मेरे विचार से साहित्य का बंटवारा अब और न किया जाए तो अच्छा है। नहीं तो आए दिन लोग तरह-तरह के खांचों में इसे फिट करते रहेंगे और इस प्रकार सभी जाति और वर्ग के लोगों का अपना-अपना साहित्य होगा। मुझे खास तौर पर यह कहना है कि बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने विकास के लिए दलितों को 22 प्रतिज्ञाएं तथा स्त्रियों के लिए 23 प्रतिज्ञाएं दी थीं। उन्हीं के बल पर महाराष्ट्र की महिलाओं ने सामाजिक एवं धार्मिक तौर पर स्त्रियों के प्रति बाध्यताओं को नकार दिया। आगे आकर आंदोलन की पताका उन्होंने अपने हाथ में ले लिया। स्त्रियों की उपेक्षा के प्रति आक्रोश दिखाते हुए वहां की महिलाओं ने अपना मंच बनाने की धमकी दी। जहां तक जाति का सवाल है तो जाति बनाई किसने? भारत में ब्राह्मणवादी-व्यवस्था के कारण जाति और वर्ण का प्रादुर्भाव हुआ है।
द्विजवादियों ने अपनी सुविधा के लिए अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए और छोटी जातियों का शोषण करने के लिए वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया। यदि भारतीय समाज से वर्ण-व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाए तो सभी वर्ग के लोगों को फलने-फूलने का समान अवसर मिलेगा। दलितों को भी समाज में सम्मानजनक स्थान मिलेगा, उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। यदि किसी वर्ग या किसी जाति के लोगों को प्लेटफार्म न उपलब्ध हो तो वह अपनी काबिलियत किस तरह दिखा सकते हैं।
किसी को यह कहकर नकार देना कि वह योग्य नहीं है, यह उचित नहीं है, चाहे वो दलित हों, महिलाएं हों या आदिवासी हों। जहां भी जिस किसी को अवसर मिला है वह अपनी योग्यता का लोहा मनवा चुका है। यदि हेमलता की योग्यता को परखा नहीं गया होता और उसे साबित करने का मौका नहीं दिया गया होता तो आज एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर जैसे प्रतिष्ठित पद पर कैसे नियुक्त होती? दलितों और खास तौर से दलित-स्त्रियों को सामाजिक और धार्मिक जकड़बंदी से बाहर निकलकर अपनी मंजिल खुद तलाश करनी होगी। इसके लिए उन्हें कठिन परिश्रम करना होगा और हिम्मत से काम लेना होगा। सावित्रीबाई फूले जैसा दृढ संकल्प लेकर, अपना लक्ष्य तय करके आगे बढऩा होगा, कठिनाइयां तो आती ही हैं, वो भी विशेष रूप से महिलाओं के साथ, लेकिन हौसला बुलंद रखने पर कामयाबी ज़रूर मिलती है। किसी ने ठीक ही कहा है-डगमगाना भी जरूरी है संभलने के लिए।
— इम्तियाज अहमद आजाद से बातचीत पर आधारित
(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2013 अंक में प्रकाशित )