h n

जब आयलैया ने आइजेया की आध्यात्मिक छांव में शरण ली

चूंकि आर्यों के आध्यात्मिक ग्रंथ युद्धक्षेत्र की उपज हैं इसलिए उन्होंने सकारात्मक व समानता पर आधारित आध्यात्मिक दर्शन को जन्म नहीं दिया

आइजेया से आयलैया तक भाग – v

आर्यों के आक्रमण के बाद भारत में हालात तेजी से बदलने लगे। आर्य योद्धाओं ने कई द्रविड़ कृषि-केन्द्रित विचारकों और दार्शनिकों को मौत के घाट उतार दिया। द्रविड़ पौराणिक कथाओं से उदाहरण लें, तो द्रविड़ अश्वेत जामभावंत और अश्वेत रानी तातक उस सांस्कृतिक चरित्र के प्रतिनिधि थे। उस परंपरा मेें भारतीय उपमहाद्वीप को जम्बूद्वीप कहा जाता था, परंतु उत्पादक दार्शनिकों के स्थान पर योद्धाओं को नायक का दर्जा मिलने के बाद, उन कृषि-केन्द्रित नामों में व्यापक परिवर्तन आ गए जो भारत और इजराइल में समान ध्वन्यात्मक मूल से उपजे थे। इजराइल में चरवाहों, लकड़ी का काम करने वालों, मछुआरों या दूसरे शब्दों में गैर-यहुदियों व परोपकारियों की संस्कृति, वहां की जीवंत आध्यात्मिक संस्कृति बनी रही। उनका उत्पादक आध्यात्मिक दर्शन भी जीवित रहा। इसके साथ-साथ, एक बुतपरस्त, आर्य ब्राहमण जैसा पुरोहित जाति/वर्ग भी वहां उभरने लगा। इजराइली फरीसियों की मानवता-विरोधी आध्यात्मिकता और मंदिरों में छुआछूत की परंपरा, प्राचीन ब्राहम्णवाद से कई मामलों में मिलती थी।

इजराइल के फरीसियों और भारतीय ब्राहम्णों में कई समानताएं थीं। दोनों घोर अंधविश्वासी थे और मूर्तिपूजक भी। दोनों गैर-बराबरी पर आधारित समाज के निर्माण में विश्वास रखते थे। दोनों यह मानते थे कि असमानता, समाज के मूल चरित्र का हिस्सा है। ईसा मसीह, जो कि एक आध्यात्मिक पैगम्बर थे और जिनका जन्म जोसफ और मैरी के बढ़ई परिवार में हुआ था, ने इजराइली समाज की दिशा बदल दी। ईसा मसीह, गैर-यहुदियों व परोपकारियों की श्रद्धा के पात्र बन गए, क्योंकि उन्होंने उन्हें गुलामी, छुआछूूत और घोर शोषण से मुक्ति दिलाई। भारतीय ब्राहम्णवाद ने इस तरह के दार्शनिकों, पैगम्बरों और मुक्तिदाताओं को भारत में अस्तित्व में ही नहीं आने दिया। हमें यह याद रखना चाहिए कि अब्राहम, मोजिज, जकर्याह, यिर्मयाह व आईजेया जैसे पैगम्बरों के बगैर, ईसा मसीह का उदभव असंभव होता।

