सन् 1982 की शुरुआत की बात है। छतरपुर (मध्य प्रदेश) में चुपचुप-सा रहने वाला एक सरकारी मुलाजिम काफी सकुचाते हुए मुझसे मिला। ‘क्या हम कुछ लोग अगले इतवार की सुबह आपसे मिल सकते हैं?’ उसने जानना चाहा।
आठ लोग तेरह किलोमीटर साइकिल चलाकर मुझसे मिलने पहुंचे। वे सन् 1980 से मेरी गतिविधियों से परिचित थे, जब मुझे ओला पीडि़त किसानों की ओर से लड़ाई लडऩे के कारण टीकमगढ़ जेल में डाल दिया गया था। उन्होंने अपना परिचय देते हुए बताया कि वे बामसेफ (बैकवर्ड्स एण्ड माइनोरिटी कम्युनिटी एम्प्लाईज फेडरेशन) के सदस्य हैं। मैं अपनी जिंदगी में पहली बार एक ऐसे ट्रेड यूनियन के बारे में सुन रहा था, जिसका मूल लक्ष्य दुनिया को बदलना था न कि अपने सदस्यों के लिए लाभ हासिल करना। परंतु दुनिया को बदलने का सपना केवल हवा में तैर रहा था। मैंने शहर के सभी हिस्सों में डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) नामक एक अनजान संगठन द्वारा दीवारों पर लिखे गए क्रांतिकारी नारे देखे थे। आगंतुकों ने मुझे बताया कि शहर को नीला रंगने वाले लड़कों के पीछे उन्हीं की वैचारिक शक्ति थी। उनका उद्देश्य था उस सोते हुए विशालकाय समूह को जगाना जो एक दमनकारी सामाजिक व्यवस्था का शिकार था। इस व्यवस्था को मेरे समाजवादी मित्र सामंतवाद कहते थे और मेरे नए मित्र, ‘मनुवाद’।
आगंतुकों ने दिल्ली में रहने वाले अपने साहब के बारे में भी बताया। वे रक्षा मंत्रालय में अधिकारी थे और उन्होंने अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर जीवनभर विवाह न करने का निर्णय लिया और स्वयं को हिन्दू जाति व्यवस्था के पीडि़तों की सेवा में झोंक दिया। मुझे यह भी बताया गया कि साहब ने युवाओं के एक समूह के साथ कन्याकुमारी से दिल्ली तक की साइकिल यात्रा की थी, जिसका उद्देश्य था दलित (अनुसूचित जाति/जनजाति) व शोषित (पिछड़े व अल्पसंख्यक) समुदायों को शिक्षित करना। वे उन्हें एक सूत्र में पिरोकर और संगठित कर, बहुजन-देश की आबादी का सबसे बड़ा तबका बनाना चाहते थे। उन्होंने मुझे बताया कि बामसेफ, साहब का बौद्धिक व आर्थिक बैंक है। वह उनके विचारों को फलीभूत करने के लिए धन उपलब्ध करवाता है। उन्होंने कहा कि साहब ने उन्हें आम्बेडकरवाद की शिक्षा दी है और वे अब अपने-अपने समुदायों में आम्बेडकरवाद का प्रचार कर रहे हैं। उनका कहना था कि साहब एक ऐसा काडर-आधारित आंदोलन खड़ा करना चाहते हैं जिसे दलित और शोषित स्वयं वित्तपोषित करेंगे।
अधिकांश भारतीयों की तरह, मैं भी अपने अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अधिकांश सरकारी कर्मचारियों का उद्देश्य हर एक से रिश्वत ऐंठना रहता है। इसलिए मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि एक भारतीय अधिकारी ने अपना पद छोड़कर, साधारण क्लर्कों को इस बात के लिए राजी करने का बीड़ा उठाया था कि वे अपना समय, योग्यता और पैसा समाज को बदलने के लिए खर्च करें। इसमें कोई संदेह नहीं कि पददलितों में राजनीतिक जागृति लाने के इतने वृहद स्तर पर प्रयास-जिस स्तर पर कांशीराम कर रहे थे-का नतीजा प्रजातंत्र की समाप्ति भी हो सकता था, जैसा कि फ्रांस में हुआ था। लगभग यही घटनाक्रम फ्रांसीसी राज्य क्रांति के बाद, दक्षिण और मध्य अमेरिकी देशों और केरिबियन में घटा। भारत में भी ऐसा हो सकता था। यदि कांशीराम के प्रयासों का अंतिम नतीजा यह भी होता, तब भी उनके कटु से कटु आलोचकों को यह तो स्वीकार करना ही पड़ता कि दमितों को जागृत करना उनकी सफल और स्थायी विरासत है। ”तो क्या आप बौद्ध धर्म की शिक्षा देते हैं?’ मैंने अपने आगंतुकों से पूछा।
