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बच्चों पर कोसी का कहर

यह काम राहत शिविर बनाने और चावल-कपड़ा बांटने से नहीं होने वाला है। इसके लिए ज्यादा तैयारी और इच्छाशक्ति की जरूरत है

उसने याद करने की कोशिश की, पिछली बार बाढ़ में भूख से कितने बच्चों की मौत हुई थी। उसकी स्मृति में आंकड़े तैर गए। उसे याद आया कि पिछली बार कोसी का कहर जिन इलाकों में बरपा था, वहां 25 लाख लोग बेघर हुए थे। सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे थे। बच्चों की मौत का कोई आंकड़ा सरकार के पास नहीं है। लाशें बहा दी गईं। दरअसल, ऐसी मौत तब तक किसी के लिए मायने नहीं रखती, जब तक मुर्दों की अज्ञात भीड़ में अपनों के चेहरे नजर नहीं आएं।

कोसी पिछले 200 सालों से 12 बार इस रास्ते से लौट चुकी है और हर बार तबाही मचाकर वापस हुई है। ऐसी तबाहियों का अंदेशा अब और बढ गया है, क्योंकि जो अंचल पहले नदियों को थामने, उसकी गोद में तैरने की क्षमता रखता था, वह अब बिखरा हुआ है। बिहार में नदी और समाज का रिश्ता सरकार ने रहने ही नहीं दिया। उसका खमियाजा तो भुगतना ही होगा। बाढ़ ने उनकी संस्कृति, उनका जीवन बदल दिया है। उनके गीत बदल गए हैं। उनके गीतों में भी बाढ़ व पलायन का दर्द शामिल है-बिसहरी माय रुसल छौ, मनहिये गे मलिनियां। खेत, पोखर, सब डूबल, धीया-पुता के बिना कोना रहबै गे मलिनिया। बाबा मोरे हरबा जोते/भौजी मोरे ठकुरा ओले/उपजे साठी धान/ओही धान के लाबा भूजब/जैबय बिसहरिया मचान।

उत्तर बिहार में हिमालय से निकलने वाली नदियों की संख्या अनंत है। कभी समय था जब यहां का समाज बाढ़ से खेलना जानता था। अब वे मानते हैं कि इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया। 2008 में कोसी में आई भयानक बाढ़ ने राज्य के कई जिलों को अपनी चपेट में लिया। उनमें सहरसा जिले का राजसोनबरसा ब्लॉक भी शामिल था, जो बुरी तरह प्रभावित हुआ। अमृता, बरैठ, भभरा, रखैता, खजुराहा गांव की लगभग दस हजार आबादी को बाढ़ की वजह से निर्वासित होना पड़ा। निर्वासन की पीड़ा से आज भी वे लोग जूझ रहे हैं। सहरसा जिले के राजसोनबरसा ब्लॉक के अमृता गांव का मुकेश सदा अभी आठ वर्ष का है। पिछली बार बाढ़ में उसका घर बह गया। मुकेश की पढ़ाई छूट गई। पिता कमाने के लिए पंजाब गए तो लौटे नहीं। मां सावित्री सदा, किसी तरह खेतों में मजदूरी कर अपने पांच बच्चों का पेट भरती है। कई बार काम नहीं मिलता। बच्चे भूखे सो जाते हैं। मुकेश की कहानी अकेली कहानी नहीं है। ऐसे बच्चों की बड़ी तादाद है, जिन्हें बाढ़ ने बेघर कर दिया। जब बिहार सरकार को ही बेघर हुए लोगों की चीखें नहीं सुनायी पड़तीं तो दिल्ली तो बहुत दूर है। अगर यह सच नहीं होता तो बेघर हुए लोग हमारी स्मृतियों से इतनी जल्दी नहीं उतरते।