इजराइल की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था ने ऐसे पैगम्बरों को जन्म दिया, जिन्होंने सकारात्मक आध्यात्मिक दर्शन का निर्माण किया। भारत में भी इस तरह के दार्शनिक उभर सकते थे परंतु आर्यों की युद्ध और हिंसा-प्रेमी संस्कृति ने दर्शन और उत्पादन के बीच के रिश्ते को बदल दिया। इजराइल में सकारात्मक सोच वाले दार्शनिक, पैगम्बर इसलिए उभर सके, क्योंकि वहां की संस्कृति अहिंसक और आध्यात्मिक थी। उन्हें भी गुलाम बनाया गया, पहले मिस्र के निवासियों द्वारा और बाद में रोमनों द्वारा। इस प्रक्रिया को भारत में रोक दिया गया। उदाहरणार्थ, वहां के उजियाह जैसे नामों का लगभग वही अर्थ था जो दक्षिण भारत में पेरियाह जैसे नामों का था। परंतु बाद में पेरियाह व मलैयाह जैसे नामों को अछूत व शूद्र जैसे अर्थ दे दिए गए। इजराइल में आयलैया और जकर्याह जैसे पैगम्बर इसलिए उभर सके, क्योंकि वहां ईश्वर की परिकल्पना भी कृषक संस्कृति पर आधारित थी, युद्ध की संस्कृति पर नहीं। भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व के कृषि-केन्द्रित ईश्वर का स्थान ब्रम्हा, विष्णु, राम व कृष्ण जैसे योद्धा ईश्वरों ने ले लिया। उदाहरणार्थ, तेलंगाना की देवी मलैयाह योद्धा नहीं बल्कि मोजिज की तरह चरवाहा थी। दोनों के सांस्कृतिक संदर्भ एक से थे। भारत के चमड़े की अर्थव्यवस्था से सबसे प्रसिद्ध नाम पेरियाह उभरा। यह एक कृषि-केन्द्रित उत्पादक नाम था, परंतु बाद में इन नामों के दार्शनिक सारतत्व को आर्यों की युद्धनायक संस्कृति ने नष्ट कर दिया।

लिखने की मुद्रा में पैगंबर यशायाह की प्रतिमा

जैसा कि मैंने पहले कहा है, इयाह का यहां अर्थ था जानवरों और जमीन की देखभाल करना। कृषि उत्पादन और एक से नामों के बीच के रिश्ते से यह जाहिर होता है कि दोनों देशों के सांस्कृतिक चरित्र में समानताएं थीं। रूथ लिखते हैं, ”…और हेजकियाह (दो क्रानिकल 32: 38) कृषि उत्पादन में विशेष रुचि लेते थे और इस अर्थ में वे उजियाह के समान थे जिन्हें मिट्टी से प्रेम करने वाले के रूप में वर्णित किया गया है। (क्रानिकल 36: 10)। परंतु यह समृद्धि सबके हिस्से में नहीं थी। नाबोथ की अंगूर वाटिका पर कब्जा करने का अहाब का प्रयास (एक किंग्स 21) एक उदाहरण है कि गरीबों का किस प्रकार शोषण होता था। पैगम्बर आइजेया ने उन लोगों की निंदा की है जो कि खेत में खेत जोडऩा चाहते हैं (आइजेया 5:8)। यह स्पष्ट है कि आइजेया का पैगम्बर के बतौर यह मत था कि मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण, ईश्वर की इच्छा के खिलाफ है। एक कृषि-केन्द्रित पैगम्बर की हैसियत से उन्होंने यह संदेश दिया कि ईश्वर खेत में खेत जोडऩे के अर्थात किसी दूसरे व्यक्ति की जमीन पर गैर-कानूनी कब्जा करने के विरुद्ध है। भारत में आर्य संस्कृति के कारण कोई पेरियाह या मलैयाह या मुथ्थैयाह या यैलियाह, आइजेया की तरह नैतिक पैगम्बर नहीं बन पाया। यह माना जाता है कि आइजेया का अर्थ है ईश्वर रक्षा करता है। भारत में ईश्वर की द्रविड़ परिकल्पना का स्थान आर्यों के योद्धा ईश्वरों ने ले लिया और नामों के अर्थ पलट दिए गए। आर्य, जो कि विदेशी थे, ने अपने सांस्कृतिक मूल्यों को मूलत: भारतीय बताकर देश पर लाद दिया। उन्होंने भारत और इजराइल की साझा सांस्कृतिक जड़ों को जान-बूझकर काट दिया।

आर्यों ने भारत-इजराइल संबंधों को कैसे समाप्त किया

कृषि और अन्य उत्पादक पृष्ठभूमि वाले द्रविड़ लोगों से पढ़ऩे और लिखने का अधिकार छीन लिया गया और इन लोगों, जिनके नाम, खान-पान की संस्कृति व उत्पादक संस्कृति इजराइलियों जैसी थी, को शूद्र और चांडाल कहा जाने लगा। युद्ध नायकों को देवता का दर्जा देने की इस आक्रामक नीति ने हमारी अपनी संस्कृति में हमारे विश्वास को नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया से खाद्य उत्पादकों को राक्षस और खाद्यान्नों का उपभोग करने वालों को ईश्वर का दर्जा मिल गया।

