मैंने अपने पत्रकारिता जीवन के शुरुआती दिनों में पहली बार एक प्रयोग के तौर पर देश के लगभग सभी व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं व बौद्धिक समूहों के बीच लोकप्रिय पत्रिकाओं में बारी-बारी से एक लेख भेजा। लेख का विषय था दलितों को आत्मसुरक्षा के लिए हथियार मिलना चाहिए। बिहार में बतौर मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने दलितों को हथियारों के लाइसेंस और मुफ्त में हथियार के साथ हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने का एक कार्यक्रम बनाया था। लेकिन डा. जगन्नाथ मिश्र ने दोबारा सत्ता हासिल करने के बाद उसे वापस ले लिया। जबकि उनके नेतृत्व वाली पहली सरकार ने ऑल इंडिया रेडियो से ऐलान करके अधिकारियों को निर्देश दिया था कि वे किसानों के घरों पर जाकर हथियारों के लाइसेंस बांटे।
भारतीय समाज में सवर्ण वर्चस्व के लिए जातियों को संबोधित करने का एक ऐसा शब्दकोश है जिसका प्रत्येक शब्द ऊपर से तो दूसरा अर्थ देता है लेकिन असल में वह जाति को संबोधित होता है। किसान भी ऐसा ही एक शब्द रहा है। डा. जगन्नाथ मिश्र के बाद बिंदेश्वरी दूबे के मुख्यमंत्रित्वकाल तक सामंती किसानों के लिए हथियारों के प्रशिक्षण कार्यक्रम सरकार की सहमति से चलाए गए। मैं इन तमाम बातों को अपने आलेख में समेटते हुए यह कहने की कोशिश कर रहा था कि देश में सबसे ज्यादा असुरक्षित जीवन जीने वाला समाज दलित, आदिवासी और पिछड़ा है। उसे अपनी सुरक्षा करने का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए ? समाचारपत्रों को यह लगा कि मैं हिंसा की बात कर रहा हूं। लेकिन मेरा यह कहना था कि इन वर्गों के लोगों को सरकार द्वारा हथियार देने के पक्ष में तर्कों को रखना हिंसा का समर्थन कैसे हो सकता है। आखिर यह मांग क्यों नहीं उठी कि देश में किसी भी नागरिक को अपने लिए हथियार रखने का अधिकार नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी के समाचारपत्रों को कई मायनों में प्रगतिशील और आधुनिक मान लिया जाता है। लेकिन मेरा अनुभव है कि अंग्रेजी के समाचारपत्र बुनियादी तौर पर यथास्थितिवादी होते हैं। अंग्रेजी की पत्रिकाओं में इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली और सेमिनार जैसी पत्रिकाओं के संपादकों ने इसे प्रकाशित करने का आश्वासन दिया था। लेकिन वह छपा नहीं।
दरअसल दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों के बारे में क्या छपता रहा है और क्या छपने से रोका जाता रहा है, यह अध्ययन की मांग करता है। किसी विषय के भीतर कई सतहें होती हैं। दलितों के खिलाफ अत्याचार, दलितों की खबर नहीं है, क्योंकि दलितों पर तो अत्याचार सदियों से होते रहे हैं। ऐसे समाचार हमलावरों के होते हैं। किस तरह के मुखौटों वाले चौथे स्तंभ में काम करते रहे हैं, यह अध्ययन समाज को चेतना संपन्न करने में मददगार हो सकता है। बहरहाल, तीस वर्षों की पत्रकारिता में एक लंबी सूची बनती चली गई, जिसमें भारतीय समाज में दबे-कुचले समूहों व लोगों की सामग्री के न छपने और उन वर्गों का नाम लेकर छपने वाली सामग्री के कारण स्पष्ट होते चले गए हैं। मैं तत्काल के तीन उदाहरणों की यहां चर्चा करना चाहता हूं, ताकि उस पहले उदाहरण में हिंसा की आड़ को भी समझा जा सके। इन तीन उदाहरणों की पृष्ठभूमि उस समय से शुरू होती है जब मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से योगेन्द्र यादव के साथ हम लोगों ने देश की राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं व टेलीविजन चैनलों के संपादकीय