स्व-घोषित धर्मनिरपेक्ष ओबीसी नेता मुलायम सिंह यादव ने हाल मेें जिस तरह नौकरियों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति व जनजाति के सदस्यों के लिए आरक्षण के खिलाफ खुले तौर पर युद्ध की घोषणा की, उससे कई दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों को आश्चर्य हुआ। कुछ को इससे धक्का भी पहुंचा। मुलायम सिंह और उनकी समाजवादी पार्टी ने संविधान (117वां संशोधन) विधेयक 2012 का राज्यसभा और लोकसभा दोनों में जमकर विरोध किया। अन्य यादव नेताओं जैसे शरद व लालू द्वारा इस विधेयक के समर्थन के बावजूद, मुलायम सिंह यादव ने अपना विरोध जारी रखा। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि 17 दिसम्बर 2012 को इस विधेयक के विरोध में राज्यसभा में जिन दो दलों-समाजवादी पार्टी और शिवसेना-ने मत दिया, उन दोनों का ही नेतृत्व शूद्रों के हाथ में है। समाजवादी पार्टी के मुखिया पिछड़ी जाति के शूद्र्र हैं और शिवसेना अध्यक्ष उच्च जाति शूद्र (कायस्थ) ठाकरे कुटुम्ब से हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि पदोन्नति में एससी/एसटी के लिए आरक्षण के मुुलायम द्वारा विरोध का यह अर्थ नहीं है कि सभी ओबीसी उसके खिलाफ हैं। परंतु मुलायम सिंह यादव एक शक्तिशाली ओबीसी नेता हैं और ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर उनकी राय का असर सामाजिक न्याय के मुद्दे पर एससी, एसटी व ओबीसी एकता पर पडऩा अवश्यंभावी है। सामान्यत: यह माना जाता है कि एससी/एसटी/ओबीसी एकता से ब्राहम्णों की शक्ति के गुब्बारे में छेद किया जा सकता है। परंतु यहां तो मुलायम सिंह यादव, जो कि एक पिछड़ी जाति के शूद्र हैं, ने खुलेआम एससी/एसटी का विरोध कर एसीसी/एसटी/ओबीसी एकता के गुब्बारे में छेद कर दिया!
मुलायम के विरोध की मीमांसा
विधेयक के विरोधियों के नेता के रूप में उभरकर मुलायम सिंह ने ब्राहम्णवादी आरक्षण-विरोधियों के चेहरों पर मुस्कान वापस ला दी है। इनमें वे तत्व शामिल हैं, जिन्हें अपने वोट बैंक की राजनीति के चलते सार्वजनिक रूप से इस विधेयक का समर्थन करना पड़ा था। कई लोग यह पता लगाने में जुटे हैं कि मुलायम सिंह के इस विरोध के पीछे क्या था। कुछ की राय है कि उन्होंने राजनीतिक उद्देश्यों से इस विधेयक का विरोध किया। वे 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों और उसके बाद भी उत्तरप्रदेश के हिन्दू उच्च जातियों के वोट प्राप्त करना चाहते हैं। दूसरों का कहना है कि मायावती के प्रति उनके राजनीतिक विरोध ने उन्हें दलित-विरोधी बना दिया है। एक तीसरा समूह उन लोगों का है, जिनमें समाजवादी पार्टी के कुछ नेता शामिल हैं, जो यह स्पष्टीकरण दे रहे हैं कि मुलायम ने भर्ती के स्तर पर एससी/एसटी के लिए आरक्षण का विरोध नहीं किया है। वे केवल पदोन्नति में आरक्षण के विरोधी हैं। मुलायम सिंह का स्वयं का कहना यह है कि उन्होंने इस विधेयक का विरोध इसलिए किया, क्योंकि उसमें ओबीसी के लिए पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान नहीं था।
मुलायम सिंह यादव के चाल, चरित्र और चेहरे की गंभीर सामाजिक-सांस्कृतिक विवेचना से हमें यह समझ में आएगा कि एससी/एसटी के लिए पदोन्नति में आरक्षण के उनके विरोध के पीछे कुछ अलग ही कारण हैं। अनारक्षित समुदायों का समर्थन करने की उनकी उत्कंठा के चलते उन्होंने एससी, एसटी के प्रति जातिगत घृणा-बल्कि एक तरह के नस्लवाद का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। उन्होंने इस तथ्य को नजरंदाज किया कि अनारक्षित ”सामान्य” समुदाय मूलत: ओबीसी आरक्षण के भी विरोधी हैं और वे ही ओबीसी