आर्यों के आक्रमण के बाद, कृषक समुदायों, चरवाहों, मछुआरों और लकड़ी का काम करने वालों, जिनके नाम ऐसे ही या इनसे कुछ अलग भी थे, उनके पढऩे-लिखने पर हिंसक तरीके से प्रतिबंध लगा दिए गए। उन्होंने यह घोषणा कर दी कि केवल आर्यों (मुख्यत: ब्राहम्णों) को पढऩे और लिखने का अधिकार है। आर्यों ने यह घोषणा भी की कि ईश्वर को एक नायक होना चाहिए। ईश्वर और अन्य लोगों के बीच मध्यस्थता का काम साधु या पंडित का होना चाहिए, जिसे आध्यात्म के क्षेत्र में मानव और मानव के बीच समानता से कोई मतलब नहीं होना चाहिए। आर्य, मनुष्यों के पैगम्बर बनने के विरुद्ध थे। यही कारण है कि भारत में कोई पैगम्बर नहीं हुए। यहां केवल ब्राहम्ण साधु हुए और उन्हें खाद्यान्न उत्पादकों, चरवाहों, लकड़ी का काम करने वालों और कारीगरों आदि से तनिक भी प्रेम नहीं था।

यद्यपि गौतम बुद्ध ने अपने जीवनकाल में कुछ हद तक पैगम्बर की भूमिका निभाई परंतु जैसे ही आर्य ब्राहम्णों का सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर शिकंजा कसा, उन्होंने लोगों पर बुद्ध के प्रभाव को पूरी तरह खत्म कर दिया। बुद्ध में श्रद्धा की पुनस्र्थापना डा. बीआर आम्बेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के बाद हुई। आर्यों ने कभी बुद्ध-जो कि गैर आर्य आदिवासी थे-को सकारात्मक पैगम्बर के रूप में स्वीकार नहीं किया।
मैं इसलिए अपने अशिक्षित माता-पिता का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे ऐसा नाम दिया, जिसकी पृष्ठभूमि वही थी जो इजराइल के महान पैगम्बर आइजेया की थी। दोनों नामों में वर्तनी, अक्षरों व उच्चारण की समानता ने मुझे मेरी पृष्ठभूमि, मेरे इतिहास व मेरी विरासत के प्रति गर्व से भर दिया।

इजराइल और दक्षिण भारत में सांस्कृतिक समानता क्यों है? क्या कारण है कि वे नाम जो इजराइल में देवों और पैगम्बरों के हैं, वे यहां पर उन लोगों के नाम हैं जिनका हमेशा निंदा और अपमान हुआ, जिनके साथ दुव्र्यवहार हुआ और जिन्हें अछूत व राक्षसी प्रवृत्ति का निरुपित कर दिया गया।

सामान्यत:, जिन लोगों के भी नाम प्राचीनकाल के होते हैं, उन नामों की जड़ें ऐतिहासिक दैवीय नामों में होती हैं। मेरे जैसे नाम (और इस तरह के नाम वाले हजारों लोग दक्षिण भारत-आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में हैं) की जड़ें इतिहास में होती हैं। वे हमें हमारे माता-पिता, दादा-नाना और उनके पूर्वजों से मिलते हैं। शायद इन नामों का इतिहास सैकड़ों या हजारों साल पुराना है। जैसे आइजेया, जकर्याह व यिर्मयाह इजराइली पुश्तैनी नाम हैं उसी तरह हमारे क्षेत्र में भी पेरियाह, मलैयाह, मुथ्थैयाह व यैलियाह जैसे नामों की जड़ें भी प्राचीन दैवीय नामों में होंगी। दोनों एशियाई देशों में इस तरह के प्राचीन नामों का उदभव, पालतू पशुओं व कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से हुआ होगा। भेड़, बकरी व अन्य पशुओं पर आधारित अर्थव्यवस्था जो इजराइल में थी, भारत में भी रही होगी।