एक बार फिर उन इलाकों में बाढ़ का खतरा उत्पन्न होने लगा है। उन खतरों की फिक्र सरकार को नहीं है। सरकार के पास राहत पैकेज है और बाढ़ से जुड़ी राजनीति। बचाव व राहत की कथा कई बार कही जा चुकी है। अब कई नए और पुराने सवाल हैं। सबसे बड़ा सवाल है बेदखल व विस्थापितों को कैसे फिर से बसाया जाए। यह काम राहत शिविर बनाने और चावल-कपड़ा बांटने से नहीं होने वाला है। इसके लिए ज्यादा तैयारी और इच्छाशक्ति की जरूरत है। हम जानते हैं कि बाढ़ का कहर सबसे ज्यादा गरीबों पर टूटता है। 2010 में स्वयंसेवी संस्था एसोसिएशन ऑफ इंडियंस ऑफ डिवेलपमेंट ने बाढ़ के बाद उन इलाकों की स्थितियों को जानने के लिए एक सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि इस इलाके में 10 में से 6 बच्चे कुपोषित हैं। कुपोषण के कारण दस में से एक बच्चे की मुत्यु की आशंका रहती है। मात्र 20 प्रतिशत बच्चों का टीकाकरण हुआ है। 19 प्रतिशत लोगों की सालाना आमदनी पांच हजार से भी कम है। कुपोषित बच्चों में 30 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जाति व 11 प्रतिशत मुसलमानों की है। भूख व कुपोषण के शिकार बच्चों में 90 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी बीमारी के शिकार हैं। बीमारी के कारण तीन-चौथाई लोग महाजन के कर्ज में डूबे हैं। खुद सरकार के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं।

एनएफएचएस-3 के अनुसार, बिहार में 50 प्रतिशत बच्चों की मौत की वजह कुपोषण है। 47 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जिनकी लम्बाई नहीं बढ़ती। कम वजन वाले बच्चों की तादाद 47 प्रतिशत है। बच्चों में भूख व कुपोषण की एक बड़ी वजह है सरकार की नीतियों का लाभ उन तक नहीं पहुंच पाना। 2010 में किए गए सर्वे के लगभग दो वर्ष बाद, वन वल्र्ड मीडिया फेलोशिप के तहत किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई कि स्थितियां पहले से ज्यादा गंभीर हैं। आज भी सुपौल जिले के सिमराही प्रखंड के मोतीपुर गांव समेत कई इलाकों के आधे से ज्यादा बच्चों को मिड-डे-मील नहीं मिल पाता। बच्चों ने बताया कि महीने में 6-7 दिन ही भोजन दिया जाता है। लगभग 77 प्रतिशत बच्चों ने कहा कि उन्हें सिर्फ खिचड़ी दी जाती है। 57 प्रतिशत स्कूलों के पास रसोईघर नहीं है। गांव के इस इलाके के तीन-चौथाई लोग गरीब हैं। आधे से ज्यादा लोगों के पास अपनी जमीन नहीं है। खेतों में आठ से दस घंटे काम करने वाले मजदूरों को मात्र पांच किलो अनाज या 40 रुपया मिलता है। अधिकांश लोगों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी की जानकारी नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि पूरा का पूरा गांव मर्दों से खाली हो चुका है और गांव में औरतें, बच्चे व बूढ़े रह गए हैं।

बाढ़ ने बच्चों से उनका पिता छीना, उनका स्कूल, उनके खेत व पोखर तक। ये बच्चे पहले बाढ़ के आतंक को झेलते हैं, बाद में भूख के आतंक को। बच्चों ने बताया कि उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी बाढ़ के दौरान होती है। कई बार घर में खाने के लिए कुछ नहीं होता। पिछली बाढ़ में जब घर में अन्न का एक दाना भी नहीं बचा तो दादी ने जंगली घास उबाल कर पिलाया था। लगभग दो माह तक बच्चे या तो भूखे पेट रहे या सिर्फ नमक-भात खाकर जिंदा रहे। बाढ़ ने उनके जीवन में आतंक का बीज बोया। उनकी स्मृतियों में भय ने ऐसा पांव जमाया है कि वे उन दिनों को याद नहीं करना चाहते। अगर हम चाहते हैं कि हमारा समाज स्वस्थ रहे तो हमें अपनी नई पीढी को भूख व कुपोषण से बचाना होगा।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2013 अंक में प्रकाशित)


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