”नहीं, हम लोग गैर-धार्मिक हैं। साहब ने एक बौद्ध अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना जरूर की थी परंतु उन्हें जल्द ही यह एहसास हो गया कि बौद्ध धर्म का संबंध आंतरिक, धार्मिक शांति से है-सामाजिक स्वतंत्रता से नहीं। बौद्ध दर्शन का उद्देश्य सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन लाना नहीं है। साहब का कहना है कि धर्म नहीं बल्कि राजनीति वह चाबी है, जिससे हर ताला खुलेगा।’ राजनीति और केवल राजनीति पर निर्भरता, अंतत: कांशीराम की असफलता का कारण बनी।
आगंतुक जल्दी ही मेरे मित्र बन गए। वे मुझे अपने घरों में आमंत्रित करने लगे और उन्होंने गैर-कानूनी आम्बेडकरवादी साहित्य से मेरा परिचय करवाया। मुख्यधारा का मीडिया कभी इस साहित्य की चर्चा नहीं करता और इसलिए वह यह नहीं समझ पाता कि गांधी की तुलना में आम्बेडकर से प्रभावित लोगों की संख्या अधिक क्यों है। इस साहित्य ने उस बौद्धिक जागृति को जन्म दिया, जिसका मायावती और कांशीराम ने अत्यंत प्रभावी इस्तेमाल किया।
मेरे जीवन में कई ऐसे अनापेक्षित मोड़ आए, जिनके कारण मैं सन् 1987 तक कांशीराम से नहीं मिल सका। उस समय अनुसूचित जाति के एक डाक्टर,-जिन्हें अकारण जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया था,-को छुड़ाने के प्रयास में मैं भी जेल में पहुंच गया। बुंदेलखंड के एक छोटे से कस्बे में एक सरकारी अस्पताल के मुखिया बतौर उस डाक्टर की नियुक्ति होते ही जातिगत पूर्वाग्रहों का ज्वालामुखी फूट पड़ा। ऊंची जातियों को यह मंजूर नहीं था कि एक अछूत-चमार-डाक्टर उनकी महिलाओं की जांच करे। सामान्यत: कोई हिन्दू यह स्वीकार नहीं करता कि उसके दिल की गहराई में जातिगत पूर्वाग्रह कहीं न कहीं जिंदा है। यह हमारी सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा है कि हमारे अंदर की बुराई के लिए भी हम स्वयं को जिम्मेदार मानने के लिए तैयार नहीं होते।
मैं इस जातिगत संघर्ष में फंस गया। अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए ऊंची जाति की एक कांग्रेस सांसद ने षड्यंत्रपूर्वक डाक्टर को बलात्कार के झूठे आरोप में फंसाकर जेल में डाल दिया। भाजपा के एक मुसलमान सदस्य ने मुझसे कहा कि मुझे उस दुखियारे डाक्टर के लिए कुछ करना चाहिए, जिसे गैर-जमानती धाराओं में जेल में डाल दिया गया था। उसकी पत्नी उनके पहले बच्चे को जन्म देने वाली थी और बलात्कार के आरोप में फंस जाने से उसका करियर खत्म हो जाने की आशंका थी। डीएस-4 के मेरे मित्र भी सहमत थे कि उस डाक्टर की मदद के लिए कुछ किया जाना चाहिए। जब मैंने डाक्टर का बचाव करने के लिए एक आमसभा आयोजित करने की घोषणा की तब उस डाक्टर को एक दूसरे जेल में स्थानांतरित कर मुझे जेल की उसी कोठरी में रख दिया गया जहां वह पहले था।