वर्गों को सदियों तक पिछड़ा बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं। मुलायम सिंह ने एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के प्रस्ताव के अपने विरोध को औचित्यपूर्ण सिद्ध करते हुए कहा कि एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण देना राष्ट्रविरोधी होगा। वे यह भूल गए कि इसी तर्क का इस्तेमाल आरक्षण की सम्पूर्ण व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए किया जा सकता है। उन्होंने यह आशंका प्रकट की कि अगर एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण दिया जाता है तो अन्य समुदायों का कोई सदस्य मुख्य सचिव या कैबिनेट सचिव नहीं बन सकेगा। परंतु उन्होंने यह खुलासा नहीं किया कि अगर कोई एससी/एसटी कैबिनेट या मुख्य सचिव बन जाता है तो उसमें गलत क्या है।
क्या मुलायम यह भूल गए कि मंडल आंदोलन के दौरान दलितों ने ओबीसी आरक्षण को बिना शर्त समर्थन दिया था। तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री रामविलास पासवान ही वह व्यक्ति थे जो मंडल आयोग की रपट को राजनीतिक मंच के केंद्र में लाए थे। क्या वे मंडल आंदोलन को मजबूती देने में दलित बुद्धिजीवियों व पूरे भारत, विशेषकर जेएनयू के विद्यार्थियों के योगदान को भुला सकते हैं? जब ओबीसी को उनकी जरूरत थी तब दलितों ने उन्हें अपना पूरा समर्थन दिया। अब, जबकि दलितों को समर्थन की आवश्यकता है, ओबीसी उनका साथ देने से इनकार कर रहे हैं। क्या यह केवल सत्ता की राजनीति नहीं है। क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि जहां तक दलित हितों के विरोध का प्रश्न है, उच्च जातियों और ओबीसी में कोई अंतर नहीं है। मुलायम सिंह यादव को अपने इस विरोध की कीमत उस दिन चुकानी होगी जब उच्च जातियां, ओबीसी के लिए आरक्षण का विरोध करेंगी। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आरक्षण विरोधी उन्हें भारत का पहला यादव प्रधानमंत्री बनाएंगे। परंतु एक बात स्पष्ट है और वह यह है कि मुलायम ने फुले-शाहू-आम्बेडकर द्वारा दलित-बहुजनों के दिलों व दिमागों की एकता स्थापित करने के लिए पिछले 150 वर्षों में बड़ी मेहनत से किए गए प्रयासों को पलीता लगा दिया है। मुलायम सिंह यादव आखिर एससी/एसटी को नाराज क्यों करना चाहते हैं? यह इस तथ्य के बावजूद कि इन वर्गों की उपस्थिति पूरे देश में है। क्या एससी/एसटी वोट बैंक के समर्थन के बगैर वे राष्ट्रीय स्तर पर सफल राजनेता बन सकते हैं?
शूद्र संस्कृति
मुलायम की राजनीतिक मजबूरियों और समीकरणों पर बहस करने की बजाय बेहतर यह होगा कि हम उनकी सांस्कृतिक प्रतिबद्धताओं से प्रेरित सामाजिक आवश्यकता का विश्लेषण करें। सामान्यत: एससी/एसटी के लिए पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ सबसे आगे किसी उच्च जाति के हिन्दू नेता को खड़ा दिखना था। परंतु उसकी जगह नेतृत्व संभाला एक ओबीसी नेता ने। कोई शूद्र राजनीतिक नेता भला एससी/एसटी के लिए आरक्षण के विरोधियों का नेतृत्व क्यों करेगा? इस विरोधाभास को समझने में जो शब्द हमारी सबसे अधिक मदद कर सकता है वह है ”शूद्र”। जब तक हम हिन्दू समाज की शूद्र संस्कृति को नहीं समझ लेते तब तक हम मुलायम की सामाजिक आवश्यकता को नहीं समझ सकेंगे। यहां मुद्दा राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक है। उन्होंने एससी/एसटी से ज्यादा महत्व उच्च जातियों को क्यों दिया? इस प्रश्न का उत्तर उनकी संस्कृति में छिपा है, उनकी राजनीति में नहीं। उनकी सामाजिक वरीयताओं को समझने के लिए हमें उनकी संस्कृति को समझना होगा। यदि वे उच्च जातियों को वरीयता दे रहे