राजा सलहेस का जन्म पांचवीं अथवा छठी शताब्दी में मिथिला राज्य के मोरंग क्षेत्र (अब नेपाल) के किसी अज्ञात गांव में हुआ था। इतिहासकार ब्रजकिशोर वर्मा ‘मणिपद्म’ के अनुसार, सलहेस ‘शैलेश’ का स्थानीय भाषा में परिवर्तित रूप है जिसका अर्थ होता है ‘पर्वतों का राजा’। वे दुसाध जाति के थे। दु:साध्य कार्यों को पूरा करने में निपुण लोगों को दुसाध (दु:साध्य) कहा जाता है।
जनश्रुतियों के अनुसार बचपन से ही राजा सलहेस विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। वे सभी जातियों के लोगों के साथ समभावी और सहृदय थे। लेकिन ब्राह्मणवाद की चुनौती के कारण उन्हें अपने गांव से दूर अपनी जीविका के लिए पकरिया (मुंगेर) के राजा भीमसेन के यहां दरबान का काम करना पड़ा। उनके पराक्रम और ज्ञान को देखकर राजा भीमसेन ने उन्हें अपना व्यक्तिगत अंगरक्षक बना लिया। लेकिन राजा भीमसेन ने चुहरमल, जो दुसाध जाति के ही थे, के साथ राजा सलहेस का मुकाबला करवा दिया, जिसमें राजा सलहेस विजयी हुए थे और जिस कारण चुहरमल राजा सलहेस से ईर्ष्या भाव रखने लगा।
एक जनश्रुति यह है कि राजा जनक के उपरांत राजा सलहेस के शासनकाल में मिथिला में सराहनीय उपलब्धि हुई। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि राजा जनक के उपरांत पांचवीं और छठी शताब्दी तक मिथिला में वज्जिसंघ, लिच्छवी, नंद, सुनगा, कांत, गुप्ता, वर्धन इत्यादि का शासन रहा, पर इस अवधि में मिथिला कोई विशेष उपलब्धि नहीं पा सका। इन्होंने मिथिला की राजधानी महिसौथा-सिरहा (नेपाल) को बनाया। वहां एक प्राचीन किले का भग्नावशेष अभी भी दिखाई देता है। लोकगाथा विवेचक राजेश्वर झा के मतानुसार-‘राजा सलहेस शक्ति, शील और सौंदर्य-तीनों गुणों से परिपूर्ण थे। राजा सलहेस घोड़ा पर बैठकर अपनी प्रजा की रक्षा तथा शिकार खेलने निकला करते थे। जिस सरिवन में राजा सहलेस विचरण किया करते थे उसका संबंध मधुबनी जिले में बाबू बरही प्रखंड से है। राजा सलहेस ने अपने राज्य को उत्तर की ओर से तिब्बतियों के आक्रमण से कई बार बचाकर और विजय प्राप्त कर अपने नाम ‘शैलेश’ (पर्वतों का राजा) को सार्थक किया।”
नेपाल के तराई क्षेत्र एवं पूर्वोत्तर बिहार की सभी दलित बस्तियों में राजा सलहेस की याद में हरेक वर्ष आश्विन पूर्णिमा को मेले का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर ‘राजा सलहेस’ नामक नृत्य नाटिका, जिसे स्थानीय भाषा में ‘नाच’ कहा जाता है, की प्रस्तुति स्थानीय लोक गायक मंडली के द्वारा नृत्य व गायन के साथ की जाती है। यह ‘नाच’, जिसमें राजा सलहेस की जीवनी है, को किसी भी उत्सव के अवसर पर कराया जाता है।
लक्ष्मण पासवान, कर्णपुर के भगैत (पुजारी) के अनुसार नई फसल का संग्रह खलिहान में होने पर राजा सलहेस के नाम पर उसका कुछ अंश अलग कर किसी निर्धन को दान दिया जाता है। समाजसेवी भीमशंकर प्रसाद कहते हैं कि कुछ लोकोक्तियों के अनुसार राजा सलहेस चारों वेदों के ज्ञाता थे लेकिन उनको एवं उनके ज्ञान को ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि दुसाध जाति के किसी व्यक्ति का ज्ञान और उसकी कीर्ति उनके गले नहीं उतर पाती थी।”
राजा सलहेस की प्रतिमा, घोड़े पर आसीन हाथ में तलवार लिए, को ब्रह्म्स्थान में देखा जाता है जो प्राय: गांव के अंतिम छोर पर स्थापित किया जाता था। लेकिन अब सभी दलितों की बस्ती में राजा सलहेस का गह्वर स्थापित है। शिबू पासवान, ग्राम मरिचा, चौकीदार, सुपौल थाना के अनुसार ‘अब धीरे-धीरे उच्च वर्ग के लोग भी अन्य देवताओं की तरह मानवमात्र के पथप्रदर्शक व पराक्रमी राजा सलहेस को सम्मान के साथ याद कर रहे हैं।’ लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि ब्राह्मणवाद विरोधी चेतना के वाहक के रूप में इस पराक्रमी राजा के लौकिक आलोक को कैसे निखारा जाए तथा इस दलित नायक की किंवदंतियों को सांस्कृतिकरण (ब्राह्मणीकरण) से कैसे बचाया जाए?
(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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