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फॉरवर्ड थिंकिंग, फरवरी 2014

गणतंत्र दिवस, भारत के नागरिकों को याद दिलाता है कि 'हम भारत के लोगों’ ने समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व व्यक्ति की गरिमा और देश की अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिए भारतीय गणराज्य का गठन किया है

गणतंत्र दिवस की इस पूर्व संध्या पर न जाने क्यों, तीन महीने दूर आम चुनाव बहुत नजदीक नजर आ रहे हैं। कुछ राजनीतिक पंडित और चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करने वाले पेशेवर शायद कभी नहीं सुधरेंगे। वे अभी से पूरे आत्मविश्वास से तरह-तरह की भविष्यवाणियां कर रहे हैं। हमारे एक अरब के करीब मतदाताओं के नमूना सर्वेक्षण के आधार पर वे यह तक बताने को तैयार हैं कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी। साथ ही, वे यह भी कहते जाते हैं कि राजनीति में एक सप्ताह भी लंबा अरसा होता है। इस कहावत की सत्यता दो मिनट में पकने वाली मैगी नूडल्स की तरह, आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने से स्पष्ट है। यह कहना मुश्किल है कि आप ने यह ‘इंस्टेंट’ सफलता कैसे हासिल की-शायद उसे स्वयं भी यह पता नहीं है।

”आम आदमी पार्टी की शानदार सफलता का विश्लेषण अभी होना है परंतु यह आश्चर्यजनक है कि इसके पीछे न कोई करिश्मायी व्यक्तित्व था, न कोई सिद्ध-प्रसिद्ध विचारधारा”, प्रेम कुमार मणि ने अपने लेख ”हिन्दीस्तान के चुनाव नतीजों के निहितार्थ” (फारवर्ड प्रेस, जनवरी 2014) में लिखा। जनवरी की शुरुआत तक करिश्माई व्यक्तित्व से वंचित केजरीवाल और ‘आप’ नाम की पहेली, भारत की सभी जानी-मानी पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर आ चुकी थी। ‘आप’ का भारतीय मीडिया जरूरत से ज्यादा विश्लेषण कर चुका है परंतु मैं फिर भी कहूंगा कि ‘आप’ पर फारवर्ड प्रेस की आवरण कथा अनूठी है। इसका श्रेय हमारे अपने प्रमोद रंजन को है। ‘आप’ नेताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि के उनके विश्लेषण से इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना आसान हो गया है कि क्या एक ऐसी पार्टी, आरक्षण का विरोध जिसकी मूल विचारधारा का हिस्सा है परंतु जो बहुजन वोटों पर निर्भर है, उस सामाजिक न्याय की ओर देश को ले जा सकती है जिसके प्रति वह अपनी प्रतिबद्धता जता चुकी है?

गणतंत्र दिवस, भारत के नागरिकों को याद दिलाता है कि ‘हम भारत के लोगों’ ने समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व व्यक्ति की गरिमा और देश की अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिए भारतीय गणराज्य का गठन किया है। यह भारतीय संविधान की उद्देश्यिका है जो कि 26 जनवरी 1950 को प्रभावी हुआ। संविधान निर्माण के श्रमसाध्य कार्य को याद करने के लिए हम प्रारूप समिति के अध्यक्ष बतौर बाबासाहेब आम्बेडकर के कार्य पर एक विशेष फोटो फीचर प्रकाशित कर रहे हैं।

इस अंक में विशाल मंगलवादी का राष्ट्र निर्माण श्रृंखला का लेख ऐतिहासिक व प्रति-सांस्कृतिक दृष्टि से एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दे पर केंद्रित है : ”हिन्दू धर्म भारत को एक राष्ट्र क्यों नहीं बना सका?” मंगलवादी का कहना है कि अंग्रेजों के आगमन तक, भारतीय (भारत नहीं) राजनीतिक दृष्टि से कबीलों से ग्रामीण गणतंत्र, वहां से राज्य और यहां तक कि साम्राज्य बनने की यात्रा तय कर चुके थे परंतु वे एक राष्ट्र नहीं बने थे। इसे पढि़ए और इस बारे में सोचिए। शायद आप इस पर फारवर्ड प्रेस के फेसबुक पेज पर बहस भी करना चाहें।

महान मराठी दलित कवि नामदेव ढ़साल की मृत्यु पर मैंने फारवर्ड प्रेस के फेसबुक पेज पर जो लिखा, उससे मैं इस लेख का अंत करना चाहूंगा।

”एक युवा पत्रकार बतौर मैंने दलित पैंथर्स के बारे में तब लिखा था, जब 1970 के दशक में वे भारतीय राजनीति के क्षितिज पर उभर ही रहे थे। मुझे अब समझ में आता है कि वे मुझसे कुछ ही वर्ष बड़े हैं/थे। दुर्भाग्यवश, एंग्री यंगमैन के रूप में अपना जीवन शुरू करने वाले विद्रोही नामदेव ढ़साल, अंत में शिवसेना के उन्हीं ‘टायगरों’ के अखबार में लिखने लगे, जिन्होंने बॉम्बे/मुंबई के शहरी जंगल में पैंथर्स का शिकार किया था। अत:, मैं वैल्श कवि डेलेन थॉमस की इन पंक्तियों को उद्धृत नहीं कर सकता:

डू नोट गो जेन्टिल इन्टू देट गुड नाइट,

(उस रात में शांति से न जाओ। )

ओल्ड एज शुड बर्न एण्ड रेव एट क्लोज ऑफ डे,

(दिन के अंत में भी वृद्धावस्था को प्रज्जवलित रहना और गरजना चाहिए।)

रेज, रेज, अगेंस्ट द डाईंग ऑफ  द लाईट।

(मरते हुए प्रकाश के विरुद्ध आक्रोशित रहो।)

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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