हैं तो इसके पीछे सामाजिक कारण हैं राजनीतिक नहीं। वे सांस्कृतिक कारकों के चलते ऐसा कर रहे हैं। एससी/एसटी के प्रति उनका सामाजिक स्तर पर विरोध उनकी राजनीति में प्रतिबिम्बित हो रहा है। यह केवल उत्तरप्रदेश में उच्च जातियों के वोट हासिल करने का मसला नहीं है। यह विरोध उपजा है ऊंची जातियों से सामाजिक स्तर पर समकक्षता हासिल करने की इच्छा से। फिर भले ही इसके लिए दलितों को उनके जायज अवसरों से वंचित क्यों न किया जाना पड़े। मुलायम सिंह, दरअसल, ऊंची जातियों को एक सामाजिक संदेश दे रहे हैं और वह संदेश यह है कि ओबीसी उनका ही हिस्सा हैं। वे शूद्र होते हुए भी ब्राहम्णवाद के झंडाबरदार बन गए हैं।
जाति व्यवस्था में दलित और आदिवासी, सर्वाधिक दमित समुदाय हैं। यादव, लोध और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों के शूद्र, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से उच्च जातियों के हिन्दुओ की तुलना में पिछड़े हैं। परंतु शिक्षा और समृद्धि हासिल करने के बाद उनमें और उच्च जातियों में कोई अंतर नहीं रह जाता। शिक्षित व समृद्ध ओबीसी शूद्रों को उच्च जातियों के समाज में सम्मान और स्वीकार्यता प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय ने ओबीसी आरक्षण से ”क्रीमीलेयर” को वंचित इसलिए किया था, क्योंकि ओबीसी, हिन्दू वर्ण व्यवस्था के हिस्से हैं। दूसरी ओर, एससी/ एसटी न केवल शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हैं बल्कि वे हिन्दू सांस्कृतिक व्यवस्था से भी बाहर हैं। वे हिन्दू समाज का हिस्सा ही नहीं हैं। यही कारण है कि एससी/एसटी के मामले में कोई क्रीमीलेयर बंधन नहीं है। शैक्षणिक और आर्थिक प्रगति के बाद भी दलितों और आदिवासियों को हिन्दू समाज में सम्मान और स्वीकार्यता नहीं मिलती। हिन्दू समाज के लिए वे बाहरी हैं।
हिन्दू गांव, वर्णव्यवस्था का एक मॉडल है। पिछड़ी जातियों के शूद्र गांव का हिस्सा और हिन्दू सांस्कृतिक व्यवस्था की रक्षा को उद्यत सामाजिक सेना के सिपाही होते हैं। पिछड़ी जाति के शूद्र का धर्म है कि वह ब्राहम्णवादी सांस्कृतिक व्यवस्था की पूरी ताकत से रक्षा करे। उसके मन में इच्छा यही रहती है कि वह ऊंची जातियों के अपने सामाजिक आकाओं के साथ जुड़े। वह दलितों का साथी बनना नहीं चाहता। यही एक कारण है कि मुलायम ऊंची जातियों के साथी और एससी/एसटी के विरोधी बनकर उभरे हैं। वर्णव्यवस्था में शूद्रों को अपने से ऊंचे तीनों वर्णों की सेवा तो करनी ही होती है, वह धर्मरक्षक भी होता है। उसे दलितों और आदिवासियों जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक अजनबियों या दूसरे शब्दों में ”अवर्णों” से मुकाबला करना होता है। मुलायम सिंह द्वारा एससी/एसटी आरक्षण के विरोध को इस सांस्कृतिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। वे केवल शूद्र बतौर तीनों उच्च वर्णों के हितों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य को पूरा कर रहे हैं। एक सच्चे शूद्र की तरह वे वर्णधर्म को संरक्षित रखने के लिए काम कर रहे हैं। एससी/एसटी के लिए आरक्षण का उनका विरोध, सांस्कृतिक एकता पर आधारित सामाजिक प्रतिबद्धता से उपजा है।
धर्मनिरपेक्ष जातिवाद
