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क्या सिर्फ आरक्षण से समस्याएं हल होंगी?

क्या हमें सीमित संख्या में उपलब्ध सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा के अत्यंत सीमित अवसरों में और अधिक आरक्षण की जरूरत है

प्रिय दादू,

अपने एक पत्र में आपने उन तीन कारकों की सूची दी थी, जो भारत को कमजोर और विभाजित कर रहे हैं। पहला भ्रष्टाचार और स्वार्थपरकता, दूसरा बाहुबल का गैर-कानूनी इस्तेमाल और तीसरा धर्म, भाषा व जाति के आधार पर भेदभाव। आपने यह स्वीकार किया था कि आपके इन विचारोंं से अनेक प्रश्न उभर सकते हैं, उदाहरण के लिए, आरक्षण के संबंध में, परंतु आपने यह भी कहा था कि यदि हम उपर्युक्त मुख्य बिंदुओं से सहमत हैं, तो हम उनसे उद्ध्रत होने वाले पूरक प्रश्नों पर फिर कभी विचार कर सकते हैं। परंतु, प्रिय दादू आरक्षण का मुद्दा पूरक प्रश्न नहीं है, वह तो भारत की बहुसंख्यक आबादी, अर्थात दलितों व ओबीसी के लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न है! कृपया अपनी टिप्पणी दें।

सप्रेम
आरक्षित

प्रिय आरक्षित,

तुमने बिलकुल ठीक कहा कि आरक्षण निश्चित रूप से दलितों व ओबीसी के लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न है। शुरुआत में आरक्षण कोटा एक छोटा-सा सकारात्मक कदम था। हमारे देश के उन बहुसंख्यकों की मदद के लिए, जिनके साथ हमारे श्रेष्ठि वर्ग ने सदियों तक भेदभाव किया था। सच तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद हमारे देश के दलितों व ओबीसी ने जो भी थोड़ी-बहुत प्रगति की है, उसका श्रेय आरक्षण कोटा को ही है। परंतु, सभी के लिए पर्याप्त संख्या में उचित अवसरों के अभाव के चलते आरक्षण कोटा की राजनीति का बोलबाला बढता जा रहा है, जैसा कि तुम जानते हो। तथ्य यह है कि एक औसत भारतीय के लिए आगे बढऩे के अवसर अत्यंत सीमित हैं। इस कारण आरक्षण इस हद तक जीवन और मृत्यु का प्रश्न बन गया है कि गैर-दलित व गैर-ओबीसी भी अपने दलित या ओबीसी होने के झूठे प्रमाणपत्र हासिल कर आरक्षण का लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं और यह प्रवृत्ति केवल व्यक्तियों तक सीमित नहीं है, कई राजनीतिक दल भी जाति के आधार पर चुनाव लड़ रहे हैं।

इस संदर्भ में जमीनी हकीकत काफी जटिल है। एक ओर शहरों और अल्पसंख्यक प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष तबके में जाति का महत्व दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है, वहीं कस्बों, गांवों और मलिन बस्तियों में..जहां हमारे देश के अधिकांश लोग निवास करते हैं..जाति का महत्व बढ़ता जा रहा है, बल्कि जाति-व्यक्ति की पहचान का सबसे प्रमुख तत्व बनती जा रही है।

यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे स्वतंत्रता के पूर्व धर्म व्यक्ति की पहचान का सबसे महत्वपूर्ण अंग बन गया था और इसी के कारण अंतत: भारत और पाकिस्तान अलग-अलग देश बन गए। अगर जाति व भाषा के व्यक्ति की पहचान का केंद्र बनने की यह प्रवृत्ति जोर पकड़ती रही तो हमारे देश के बिखरने या खंड-खंड होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।

यह खतरा हमारे लिए कोई बहुत अनजान भी नहीं है, कश्मीर, खालिस्तान, उत्तर-पूर्व की चुनौती, तमिल अलगाववाद..जिनमें से एक से भी हमने बुद्धिमत्तापूर्वक मुकाबला नहीं किया और हमारे लिए यह जरूरी है कि हम इस तथ्य को ध्यान में रखें कि आज कुछ ब्राह्मण व क्षत्रिय परिवार गरीब हैं तो कुछ दलित और ओबीसी परिवार अमीर।

