भारत भूमि से बाहर न्याय के लिये लड़ाई लड़ऩे वालों में नेल्सन मंडेला का नाम बड़ी ही श्रद्धा और गर्व से लिया जाता है। रंगभेद के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली इस महान शख्सियत को सम्पूर्ण विश्व नमन करता है। दक्षिण अफ्रीका की सरकार की रंगभेदी नीति के खिलाफ बोलने पर मंडेला को सत्ताइस वर्षों तक जेल यातना से दण्डित किया गया। नेल्सन मंडेला की इस लम्बी जेल यात्रा और उनके साथ हुए अमानवीय व्यवहार से सम्पूर्ण मानवता शर्मसार हो गयी लेकिन इनके संघर्ष ने रंगभेद का खात्मा किया और इन्हें दक्षिण अफ्रीका का सर्वोच्च पद देकर आदर भी दिया। मुझे भी गर्व है कि मैंने इस महापुरुष के साथ लगभग पौन घंटे का समय व्यतीत किया। उनका यह सान्न्ध्यि मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय घटना है। तत्कालीन सहायक निदेशक, पर्यटन, भारत सरकार ने पर्यटन कार्यालय वाराणसी ने मुझे महामहिम के नौका विहार के दरम्यान संदर्शन का दायित्व सौंपा था।
अक्टूबर 1990 की बात है। भारत आगमन पर उनका भव्य स्वागत किया गया था। कलकत्ता जाने से पूर्व वे वाराणसी पधारे थे। भैंसासुर घाट (राज घाट) पर प्रशासन ने एक बड़ी मोटरबोट उनके नौका विहार के लिये लगायी थी। मुझे मोटर बोट पर आधे घंटे पहले पहुँचने का मौका मिला। मेरे हर्ष की सीमा नहीं थी। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इस महान व्यक्तित्व के साथ मुझे संभाषण का मौका मिलेगा। महामहिम की अगवानी तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने की। साथ में महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी भी उपस्थित थे। जैसे ही सभी गणमान्य अतिथि मोटर बोट पर पहुँचे, राजमोहन गांधी ने बातचीत की शुरूआत करते हुए कहा मुलायम सिंह यादव पन्द्रह करोड़ जनता के मुखिया हैं”। बहैसियत संदर्शक मैंने नेल्सन मंडेला को अपना परिचय दिया और घाटों की चर्चा शुरू कर दी। पंचगंगा घाट पर बांसों पर लटकटते आकाशदीपों पर उनकी दृष्टि गयी। जैसे ही मैंने इन दीपों की चर्चा आगे बढ़ायी मंडेला साहब अपने स्थान पर खड़े हो गये और हमारी बातों में गहरी रूचि लेने लगे। सौम्य, शालीन इस आकर्षक व्यक्तित्व ने मेरे मन-प्राणों को गहरायी से छू दिया। ऐसे जादुई व्यक्तित्व के लोग दुनिया में कम मिलते हैं। करूणा व प्रेम से लबालब हृदय, मानवमात्र के प्रति इतनी गहरी चाह सब कुछ अद्वितीय, अविस्मरणीय और अतुल्य।
मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि कोई व्यक्ति रंगभेद से मुक्ति के इस महान पथ पर चलते हुये कैसे सत्ताइस वर्षों तक जेल की पीड़ा और मानसिक दंश को सह सकता है। कैसे कोई सत्ताइस वर्षों तक किसी एक संघर्ष को जारी रखते हुये हार नहीं मानता। किसी एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये एक तपस्वी सत्ताइस वर्षों की तपस्या पूरी करता है, यह सब अविश्वसनीय पर सच है। हमें प्रेरणा लेनी चाहिये ऐसे महापुरुष से। शोषितों, वंचितों व पिछड़ों को लामबंद होकर समता, समानता के लिये जारी महायुद्ध की धार को और पैनी करनी होगी। हमारी लड़ाई कठिन है, परन्तु विजयश्री दूर नहीं। अगर पूरी ताकत के साथ वर्तमान पीढ़ी लगे तो हम विषमता मूलक समाज की दीवार को धराशायी कर सकेंगे और अपने जीते जी मानवता के माथे पर लगे विभेद के इस कलंक को धो डालेंगे।
शब्दों के आंदोलन की धार को
हमें और तेज करना होगा
क्योंकि हमारे जख्मों को फिर से कुरेदा जा सकता है,
हमारे पास केवल शब्द हैं
संघर्ष को जारी रखने के लिये,
यही हमारी ऊर्जा है,
हम सामन्त तो नहीं हैं
ना ही कोई माफि या
फिर हमारे पास
हथियारबंद गिरोह कहा से होंगे,
हमारे पास केवल शब्द हैं
उन्हीं को हमें आन्दोलन बनाना है
क्रांति हथियारों से नहीं, शब्दों से आती है।
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)
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