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अलविदा सच्चे टार्जन!

1959 में बस्तर का नाम अपनी कला से दुनिया में रोशन करने वाले चेंदरू 18 सितंबर, 2013 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। चेंदरू राम मण्डावी वही शख्स हैं जो बचपन में बाघ के साथ खेला करते थे और उसी के साथ अपना अधिकतर समय बिताते थे

1959 में बस्तर का नाम अपनी कला से दुनिया में रोशन करने वाले चेंदरू 18 सितंबर, 2013 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। चेंदरू राम मण्डावी वही शख्स हैं जो बचपन में बाघ के साथ खेला करते थे और उसी के साथ अपना अधिकतर समय बिताते थे। बाघों से उनकी इस दोस्ती से प्रभावित होकर 1959 में ही सुप्रसिद्ध स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सक्सडॉर्फ ने चेंदरू और उसके पालतू शेर को लेकर एक फिल्म बनाई, जिसका नाम ‘ए जंगल टेल’ रखा। इस फिल्म ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी।

वहीं सक्सडॉर्फ की पत्नी और सुप्रसिद्ध स्वीडिश जन्तुविज्ञानी स्टेन वर्गमैन की पुत्री ऑस्ट्रिड सक्सडॉर्फ ने उसी दरम्यान एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का सर्वप्रथम प्रकाशन 1960 में फ्रांस से ‘चेंदरू एट सन टाइगर’ शीर्षक से तथा अंग्रेजी उपन्यासकार विलियम सैनसम द्वारा अंग्रेजी में किया गया अनुवाद यूनाइटेड स्टेट्स (हैरकोर्ट ब्रेस एंड कम्पनी, न्यूयार्क) से ‘चेंदरू : द ब्वॉय एंड द टाइगर’ शीर्षक से हुआ। इस कारण लोगों ने उन्हें ‘टाईगर ब्वॉय टार्जन’ और ‘मोगली’ जैसे नाम देने शुरू कर दिए थे।

फिल्म के प्रदर्शन के समय फिल्म निर्माता चेंदरू को भी अपने साथ स्वीडन समेत दूसरे देशों में ले गए। इस आदिवासी बालक की इस दौरान जैसे पूरी दुनिया ही बदल गई थी। मगर गढ़बेंगाल गांव के चेंदरू जब भारत वापस आए तो कई सालों तक यहां अनमने से रहे। गांव के लोगों से अलग-थलग और बदहवास, जिसके चलते वे बीमार रहने लगे और धीरे-धीरे बिगड़ते स्वास्थ्य के साथ वे पक्षाघात का शिकार हो गए। अपने अंतिम दिनों में जगदलपुर के सरकारी अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझते ‘टाइगर ब्वॉय’ की बदहाली और बदहवासी को मीडिया में कुछेक सुर्खियां तो मिलीं मगर जल्दी ही सब कुछ भुला दिया गया। अस्पताल में भर्ती 78 वर्षीय चेंदरू की स्थिति जब गंभीर बनी हुई थी, उस वक्त कोई उनकी मदद के लिए सामने नहीं आया। चेंदरू के बेटे जयराम मण्डावी को लगता है कि यदि उनके पिता को आर्थिक सहायता मिलती तो शायद वे कुछ वर्ष और जीते। जयराम बताते हैं की ‘जब पिताजी बीमार पड़े तो एक जापानी महिला ने डेढ़ लाख रुपये की मदद की। इसके अलावा प्रदेश के एक मंत्री ने 25 हजार रुपये दिए लेकिन इसके बाद किसी ने हमें पूछा तक नहीं।’

अफसोस कि छत्तीसगढ़ को विश्व पटल पर पहचान दिलाने वाला यह शख्स गुमनामी की जिंदगी जीता हुआ मर गया। उसकी अंतिम पुकार या कहे अंतिम दहाड़ न तो राजनीतिक मुद्दा बनी और न ही स्वप्न का खजाना दिखाने वाले मीडिया में चर्चा का विषय बन पाई। चेंदरू को शूटिंग के दौरान रोजाना दो रुपये मिला करते थे। एक बार तो मुंबई में उनकी मुलाकात भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु से हुई थी तब नेहरु जी ने उन्हें पढने-लिखने पर नौकरी देने का भरोसा दिलाया था। तब उसे नहीं मालूम था की वह सरकारी सहायता के इतने करीब फिर कभी नहीं पहुंचेगा।

राज्य व केंद्र सरकार द्वारा चेंदरू के लिए कुछ न करना निश्चय ही अफसोसनाक है। विडंबना यह है कि मौजूदा दौर में मानवाधिकार और आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की बात करके बस्तर जैसी जगहों पर डेरा जमाने वाले हमारे सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ताओं व गैरसरकारी संगठनों को भी ‘टाइगर ब्वॉय’ की आवाज सुनाई क्यों नहीं दीं ? अस्पताल के बिस्तर पर पड़े चेंदरू के खामोश चेहरे और दर्द भरी आंखों ने उन्हें क्यों नहीं झकझोरा?

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

अक्षय नेमा मेख

अक्षय नेमा मेख फारवर्ड प्रेस के संवाददाता है।

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