मलैयाह की तरह मोजिज भी चरवाहे थे। अगर मोजिज पैगम्बर बन सके और उनका लिखित इतिहास में सम्मान के साथ जिक्र है तो मलैयाह (ईश्वरीय नाम हैं, का दर्जा घट गया। उन्होंने आर्य ईश्वरों के मंदिर दक्षिण भारत में बनाने शुरू कर दिए। उदाहरणार्थ, आध्रंप्रदेश में बड़े-बड़े राम मंदिर बनाए गए परंतु कोमरल्ली मलैयाह व इलोनी मलैयाह के मंदिरों की महत्ता घट गई। कृषि-केन्द्रित देवी-देवता मामूली सांस्कृतिक देव बनकर रह गए, जबकि युद्धोन्मादी आक्रामक आर्य देवताओं को संस्कृति में सम्मानजनक स्थान मिल गया। यह स्पष्ट है कि युद्ध के मैदान से कृषि-केन्द्रित दर्शन नहीं उभर सकता। युद्ध के मैदान से तो केवल विध्वंसक और कुटिल विचार उपजते हैं। दूसरी ओर, कृषि उत्पादन से मानवीय रिश्तों में लगातार बदलाव आता रहता है। चूंकि उत्पादकों को सबकी भलाई के लिए प्रकृति से संघर्ष करना पड़ता है इसलिए ऐसे समुदायों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम उपजना स्वाभाविक है। दूसरी ओर, युद्ध जैसे हालातों में दूसरों को संदेह और घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। चूंकि आर्यों के आध्यात्मिक ग्रंथ युद्धक्षेत्र की उपज हैं इसलिए उन्होंने सकारात्मक, व समानता पर आधारित आध्यात्मिक दर्शन को जन्म नहीं दिया। वे उत्पादन और सभी मनुष्यों के बीच प्रेम के रिश्ते को नीची निगाहों से देखते हैं। वे सकारात्मक सोच वाले ईश्वर का निर्माण नहीं कर सके। आर्य विचारकों ने जिन ईश्वरों की कल्पना की उनकी मूल प्रवृत्ति विध्वंसात्मक थी। यही कारण है कि वे वैश्विक स्तर पर नहीं उभर सके।

जब आयलैया, आइजेया के आध्यात्मिक दर्शन की छांह तले जाता है तब इस प्राचीन देश का स्व अपनी प्राचीन जड़ों से एक बार फिर जुड़ता है। इन दोनों महान प्राचीन देशों और उनके लोगों के बीच के सांस्कृतिक संबंध पुनस्र्थापित होते हैं।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

संबंधित आलेख

क्या है ओबीसी साहित्य?
राजेंद्र प्रसाद सिंह बता रहे हैं कि हिंदी के अधिकांश रचनाकारों ने किसान-जीवन का वर्णन खानापूर्ति के रूप में किया है। हिंदी साहित्य में...
बहुजनों के लिए अवसर और वंचना के स्तर
संचार का सामाजिक ढांचा एक बड़े सांस्कृतिक प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यह केवल बड़बोलेपन से विकसित नहीं हो सकता है। यह बेहद सूक्ष्मता...
पिछड़ा वर्ग आंदोलन और आरएल चंदापुरी
बिहार में पिछड़ों के आरक्षण के लिए वे 1952 से ही प्रयत्नशील थे। 1977 में उनके उग्र आंदोलन के कारण ही बिहार के तत्कालीन...
कुलीन धर्मनिरपेक्षता से सावधान
ज्ञानसत्ता हासिल किए बिना यदि राजसत्ता आती है तो उसके खतरनाक नतीजे आते हैं। एक दूसरा स्वांग धर्मनिरपेक्षता का है, जिससे दलित-पिछड़ों को सुरक्षित...
दलित और बहुजन साहित्य की मुक्ति चेतना
आधुनिक काल की मुक्ति चेतना नवजागरण से शुरू होती है। इनमें राजाराम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार, आम्बेडकर आदि नाम गिनाए जा सकते...