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भ्रष्टाचार की जड़ें हमारी संस्कृति में, कौन करेगा बहुजन ईमानदार नेताओं की समीक्षा?

हमारा इतिहास और उससे भी अधिक हमारी पौराणिकता भ्रष्टाचरणों से लबालब है

नंदी प्रसंग पर

समाजशास्त्री आशीष नंदी द्वारा जयपुर साहित्य महोत्सव में दिए गए एक बयान पर पिछले दिनों काफी हंगामा हुआ। एक परिचर्चा में पत्रकार तरुण तेजपाल को जवाब देते हुए उन्होंने प्रसंगवश कह दिया कि सबसे अधिक भ्रष्ट पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों व जनजातियों से आते हैं। आशीष नंदी ने सफाई देते हुए कहा है कि उनका इरादा इन वर्गों को अपमानित करना नहीं था और यह कि वे कहना कुछ और ही चाहते थे।

मैं आशीष नंदी का पक्ष नहीं लेने जा रहा हूं। लेकिन जब वे यह कह रहे हैं कि उनका इरादा ऐसा नहीं था, तब मैं उन पर विश्वास करना चाहूंगा। नंदी एक प्रतिष्ठित समाजशास्त्री हैं और जब वे कुछ कहते हैं तब उसका कुछ मतलब होता है। मैं उन लोगों में शामिल होना नहीं चाहूंगा जो नंदी को दंडित करने की मांग कर रहे हैं। मैं उस स्थिति में भी उन्हें दंडित करने की मांग नहीं करता, अगर नंदी अपने बयान पर पूरी तरह से कायम रहते या कहते कि उनके बयान को जिस रूप में समझा गया है वह गलत नहीं है। वाल्तेयर कहते थे, मैं आपके विचार से सहमत नहीं हूं फिर भी मैं आपके अपनी बात कहने के अधिकार की रक्षा के लिए प्राण रहते तक संघर्ष करूंगा। नंदी को अपनी बात कहने का नैसर्गिक और संवैधानिक अधिकार है। इस पर कोहराम बेमानी है।

आशीष नंदी

हां, मैं नंदी के बयान को विमर्श के एक अवसर के रूप में लूंगा। जिन लोगों ने उनके विरुद्ध मुकदमा किया या उन्हें दंडित करने की मांग की, उन्हें इस विषय पर तथ्य और तर्क रखने चाहिए थे। यह बहुत कम हुआ। यह अफसोसजनक है। भारतीय समाज में भ्रष्टाचरण कोई नया मुददा नहीं है। हमारा इतिहास और उससे भी अधिक हमारी पौराणिकता ऐसे भ्रष्टाचरणों से लबालब है। हाल के वर्षों में खासकर राजनीति में भ्रष्टाचार को केवल आर्थिक दृष्टि से देखने की एक परिपाटी बन गई है। यदि आर्थिक भ्रष्टाचार ही केवल भ्रष्टाचार है तो क्लिंटन-लेविंस्की मामला क्या था, या फिर फोन टेप कांड क्या था। हो सकता है कि जो आर्थिक रूप से विपन्न हैं, उनमें येन-केन प्रकारेण अर्थसत्ता हासिल करने का भाव हो, क्योंकि भूखा व्यक्ति रोटी की चोरी करेगा और विद्यार्थी किताब की। आर्थिक अपराधों की जब चर्चा होती है तब तुरंत बंगारू लक्ष्मण से लेकर लालू, मुलायम, मायावती और मधु कोड़ा का नाम लोग लेते हैं। लेकिन क्या भारत में भ्रष्टाचार केवल उसी मात्रा में है, जिस मात्रा में उपरोक्त दलित-पिछड़े नेताओं पर लगे आर्थिक आरोप। अभी केवल आरोप हैं, अपराध तय तो केवल बंगारू लक्ष्मण मामले में हुआ है। मैं नामों की फेहरिश्त मे नहीं जाना चाहता, लेकिन शहरों की अट्टालिकाएं और विदेशों में जो अकूत संपत्ति है, जैसे स्विस बैंक के कथित खातों में, उनमें बहुजन वर्गों से आए लोगों का कितना धन है। कार्यपालिका और न्यायपालिका में अभी भी दलित-पिछड़े तबके के लोग हाशिये पर हैं। विधायिका में तो कुछ हद तक उनकी उपस्थिति बढी है लेकिन कैबिनेट, चाहे वह केंद्रीय हो या प्रांतीय, उनमें वे अभी भी अपनी संख्या के मुताबिक नहीं हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि बहुजनों का बहुलांश भ्रष्ट है तब भी भारत पवित्र भ्रष्टाचारमुक्त भूमि बनी रहती, क्योंकि शीर्ष स्तर पर इन वर्गों की भागीदारी बहुत कम है। केंद्र सरकार की सेवाओं में पिछड़े वर्गों की भागीदारी 7 प्रतिशत के लगभग बतायी जाती है। न्यायपालिका में तो वे नगण्य हैं। लेकिन इन महकमों मे भ्रष्टाचार कितना है, फिर कौन कर रहा है यह भ्रष्टाचार।