कांशीराम को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने मुझे उनसे मिलने के लिए निमंत्रित किया। हम लोग बांदा और झांसी में बसपा की रैलियों में मिले। वहां कांशीराम अपनी काडर-आधारित सेना को इलाहाबाद उपचुनाव के महासंग्राम में उतारने की तैयारियां कर रहे थे। उन्होंने मीडिया के प्रियपात्र और भारत के भविष्य के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ मैदान में उतरने का निर्णय किया था। मैं उस समय मेरे लिए अनजान ‘साहब’ की अदभुत संगठन क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ।
मैं यह देखकर चकित रह गया कि उन्होंने कितनी जल्दी इलाहाबाद के आसपास के जिलों से उत्साह से लबरेज और मुद्दों को जानने-समझने वाले हजारों कार्यकर्ताओं को इस अभियान से जोडऩे की योजना तैयार कर ली।
विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार, जिन्होंने तत्कालीन मिस्टर क्लीन राजीव गांधी को बोफोर्स कांड में उलझा दिया था, के विरुद्ध चुनावी मैदान में उतरने का कांशीराम का निर्णय उनकी रणनीतिक चतुराई का संकेत था। उनकी इस ‘धृष्टता’ ने उनके राजनीतिक कद में इजाफा किया। इलाहाबाद उपचुनाव के कुछ महीनों पहले कांशीराम और मैं नई दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में लंच पर मिले। उन्होंने मुझे समझाया कि ऊंची जातियां भारत की आबादी का केवल 15 प्रतिशत हैं। परंतु वे 85 प्रतिशत लोगों पर शासन कर रही हैं और उनका शोषण भी। इसका कारण यह है कि ‘बहुजन’.. जो कि बहुमत में हैं..हजारों जातियों और उपजातियों में बंटे हुए हैं। उनका कहना था कि उनका मिशन है बहुजनों को एक पार्टी के झंडे तले लाना ताकि वे उस राजनीतिक सत्ता को हासिल कर सकें जिस पर उनका पूरा हक है।
कांशीराम इलाहाबाद में तीसरे स्थान पर रहे। परंतु उनके अनुयायियों के समर्पण को देख मीडिया चकित रह गया। दलितों के लिए वे आशा का स्रोत व मसीहा थे। मुझे यह लगने लगा कि उनके पास भारत नहीं तो कम से कम उत्तर प्रदेश को जीतने की योग्यता और क्षमता है। इसलिए, मेरे मित्रों की खातिर और उस डाक्टर जैसे लोगों की खातिर, जिसे कांग्रेस सांसद के हाथों अपमानित होना पड़ा, मैंने कांशीराम का यह अनुरोध स्वीकार कर लिया कि मैं बसपा के दिल्ली मुख्यालय में काम करूं और खजुराहो लोकसभा क्षेत्र में बसपा को संगठित करूं। इसके कुछ ही दिन बाद, 1989 में उत्तर प्रदेश में बसपा के 13 विधायक जीते परंतु बहुजनों को एक करना तो दूर की बात, कांशीराम अपने चुने हुए नेताओं को भी बांधकर नहीं रख सके। कांशीराम के प्रतिद्वंद्वियों के लिए बसपा के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को खरीदना बहुत आसान था।
