्रीय सत्ता नहीं है और न ही कोई स्थापित मानक हैं जिनकी कसौटी पर कसकर यह तय किया जा सके कि क्या सच है और क्या झूठ, क्या स्वीकार्य है और क्या अस्वीकार्य। और मेरी तो इच्छा यह है कि ऐसी ही स्थिति सदैव बनी रहे।
परंतु इस व्यवस्था का एक नुकसान यह है कि कई सीधे-सादे अमेरिकी अभिभावक (व सरकार और शैक्षणिक संस्थान व भारत में भी कई लोग) दुविधा में हैं और यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि धर्मनिरपेक्ष शैक्षणिक संस्थाओं में योग की शिक्षा दी जानी चाहिए या नहीं।
मैं योग के किसी भी ब्रांड की तुम्हारे या किसी अन्य के लिए उपयुक्तता का परीक्षण करने के लिए निम्नलिखित कसौटियां प्रस्तावित करता हूं।
1. क्या योग के जिस ब्रांड को सिखाया जाना है उसका कोई विशिष्ट नाम है (या उसे सिर्फ योग कहा जा रहा है)? क्या उस ब्रांड के योग का कोई जनक है? क्या कोई ऐसी संस्था है जो योग के उस ब्रांड का नियमन करती हो ? क्या ऐसी पुस्तकें या दस्तावेज हैं जिनमें उस प्रशिक्षण का वर्णन हो जो उस ब्रांड के योग के प्रमाणीकृत प्रशिक्षक के लिए प्राप्त करना आवश्यक हो ? अगर नहीं, तो उस ब्रांड के योग को सिखाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए (चाहे भारत हो या विदेश, योग को अत्यंत लापरवाहीपूर्वक और अमानक तरीकों से सिखाया जाता है)।
2. क्या उस ब्रांड के योग की केन्द्रीय नियमन संस्था में नियंत्रण या निरीक्षण की ऐसी कोई व्यवस्था है, जिसके जरिए वह यह सुनिश्चित कर सके कि उसके द्वारा प्रमाणीकृत प्रशिक्षक केवल अधिकृत प्रशिक्षण दे रहे हैं या नहीं और कहीं उन्होंने कोई परिवर्तन-चाहे वह अच्छा हो या बुरा-तो नहीं कर दिया है। नि:संदेह हरेक व्यक्ति को नवाचार करने का अधिकार होना चाहिए परंतु उन नवाचारों की उस ब्रांड के योग की केन्द्रीय संस्था द्वारा उचित जांच और परीक्षण किया जाना चाहिए और उसके बाद ही नवाचारों को प्रशिक्षण का हिस्सा बनाने की अनुमति दी जानी चाहिए। स्पष्टत: (योग या किसी भी अन्य विधा के) अधिकृत प्रशिक्षकों को वही और केवल वही सिखाना चाहिए जिसे सिखाने के लिए वे अधिकृत हैं।
3. क्या कोई धार्मिक रीति-रिवाज प्रशिक्षण का हिस्सा है (उदाहरणार्थ, किसी मूर्ति के सामने सिर झुकाना या किसी मंत्र का जाप-चाहे वह आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हो या कंपन या किसी और उददेश्य से)?
4. किसी योगमुद्रा या योगासन के दौरान क्या होता है या उससे कौन से लाभ प्राप्त होते हैं, इस संबंध में जो कुछ भी बताया जाता है क्या उसका संबंध किसी हिन्दू परंपरा, विश्वास या छदम-वैज्ञानिक सिद्धांत या किसी ऐसे प्रयोग से है जो इस समय चल रहा है।
अगर योग का कोई ब्रांड इन चार साधारण कसौटियों पर खरा उतरता है तो यह स्पष्ट है कि वह केवल व्यायाम का एक प्रकार है जिससे शारीरिक लाभ होगा, ठीक उसी तरह जैसे किसी अन्य शारीरिक व्यायाम जैसे पैदल चलने, दौडऩे, खेलने या कैलिसथैनिक्स से होता है।
इस तरह के ब्रांड के योग को अपनाने या करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती यद्यपि यह तुम्हारी व्यक्तिगत पसंद है कि तुम योग करो या व्यायाम का कोई अन्य तरीका चुनो।
जहां तक योग के अन्य स्वरूपों का सवाल है (उदाहरणार्थ जिनमें किसी मूर्ति का वंदन करना होता है या किसी श्लोक विशेष का वाचन करना होता है या जो कुण्डलिनी जागृत करने की बात करते हैं) वे स्पष्टत: किसी न किसी हिन्दू विश्वास, रीति रिवाज या दैवीय शक्ति से संबद्ध हैं और तुम्हें यह तय करना है कि तुम इस तरह के योग में शामिल होना चाहते हो या नहीं।
सप्रेम
दादू
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in