बिहार की राजनीति में काफी सम्मान के साथ याद किए जाने वाले दिवंगत कर्पूरी ठाकुर ने पहली बार पिछड़ी जातियों को वर्गीकृत करते हुए अति पिछड़ी जाति की अवधारणा को राजनीतिक स्वीकृति प्रदान की थी। यह वह सामाजिक समूह है जो राजनीतिक- सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक वंचना से मुक्ति के लिए पिछड़ों का साथ देता रहा है। पर सच्चाई यह भी थी कि आर्थिक-सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से बेहद कमजोर और जातीय रूप से छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित इन समूहों का जमीनी स्तर पर पहला टकराव दबंग पिछड़ों से ही था और इस बात की पूरी आशंका थी कि यदि इनके लिए अलग से सुरक्षात्मक उपाय नहीं किए गए तो सत्तासीन समूहों से संघर्ष में निकला अमृत दबंग पिछड़े ही गटक जाएंगे।

कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के आरक्षण को दो भागों में वर्गीकृत कर अति पिछड़ों की हिस्सेदारी सुनिश्चित तो कर दी लेकिन 90 के दशक से चले उदारीकरण के दौर ने सरकारी नौकरियों की संख्या ही सीमित कर दी। ऊपर से अपने को कर्पूरी ठाकुर का शिष्य बताने वाले लालू प्रसाद यादव ने राजनीति तो पिछड़ों एवं वंचितों के नाम पर की लेकिन सामाजिक न्याय की यह लड़ाई एक सीमा के बाद गतिरोघ का शिकार हो गई। सामाजिक टोटकों और राजनीतिक प्रतीकों से आगे बढ़कर इन समूहों के आर्थिक सशक्तिकरण की कोई योजना नहीं बनी और खुद पिछड़ों में अंतद्र्वंद्व पैदा हो गया।
इसी सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अति पिछड़ा और दलित जातियों का ध्रुवीकरण सवर्णों के साथ हुआ। यह दो नितांत विपरीत धाराओं का मिलन था और इसके नायक थे नीतीश कुमार। अत्यंत पिछड़ी जातियों ने एक ओर यदि नीतीश कुमार में अपना चेहरा देखा तो वहीं दूसरी ओर कथित ऊंची जातियों ने कुमार को लालू से मुक्ति का उपकरण माना। सत्ता मिलते ही कुमार को यह एहसास हो गया कि एक लम्बी राजनीतिक पारी के लिए और इस सामाजिक समीकरण को अपनी ओर बनाए रखने के लिए ठोस उपाय करने होंगे। नीतीश कुमार ने भले ही अपने जनाधार को स्थाई बनाने हेतु पंचायत चुनाव में अति पिछड़ों एवम् दलित-महादलितों को आरक्षण प्रदान किया हो, लेकिन थी यह एक युगांतकारी घटना। अति पिछड़ी जातियों और महादलितों के लिए चुनाव लडऩा ही एक अफ साना था और इस अफ साने को हकीकत में बदलने की प्रक्रिया की शुरुआत नीतीश कुमार ने की। इतिहास में पहली बार उन्हेें नियंता बनने का मौका मिला। ग्रासरूट लेवल पर ही सही लेकिन सत्ता में भागीदारी मिली। अब सवाल यह है कि ग्रासरूट डेमोक्रेशी में शिक्षितप्रशिक्षित इन युवाओं के आगे का सफ र क्या होगा। क्या उन्हें पंचायत की सीमाओं से बाहर निकलकर राज्य और राष्ट्र के स्तर पर प्रतिनिधित्व का अवसर भी मिलेगा। अनुसूचित जातियों जनजतियों के लिए तो लोकसभा और विधानसभा में प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई है परंतु बेबस अति पिछड़ों का क्या होगा?
देश में सैकड़ों एैसी जातियां हैं जिनकी जनसंख्या बेहद न्यून है लेकिन इन्हें एक साथ जोड़ा जाए तो एक बड़ी आबादी बनती है। इनकी आर्थिक-सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति बेहद गंभीर हैं, बल्कि अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर है। विधायिका में इनकी उपस्थिति लगभग शून्य है। आज समय की मांग है कि लोकसभा और विधानसभा में इन वंचित जातियों के समुचित प्रतिनिधित्व के लिए वैधानिक उपबंध किए जाएं। अति पिछड़ों के कथित चैम्पियन मान नीतीश कुमार इस मुद्दे पर कुछ ज्यादा बोलने को तैयार नही हैं। तर्क है अति पिछड़ों को राष्ट्रीय स्तर पर चिन्हित करना और उनके लिए वैधानिक उपबंध बनाना केन्द्र का दायित्व है। तर्क दुरुस्त है पर सच्चाई यह है कि अनुसूचित जाति और जनजाति की तरह अति पिछड़ों के लिए भी विधायिका में आरक्षण की मांग पुरानी है पर चूँकि राष्ट्रीय स्तर पर अति पिछड़ों की कोई पहचान नहीं है, उनका कोई नेतृत्व नहीं है इसलिए उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। यदि कोई सक्षम नेता जोखिम लेकर इस मुद्दे को उठाता है तो निश्चित रूप से उसे एक राष्ट्रीय पहचान और व्यापक पकड़ मिलेगी।

इस मुद्दे पर अति पिछड़ा जनाधिकार मंच के संयोजक कौशल गणेश आजाद कहते हैं कि नीतीश कुमार की अति पिछड़ों के प्रति प्रतिबद्धता संदिग्ध है, वे तो अति पिछड़़ों की भावनाओं के साथ सिर्फ खिलवाड़ कर रहे हैं और अति पिछड़ों के लिए सकारात्मक राजनीतिक कदम ना उठाकर सिर्फ बयानवाजी करने पर उतारू हैं। नहीं तो वे राज्य की विधानसभा में इनके प्रतिनिधित्व की समुचित संवैधानिक व्यवस्था तो कर ही सकते थे। यदि बिहार विधानसभा से इस आशय का प्रस्ताव पास होता तो केंद्र पर भी दबाव बनता पर सवाल तो नियत का है। राष्ट्रीय स्तर पर अति पिछड़ों को चिन्हित करने के लिए आयोग का गठन किए जाने की जरूरत है और इसका पैमाना आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्तर के साथ ही लोकसभा, राज्यसभा और संबधित राज्य की विधानसभा में उनकी उपस्थिति को भी बनाया जाए। क्या नीतीश कुमार जो खुद को अति पिछड़ों का चैम्पियन मान बैठे हैं, इस जोखिम को उठाएंगे? या नरेंद्र मोदी जो खुद अति पिछड़ी जाति से आते हैं, उनकी आवाज बनना पसंद करेंगे?
(फारवर्ड प्रेस के जून, 2014 अंक में प्रकाशित)
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