विभाग में ऊपर के दस पदों पर काम करने वाले पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया। उससे जुड़ी खबर के प्रकाशन के लिए हमें काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। योगेन्द्र यादव का अपना एक प्रभाव था, जिसकी वजह से एक चैनल और एक समाचारपत्र ने खबर चलाने व छापने का भरोसा दिया था। समाचार एजेंसियों में मैंने यह महसूस किया कि वहां सबसे ज्यादा मुश्किलें हैं। वह बुनावट में ही ऐसी हैं कि वर्चस्व का वहां विशेष दर्जा होता है। दो दिनों के बाद एक समाचार एजेंसी ने खबर चलाई। वह एजेंसी अब मरने के कगार पर है। दूसरी, जो इस समय अपने वर्चस्व का विस्तार कर चुकी है, उसने वह खबर नहीं चलाई।
हाल में एक अनुभव दिल्ली सरकार के मंत्रियों के कार्यालयों में डा. बीआर आम्बेडकर की तस्वीरों के अध्ययन पर आधारित खबर का था। यह अध्ययन मेरे छोटे भाई ने द स्टेट्समैन में काम करते हुए सूचना के अधिकार कानून के जरिए किया था। लेकिन वह खबर कहीं नहीं आई। दूसरा अनुभव बाबू जगजीवन राम पर लोकसभा टीवी द्वारा बनाए गए कार्यक्रमों को लेकर था। सूचना का अधिकार कानून के जरिए किसी ने यह जानकारी हासिल की थी कि लोकसभा टीवी ने बाबू जगजीवन राम पर छह छोटी फिल्में बनवाई हैं। यह समाचार कई जगह पढऩे को मिला। मैंने इसी समाचार के पूर्वाग्रह पर एक टिप्पणी लिखी। लेकिन ये नहीं छपी। जो खबर छपी थी उसमें निशाने पर जगजीवन राम पर बनी फिल्में थीं जबकि दिखाई यह दे रहा था कि उनकी बेटी मीरा कुमार लोकसभा की अध्यक्ष हैैं और यही लोकसभा टीवी का बाबू जगजीवन राम के प्रति एक खास आग्रह का कारण है। लेकिन अंतर्वस्तु में यह जगजीवन राम पर छह फिल्मों के बनने के खिलाफ थी। अपने इस विश्लेषण के पक्ष में एक और उदाहरण को यहां प्रस्तुत करना जरूरी है। इसी लोकसभा टीवी में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के लिए आरक्षण नहीं है, लेकिन मैंने सूचना के अधिकार कानून के जरिए मिली सूचनाओं के आधार पर जब यह खबर दी तो वह आमतौर पर जगह नहीं पा सकी। बाद में एक अंग्रेजी अखबार में दोस्ती के कारण वह खबर पहली बार छपी। तीसरा उदाहरण है हाल ही में मीडिया स्टडीज ग्रुप द्वारा आकाशवाणी के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वाले विशेषज्ञों की पृष्ठभूमि को लेकर किए गए एक सर्वे का। प्रसार भारती के उददेश्यों के तहत आकाशवाणी कितना काम कर रही है इसका एक लेखा-जोखा इससे मिलता है। इसमें दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, श्रमिकों, ग्रामीणों व महिलाओं के कार्यक्रमों की संख्या और उससे उनकी विषय-वस्तु की जानकारी मिलती है जो बेहद अफसोसजनक है। कार्यक्रमों में कुछ खास तरह के लोगों का वर्चस्व बना हुआ है। लेकिन उस पर आधारित समाचार नहीं छपे। वह अध्ययन कोई दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों के प्रतिनिधित्व की मांग को बल देने के लिए नहीं था। वह प्रसार भारती के घोषित उद्देश्यों व व्यवहार में भारी अंतर को सामने ला रहा था। लेकिन जातिवादी चश्मे को वहां दलित, पिछड़े और आदिवासी ही दिख रहे थे। दरअसल दिक्कत यह है कि जो इस तरह के अध्ययन करते हैं वे ही जातिवादी दिखाए जाने लगते हैं और जो जातीय वर्चस्व बनाए हुए हैं वे जातिवादी के अलावा सब यानी समरसतावादी, राष्ट्रवादी, लोकतंत्रवादी, अहिंसावादी, समाजवादी, प्रगतिशील, सभ्य, सुशील, मृदुभाषी आदि विशेषणों के साथ जाने जाते हैं।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)
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