नंदी समाजशास्त्री हैं। एक समाजशास्त्री समाज-मनोविज्ञान से भी वाकिफ होता है। हमारा समाज-मनोविज्ञान क्या है, किसे हमने अपना आदर्श बनाया है। हमारे आदर्श हैं राजा राम और द्वारकाधीश कृष्ण। महात्मा गांधी तक ने अपनी प्रार्थना में रघुपति राघव राजा राम को शामिल किया। जब राजा राम और राजा कृष्ण ही हमारे आराध्य होंगे, तब उनके अनुरूप दलित-पिछड़े नेता क्यों नहीं होना चाहेंगे। बहुजन तबके के संत-महात्माओं ने राजा राम और द्वारिकाधीश कृष्ण के प्रतीकों को खारिज किया था। कबीर और रसखान जिस राम और कृष्ण पर फिदा थे, वे दशरथ और वसुदेव से नहीं जन्मे थे, वे दूसरे ही राम-कृष्ण थे। चुल्लू भर छाछ पर नाचने वाला कृष्ण थे। लेकिन एक बार जब आपने अपना आराध्य और प्रतीक राजा-महाराजाओं को बना लिया तब सामान्य जनता भी उनकी ओर बढना चाहेगी। भैंस चराने वाले लालू जब द्वारिकाधीश की भूमिका में आना चाहेंगे तो भ्रष्टाचरण तो होगा ही। राजा राम और द्वारिकाधीश कृष्ण के प्रतीक कबीर और रसखान ने नहीं खड़े किए हैं। इन्हें ऊंची जातियों के लोगों ने खडा़ किया है। इसीलिए जब तक बडा़ बनने का मतलब नहीं बदल जाता, तब तक हम कोई आमूल-चूल सामाजिक परिवर्तन नहीं कर पाएंगे। बड़ा होने का मतलब आज भी बंगला, गाड़ी, बैंक बैलेन्स और फौज-फाटा है। इस बड़प्पन की ओर हर कोई बढना चाहता है। बहुजन नेता जानता है कि आज तो वह मुख्यमंत्री है, कल हटा तो अपनी झोपड़ी में होगा। ऊंची जातियों के मुख्यमंत्री भी भूतपूर्व होते हैं पर वे अपने बाप-दादाओं के बंगलों में जाते हैं। उनके पास जमींदारियां होती हैं। जब भूमि सुधार की बात होती है, भूमि समान वितरण की बात होती है, तब भूमिधर नैसर्गिक अधिकारों की बात करते हैं। स्थापित बड़े लोग जिसका बहुलांश ऊंची जातियो से है, भूमि सुधार व अन्य आर्थिक सुधार नहीं चाहते। पिछड़ी-दलित जातियों के नेताओं के पास संपत्ति नहीं है। अवसर है संपत्ति बनाने का। केवल ईमान की अनदेखी करनी पड़ती है। यह अनदेखी वह कभी-कभी कर जाता है। फिर भी अभी बहुजन नेताओं के बीच जो ईमानदार व्यक्तित्व हैं उनकी समीक्षा नहीं हुई है। यह होनी चाहिए।

मैं केवल एक उदाहरण रखूंगा। नेहरू और आंबेडकर का। दोनों विधुर थे और दोनों ही विद्वान राजनेता थे। नेहरू के स्त्रियों से संबंधों को लेकर जितना कुछ लिखा गया है, उसी को मान लें तो उनका व्यक्तित्व कैसा बनता है। लेकिन आम्बेडकर ने ऐसा नहीं किया। उनके जीवन में भी स्त्री आई। उससे उन्होंने विवाह किया, उन्हें पत्नी बनाया। सार्वजनिक रूप से। पेरियार रामासामी नायकर ने भी ऐसा ही किया। यह साहस नेहरू, वाजपेयी या नारायण दत्त तिवारी क्यों नहीं कर पाए। क्या नंदी जवाब देना चाहेंगे। नंदी को यदि लालू, मुलायम, मायावती, कोड़ा दिखते हैं तो कर्पूरी ठाकुर, चौधरी चरण सिंह, भोला पासवान, जगलाल चौधरी, नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार और शिवराज सिंह चौहान जैसे दर्जनों नेता क्यों नहीं दिखते। बिहार में 20 साल पहले एक घोटाला हुआ था-चारा घोटाला। इस घोटाले को आधार बनाकर ही नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी ने लालू प्रसाद को राजनीतिक चुनौती दी। आज नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी बिहार में सत्तासीन हैं। लेकिन चारा घोटाले में लालू प्रसाद और एक-दो बहुजन छुटभैय्यों के अलावा केवल ऊंची जातियों के लोग शामिल थे। पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र भी उनमें थे। आज जगन्नाथ मिश्र, जगदीश शर्मा जैसे अनेक सवर्ण नेता नीतीश के दल व सरकार में ऊंचे पदों पर हैं। लालू प्रसाद चूंकि पिछड़े तबके से हैं इसलिए आज भी खलनायक हैं। यह है भ्रष्टाचार को देखने का हमारा नजरिया। ऋषि लोग कहते थे-वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। हम कहना चाहते हैं सवर्णों का भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार नहीं है। संस्कृत की एक कहावत है-महाजनो येन गत: स: पंथा। बड़े लोग जिस रास्ते से जाते हैं वही रास्ता होता है। हमारा सामाजिक रास्ता बड़े लोगों ने, ऊंची जाति वालों ने बनाया है। वह भ्रष्टाचारण का रास्ता है। छल से एकलव्य का अंगूठा कटवा लिया जाता है। सात पेड़ों में छुपकर बालि की हत्या की जाती है। छल से सीता को घर से निकाल दिया जाता है। ऐसी सैकड़ों घटनाओं से हमारा तथाकथित मर्यादित सामाजिक जीवन आच्छादित है। इनके साये में आखिर हम किस तरह के समाज की रूपरेखा बनाएंगे।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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