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पाप के दलदल में धंसे ये ढोंगी

क्या शंकराचार्य को खड़े होकर राष्ट्रपति जी का स्वागत नहीं करना था? ऐसा न करके, क्या शंकराचार्य ने प्रोटोकाल के नियमों का उल्लंघन नहीं किया? हमारे देश के संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक माना जाता है। उनके ऊपर किसी का स्थान नहीं है

हमारे देश में धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्वों का धन व वैभव से निकटता का संबंध है। एक कुंभ में मुझे उज्जैन जाने का अवसर मिला था। उज्जैन प्रवास के दौरान मैं अनेक धर्मगुरुओं के शिविर में गया। उनके कैंपों में वे सब सुविधाएं थीं जो शायद एक धनी व्यक्ति भी नहीं जुटा पाएगा। उज्जैन के कुंभ के दौरान साधुओं के शिविरों में कुल मिलाकर 4000 एयरकंडीशनर लगे थे और इन एयरकंडीशनरों को विद्युत प्रदाय करने के लिए राज्य विद्युत मंडल को विशेष इंतजाम करने पड़े थे। ज्ञातव्य है कि एक एयरकंडीशनर में लगभग उतनी ही बिजली की खपत होती है जितनी कि 100 वॉट के 15 बल्बों में। धर्मगुरुओं की एक कमजोरी रहती है। उनकी तीव्र इच्छा होती है कि उनके प्रवचन सुनने मुख्यमंत्री, मंत्री, आलाधिकारी और नगर के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति अवश्य आएं। फिर, उनकी यह भी इच्छा रहती है कि मुख्यमंत्री या मंत्री मंच पर आकर उन्हें माला पहनाएं और उनके चरण छुएं। यह दुख की बात है कि सत्ता में बैठे लोगों और धर्मगुरुओं के बीच क्या संबंध हों, इस बारे में अभी तक हमारे देश में कोई सर्वमान्य परंपराएं या नियम नहीं बन सके हैं। हमारे देश के संविधान के अनुसार, जो भी व्यक्ति संवैधानिक पदों पर रहते हैं, उन्हें हर हालत में सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए। पर प्राय: यह देखा गया है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग इन धर्मगुरुओं के सामने नतमस्तक होते हैं और सार्वजनिक रूप से उनके चरण-स्पर्श करते हैं।

कुछ माह पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपने मध्यप्रदेश प्रवास के दौरान जबलपुर के पास स्थित एक आश्रम में वहां के शंकराचार्य से मिलने गए थे। शंकराचार्य से मुलाकात की उनकी फोटो अखबारों में छपी थी। इस फोटो में शंकराचार्य अपने आसन पर बैठे हैं और राष्ट्रपति, झुककर, हाथ जोड़कर उनका अभिवादन कर रहे हैं। जब भी राष्ट्रपति किसी सभा या महफिल में प्रवेश करते हैं तो उपस्थित सभी लोग खड़े हो जाते हैं। क्या शंकराचार्य को खड़े होकर राष्ट्रपति जी का स्वागत नहीं करना था? ऐसा न करके, क्या शंकराचार्य ने प्रोटोकाल के नियमों का उल्लंघन नहीं किया? हमारे देश के संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक माना जाता है। उनके ऊपर किसी का स्थान नहीं है।

नागरिक उड्डयन सुरक्षा नियमों के अनुसार, कुछ ऐसे लोगों को छोड़कर, जो संवैधानिक पदों पर पदस्थ हैं, कोई भी व्यक्ति बिना सुरक्षा जांच के हवाई जहाज पर सवार नहीं हो सकता। अभी हाल में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपे एक समाचार के अनुसार, बापू आसाराम को यह सुविधा प्राप्त थी। वे अपनी कार से सीधे हवाई जहाज तक पहुंचते थे। उन्हें यह सुविधा किन नियमों के अंतर्गत दी गई थी? किस अधिकारी ने इस तरह की सुविधा देने के आदेश जारी किए थे? ऐसे आदेशों से ही इन धर्मगुरुओं को सिर पर चढ़ाया जाता है।

पिछले दिनों आसाराम बापू के एक किशोरी के साथ बलात्कार के आरोपों में घिरने के बाद यह खबर समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई है कि उनकी संपत्ति कम से कम पांच हजार करोड़ रुपये की है। ऐसा कोई भी बड़ा शहर नहीं है जहां आसाराम का आश्रम न हो। ये आश्रम सैंकड़ों एकड़ जमीन में फैले हुए हैं और कहा जाता है कि अधिकांश आश्रम सरकारी भूमि पर कब्जा कर बनाए गए हैं। आसाराम के एक विशेष सहायक थे जो सिर्फ मंत्रियों, उच्च अधिकारियों और धनकुबेरों के फोन सुनते थे और उनकी आसाराम से बात करवाते थे। आसाराम बापू के उमा भारती, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया, गुजरात के मंत्री रहे अमित शाह और वर्तमान में सलाखों के पीछे डाल दिए गए वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डीजी बंजारा से प्रगाढ संबंध हैं। सन् 2009 तक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी उनके प्रगाढ़ संबंध थे।

आसाराम के अलावा, अन्य धर्मगुरु भी राजनीतिज्ञों से प्रगाढ़ संबंध रखते हैं। इन धर्मगुरुओं पर आए दिन अनेक आरोप लगते रहते हैं। आसाराम पहले धर्मगुरु नहीं हैं जिन पर यौन शोषण का आरोप लगा है। इसके पूर्व भी अनेक धर्मगुरुओं पर इस तरह के आरोप लगे हैं।

इन धर्मगुरुओं की एक और विशेषता होती है। ये अपने आश्रमों में बाहुबलियों को भी पालकर रखते हैं। इन बाहुबलियों का उपयोग वे अपने विरोधियों का दमन करने के लिए करते हैं।

आसाराम के बारे में जो सच सामने आ रहे हैं, उनसे यह एक बार फिर साबित हुआ है कि इन धर्मगुरुओं के आश्रम असल में अपराधियों के केन्द्र हैं। इस बात के मद्देनजर आवश्यकता है कि इस तरह के आश्रमों और उनमें संचालित गतिविधियों पर सतत् नजर रखी जाए तथा इनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए पुलिस की गुप्तचर शाखा में एक विशेष प्रकोष्ठ स्थापित किया जाए। इनके बारे में एक और प्रश्न पर विचार होना चाहिए। क्यों न इन धर्मगुरुओं द्वारा अर्जित धन पर टैक्स लगाया जाए? ये धर्मगुरु सस्ते दामों पर सरकारों से जमीन लेते हैं और फिर उस जमीन पर तरह तरह के व्यवसाय करते हैं। इनमें से कई दवाईयों के उत्पादन के कारखाने स्थापित कर लेते हैं और अपने तथाकथित श्रद्धालुओं को ये दवाएं बेचकर करोड़ों की कमाई करते हैं। बहरहाल, यह तो स्पष्ट ही है कि ऐसा कोई पाप नहीं है जो साधुओं और धर्मगुरुओं का लबादा ओढ़े ये ढोंगी नहीं करते।

(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

एल.एस. हरदेनिया

लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं।

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