क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि हम उस राजनीति को तिलांजलि दे दें जो आरक्षण के मुद्दे को हास्यास्पद सीमा तक ले जा रही है। अगर हम इसी राह पर चलते रहे तो क्या देश उन्नत व समृद्ध बन सकेगा, क्या वह सुरक्षित भी रह सकेगा, क्या हमें सीमित संख्या में उपलब्ध सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा के अत्यंत सीमित अवसरों में और अधिक आरक्षण की जरूरत है। क्या हमें यह प्रयास नहीं करना चाहिए कि राजनीतिज्ञों की एक नई पीढ़ी उभरे जो यह कहे कि भाड़ में जाए आरक्षण। हमें तो इसके बदले शिक्षा चाहिए! हमें केवल सरकारी नौकरियां मत दो, हमें ऐसा प्रशिक्षण दो जिससे हम निजी क्षेत्र में नौकरियों के लिए स्पर्धा करने में सक्षम हो सकें! हमें पूंजी और प्रशिक्षण उपलब्ध करवाओ, ताकि हम अपने व्यापार-व्यवसाय शुरू कर सकें, अपने पैरों पर खड़े हो सकें! हो सकता है कि मुसीबतों से घिरे हमारे बहुत से भाई-बहिनों को यह गैर-यथार्थवादी आदर्शवाद लगें, परंतु हमें यह याद रखना होगा कि हमारे देश में हालात बदल रहे हैं। टाटा जैसी कुछ कंपनियां दलितों और ओबीसी को प्राथमिकता देने पर विचार कर रही हैं। हमारी सरकार ने ऐसी सभी बड़ी कंपनियों, जिनका शुद्ध बाजार मूल्य कम से कम 500 करोड़ रुपये हो या जिनका वार्षिक लेन-देन कम से कम 1000 करोड़ रुपये का हो या जिनका शुद्ध लाभ कम से कम 5 करोड़ रुपये हो को कहा है कि वे अपने शुद्ध लाभ का कम से कम 2 प्रतिशत ऐसी गतिविधियों पर खर्च करें जो उनके कारपोरेट सामाजिक दायित्व के अंतर्गत आती हों, यद्यपि ऐसा करना अनिवार्य नहीं है तथापि कंपनियों को अपनी वार्षिक रिपोर्टों में उन कारणों का खुलासा करना होगा, जिनके चलते वे ऐसा नहीं कर संकीर्ण सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों को अपने लाभ का एक निश्चित हिस्सा देते रहे हैं।


सरकार ने तो यह भी कहा है कि वह दलित चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) की सहायता करेगी ताकि दलितों को रोजगार के अवसर सृजित करने लायक बनाया जा सके। मैंने अब तक किसी ओबीसी चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स के बारे में नहीं सुना है और इसलिए मेरा डिक्की से अनुरोध है कि वह जातिवादी सोच न अपनाए और ओबीसी को अपने में शामिल कर दलित एंड ओबीसी चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री बने। समय आ गया है कि हम केवल उन चीजों को पाने के लिए आपस में लड़ऩा बंद करें, जिन्हें हम पा सकते हैं। आज समय है देश की मजबूती और समृद्धि के लिए कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने का ताकि हम सब भारतवासी कम से कम एक न्यूनतम गरिमा के साथ अपना जीवन बिता सकें। धनी वर्ग अपनी समृद्धि का आनंद अवश्य उठाएं। परंतु वह थोड़ा-बहुत परोपकार भी करे ताकि देश आगे बढ़ सके।
अब तुम ही बताओ, आरक्षित, क्या हम आरक्षण के लिए संघर्ष करें या अपने देश की ऐसी प्रगति के लिए, जिसमें हरेक की न्यायसंगत हिस्सेदारी हो।

सप्रेम
दादू

 

(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

दादू

''दादू'' एक भारतीय चाचा हैं, जिन्‍होंने भारत और विदेश में शैक्षणिक, व्‍यावसायिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में निवास और कार्य किया है। वे विस्‍तृत सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक मुद्दों पर आपके प्रश्‍नों का स्‍वागत करते हैं

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