”धर्मनिरपेक्ष” मुलायम सिंह यादव, सांप्रदायिक भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस का समर्थन करते हैं। यही धर्मनिरपेक्ष यादव, एससी/एसटी सरकारी कर्मचारियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण का जोरदार विरोध करते हैं। धर्मनिरपेक्ष यादव की यह राजनीति, फुले-शाहू-आम्बेडकर की विरासत का खुल्लम-खुला अपमान है, जिन्होंने ओबीसी सहित सभी दमित वर्गों को मताधिकार और गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यादव की राजनीति, धर्मनिरपेक्ष जातिवाद का अच्छा उदाहरण है। इससे यह साबित होता है कि धर्मनिरपेक्षतावादी भी जातिवादी हो सकता है। धर्मनिरपेक्षतावादी सामंती भी हो सकता है और सामाजिक प्रजातंत्र का विरोधी भी। कथित धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के जातिवाद को धर्मनिरपेक्ष जातिवाद कहा जाता है। अत: मुलायम सिंह यादव सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षतावादी नहीं हैं। वे सच्चे धर्मनिरपेक्ष जातिवादी हैं। भारत में इस तरह की धर्मनिरपेक्ष राजनीति का लक्ष्य ब्राहम्णों के हाथ से राजनीतिक सत्ता छीनना तो है, परंतु ब्राहम्णवादी संस्कृति का अंत करना नहीं है। ऐसा लगता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता भले ही सांप्रदायिकता को हराने में सफल रही हो परंतु वह जातिवाद पर विजय प्राप्त नहीं कर पाई है। राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद ”धर्मनिरपेक्ष शूद्र” अपने उच्च जाति के हिन्दू आकाओं की नकल करने लगते हैं। धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक-दोनों राजनीतिक ताकतें सत्ता हासिल करने के लिए दलितों और आदिवासियों के वोट लेने को तैयार हैं। परंतु सनातन जातिवाद और धर्मनिरपेक्ष जातिवाद, जो क्रमश: सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की नीति है, यह सुनिश्चित करती है कि सामाजिक बराबरी का एजेंडा कभी राजनीतिक प्राथमिकता न बन पाए। धर्मनिरपेक्षता विरुद्ध सांप्रदायिकता का संघर्ष सामाजिक के स्थान पर राजनीतिक संघर्ष बन गया है। मुलायम के प्रेरणास्रोत फुले और आम्बेडकर नहीं बल्कि गांधी और लोहिया हैं। मुलायम भारतीय समाज का ”दलितीकरण” नहीं करना चाहते। वे ब्राहम्णवाद को संरक्षित रखना चाहते हैं। अपनी विचाराधात्मक कंगाली के चलते ही वे ब्राहम्णवादी सांस्कृतिक प्रभुसत्ता के आगे नतमस्तक हो गए हैं।
मूलभूत सांस्कृतिक परिवर्तन
मुलायम सिंह के लिए इस दुविधा से निकलने का एकमात्र रास्ता है अपनी संस्कृति में मूलभूत परिवर्तन। विचारधारा में बदलाव से संस्कृति
में बदलाव आता है। आरक्षण को अवसर उपलब्ध करवाने वाली व्यवस्था के स्थान पर सामाजिक परिवर्तन के हथियार के तौर पर देखना ही
दलितीकरण है। आरक्षण को मुक्ति की विचारधारा के रूप में देखना ही दलितीकरण है। दलितीकरण ही दलितों, आदिवासियों और बहुजनों की सामाजिक-सांस्कृतिक विचारधारा होनी चाहिए। इस दुविधा का अंत तभी होगा जब ब्राहम्णवादी भारत का स्थान दलितवादी भारत लेगा। कांचा आयलैया और वीटी राजशेखर जैसे जाने-माने दलित-बहुजन बुद्धिजीवी ओबीसी के दलितीकरण पर जोर देते रहे हैं। यह आवश्यक है कि दलितों की तरह, ओबीसी भी आम्बेडकर, फुले और शाहू को अपने सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्तिदाता मानें। दलितों और आदिवासियों की तरह, ओबीसी को भी बुद्ध और ईसा मसीह को अपना आध्यात्मिक उद्धारक मानना होगा। यही सांस्कृतिक दृष्टि से दलितीकरण है। दलितों, आदिवासियों और बहुजनों की जब तक एक संस्कृति नहीं होगी तब तक उनमें सांस्कृतिक एकता स्थापित नहीं हो सकती। फुले और
आम्बेडकर द्वारा यूरोपीय आधुनिकता के प्रभाव में गढ़ी गई इस सांस्कृतिक विचारधारा के बिना, आरक्षण का आंदोलन केवल सत्ता के भूखे राजनीतिक दलालों, नौकरियों के पीछे दौडऩे वालों और एकता भंग करने वालों को जन्म दे सकता है।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)
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