बिहार के औरंगाबाद में रणवीर सेना का स्वयंभू प्रमुख और भाजपा के भूमिहार नेता गिरिराज सिंह द्वारा ‘दूसरा ब्रह्मेश्वर’ का तमगा पाने वाला सुशील पांडे मारा गया। अरण्डा-पिसाय रोड पर गत 17 अक्टूबर की शाम, माओवादियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंगों में विस्फोटों से पांडे समेत 7 लोग मारे गए। सुशील पांडे की हत्या होते ही, भूमिहार समाज के नेताओं ने यह अरण्य रोदन शुरू कर दिया कि यह भूमिहार समाज को नेताविहीन करने की नीतीश सरकार की सोची-समझी साजिश का हिस्सा है, जिसका करारा जवाब दिया जाएगा।
18 मार्च, 1999 को हुए सेनारी हत्याकांड के बाद भी भूमिहारों में इसी तरह का गुस्सा था, जिसके बाद, 16 जून, 2000 को रणवीर सेना ने मियांपुर नरसंहार को अंजाम दिया था। तो क्या अब यह माना जाए कि एक बार फिर रणवीर सेना पुनर्जीवित होगी? संभावना यह जताई जा रही है कि ऐसा करना भाजपा और रणवीर सेना, दोनों की राजनीतिक जरूरत है क्योंकि इससे सरकार के खिलाफ माहौल बनेगा और नीतीश कमजोर पडेंग़े। गिरिराज सिंह ने कहा कि सुशील पांडे समाज को एकजुट रखते थे। ब्रह्मेश्वर मुखिया के पुत्र और राष्ट्रवादी किसान संगठन के सुप्रीमो इंदुभूषण सिंह ने भी कहा कि ‘सरकार और नक्सली, किसानों का मनोबल तोडऩे की साजिश रच रहे हैं, जिसका करारा जवाब दिया जाएगा। हम रणनीति बनाएंगे जो अभी अघोषित रहेगी।’ रणवीर सेना से जुड़े भूमिहार समाज ने धमकी भरे अंदाज में सरकार को चुनौती दी है, वह अब होने वाली क्रांति को रोक कर दिखाएं।
नक्सलवादियों और सुशील पांडे की लड़ाई पुरानी थी। बिहार में, एमसीसी के कमांडर रामचंद्र सिंह और सुशील पांडे दोनों मित्र थे लेकिन अगड़े बनाम पिछड़े की लड़ाई ने उन्हें एक दूसरे का जानी दुश्मन बना दिया। 4 जून 1999 को एमसीसी ने पिसाय पर हमला बोल दिया। सुशील पांडे के करीबी कवींद्र पांडे की हत्या हो गई और इलाके में जातीय खूनी खेल शुरू हो गया। 16 मई 2001 को पंचायत चुनाव की मतगणना प्रारंभ होनी थी। रामचंद्र की पत्नी चिंता देवी का चुनाव जीतना तय था। यह सवर्णों को बर्दाश्त नहीं था। इसलिए परिणाम आने से पहले ही उसे अरण्डा-पिसाय रोड पर ही गोली मार दी गई। आश्चर्यजनक रूप से इस मामले में सुशील बरी हो गए। बाद में कुर्मी रामचंद्र भी मारे गए। इस इलाके में भूमिहारों का एकछत्र राज हो गया। अपना साम्राज्य बिखरता देख, रणवीर सेना से जुड़े लोग बिलबिला उठे हैं। भाजपा नेता अनिल सिंह ने भविष्य के संभावित खतरे पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा, ‘अब नक्सली जितनी लेवी तय करेंगे, हमें उतनी देनी पड़ेगी।’
नरसंहार की पृष्ठभूमि
इसके कई पहलू हैं। इसके लिए सरकार की गरीब-विरोधी नीतियां भी जिम्मेदार हैं। सरकार की ‘पंच लाईन’ है–‘न्याय के साथ विकास।’ जबकि वास्तविकता ठीक इसके उलट है। भाकपा माले के एक विचारक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद जिस तरह भूमिहार समाज ने पटना की सड़कों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की और सरकार खामोश रही उससे गरीब तबके को चिढ़ हुई। फिर एक-एक कर नगरी, मियांपुर, बथानी टोला और बाथे नरसंहार को अंजाम देने वाले रणवीर सेना के कारिंदे बरी कर दिए जाने लगे। यह दलितों और पिछड़ों को नागवार गुजरा। सत्ता से अलगाव की भावना, असुरक्षा की भावना और यहां तक कि देर-सवेर लोकतांत्रिक अधिकारों से बेदखल किए जाने का खतरा बढ़ता दिखा, इसलिए चरम वामपंथियों को मैदान में उतरना पड़ा होगा। बता दें कि जिला मुख्यालय में 2 मई 2012 को लोकतांत्रिक तरीके से छोटू मुखिया हत्याकाण्ड के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे राजद, लोजपा, कांग्रेस व भाकपा-माले के कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने बर्बर कार्रवाई की थी। राज्य मानवाधिकार आयोग ने इस घटना के लिए पुलिस पर 2 लाख रुपये का दण्ड लगाया परंतु उसे वसूल करने के लिए भी आंदोलन करना पड़ रहा है। वाम विचारकों का मानना है कि सरकार में भाजपा के रहते, भूमिहार बिरादरी की जो हिम्मत बढ़ी उसे माओवादी तोडऩा चाहते हैं। यही वजह थी कि गोह के जाजापुर में 17 जुलाई 2013 को सैप (स्पेशल आक्जीलरी पुलिस) जवानों के कैंप पर हमला बोल 3 सैप जवानों समेत 6 की हत्या कर 30 हथियार और 2550 कारतूस लूट लिए गए। बाद में एक माओवादी समर्थक ने साफ कहा कि यह कार्रवाई रणवीर सेना को यह बताने के लिए है कि वे तभी तक ताकतवर हैं जब तक नक्सली शांत हैं उसने भूमिहारों से उनकी सामंती ऐंठन को छोडने के लिए कहा।
दबाव में झुकी सरकार
सरकार झुक गई, जिस पर सवाल उठ रहे हैं। पिछड़ों की जब हत्या हुई तो मुआवजे और अधिकारियों के तबादले के लिए आंदोलन करने पड़े और यहां तुरंत, कुछ ही घंटों में ही एसपी को बदल दिया गया। सुबह ही मुआवजे का चेक मिल गया। सबको याद है कि कैसे मई, 2012 में इसी मांग को लेकर आंदोलन कर रहे भाकपा-माले, राजद, रालोसपा एवं अन्य दलों के नेताओं पर बर्बर तरीके से बिहार की उसी पुलिस ने हमला किया था, जो पटना में खामोश रही।
मीडिया का पक्षपात
ब्रह्मेश्वर मुखिया को गांधी बताने वाले बिहार के मीडिया ने आरोपी बनाए गए 7 में से 2 का आपराधिक इतिहास तो बताया लेकिन मारे गए सुशील पांडे समेत अन्य लोगों का नही। इस तरह की चुप्पी और पूर्वाग्रह क्यों, राज्य में कुछ लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं। ऐसा भय है कि इससे बिहार के दलितों, पिछड़ों में असंतोष उपजेगा और कभी न कभी इसका विस्फोट होगा। जरूरत इस बात की है कि ‘सुशासन’ व ‘विकास’ के साथ-साथ, बिहार में न्याय भी हो, वरना राज्य एक बार फिर सामंती और जातिगत हिंसा के भंवरजाल में फंस जाएगा।
(फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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