अंतत: बसपा ने उत्तर प्रदेश में जीत हासिल की-पहले एक पिछड़ी जाति के नेता मुलायम सिंह यादव के साथ गठबंधन कर और बाद में ऊंची जाति की उन्हीं ब्राह्मणवादी ताकतों के साथ समझौता कर, जिन्हें कांशीराम भारतीय इतिहास और समाज का खलनायक बताते थे। ब्राह्मणों के साथ गठबंधन को राजनीतिक यथार्थवाद या व्यावहारिकता बताकर स्वीकार किया जा सकता है, परंतु यह एक दुखद सत्य है कि कांशीराम को राजनीतिक सफलता, उनके सामाजिक मिशन की कीमत पर मिली। एक दूसरे से हाथ मिलाने की बजाय, उत्तर भारत में लगभग हर पिछड़ी जाति ने अपनी एक अलग पार्टी बनानी शुरू कर दी। मेरे पिता की जाति-कुशवाहा-जो कांशीराम की समर्थक थी, ने एक नया नारा गढ़ा ‘जिसके पास दल नहीं, उसके पास बल नहीं’। कांशीराम का अनुसूचित जाति/ जनजाति/ओबीसी/अल्पसंख्यक को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में लामबंद करने का इरादा असफल हो गया। मेरा यह मानना है कि इसका आंशिक कारण यह था कि उनकी सैद्धांतिक विवेचना, जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाती थी। आबादी के 75 प्रतिशत शूद्रों (अगड़ों, अन्य पिछड़ा वर्गों और अनुसूचित जातियों) का एक होना बहुत मुश्किल था, क्योंकि अपने दैनिक जीवन में वे एक-दूसरे का दमन करते थे-शायद ब्राह्मणों से भी ज्यादा।
यह सही है कि ब्राह्मण कभी कांशीराम के शत्रु नहीं रहे। वे कहते थे कि ‘ब्राह्मणवाद’ उनका शत्रु है परंतु यह कहना कि शूद्र (ओबीसी व अनुसूचित जातियां) एक-दूसरे से घृणा व एक-दूसरे का दमन इसलिए करती हैं, क्योंकि ब्राह्मणवाद ने उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है, गलत और अत्यंत सरलीकृत तर्क है। यह तर्क कांशीराम की समस्या की जड़ को उजागर करता है। हो सकता है कि डा. भीमराव आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाकर भूल की हो परंतु धार्मिक/दार्शनिक मुद्दों को नजरंदाज करने के कांशीराम के निर्णय ने उन्हें हर व्यक्ति-चाहे वह ब्राह्मण हो या नहीं-के दिल में छुपी बुराई तक पहुंचने नहीं दिया। अगर हमारी समस्या की जड़ धार्मिक-ब्राह्मणवाद-है, तो राजनीति उसका हल कैसे हो सकती है? जहां आम्बेडकर का मिशन था जातिवाद का विनाश, वहीं कांशीराम ने जातिवाद का इस्तेमाल कर सत्ता पाने को अपना मिशन बना लिया। राजनीति, बहुजनों को एक नहीं कर सकी, क्योंकि कांशीराम को उनके अनुभवों ने सिखाया था कि उन्हें अपने अनुयायियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। हम पर विश्वास क्यों नहीं किया जा सकता? कोई मसीहा हमारा रक्षक कैसे बन सकता है जब तक कि वह हमारे मन में छिपे पाप से हमारी रक्षा नहीं करता ?
कांशीराम ने गैर-बराबरी पर हमला किया, परंतु सामाजिक हालात के आध्यात्मिक पहलू को उन्होंने नजरंदाज किया। इसलिए वे अपने अनुयायियों को यह नहीं समझा पाए कि जातिगत ऊंच-नीच क्यों गलत है। बल्कि वे उन्हें यह भी नहीं समझा पाए कि सभी मानव बराबर क्यों हैं। क्या उत्तर प्रदेश के चमारों को वहां के यादवों से प्रेम करना चाहिए ? क्यों ? हम एक-दूसरे से घृणा क्यों करते हैं ? एक-दूसरे का शोषण और दमन क्यों करते हैं ? क्या सचमुच राजनीति वह चाबी है जो हमारे दिलों को बदल सकती है ? कांशीराम एक महान राजनीतिज्ञ थे, परंतु वे भारत की सामाजिक समस्याओं का यथार्थवादी हल नहीं सुझा पाए, क्योंकि उन्होंने हमारे सामाजिक यथार्थ से उपजे गंभीर दार्शनिक व आध्यात्मिक मुुद्दों के बारे में सोचा तक नहीं।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)
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