h n

इस देश के नहीं हैैं बजंजारे

जनजातियों की स्थिति के अध्ययन के लिए फरवरी, 2006 में बने आयोग के अध्यक्ष बालकिशन रेनके के अनुसार केंद्र सरकार के पास इन्हें राहत देने के लिए कोई कार्य योजना नहीं है इसलिए इन्हें राज्यों के अधीन कर दिया गया है। पहली और तीसरी पंचवर्षीय योजना में इनके लिए प्रावधान था लेकिन किसी कारणवश यह राशि खर्च नहीं हो सकी तो इन्हें इस सूची से ही हटा दिया गया

देश में आज भी कई जातियां ऐसी हैं जो दूसरों के सहारे जीने को मजबूर हैं। घूमंतू बंजारा जाति उनमें से एक है। तमाशा दिखाती है यह जाति। तमाशा दिखाने वाली इस जाति (भीलों) की जिंदगी आज खुद एक तमाशा बनकर रह गई है, जिसका ना कोई वर्तमान है और ना ही कोई भविष्य। यह हकीकत है महानगरीय दिल्ली में रहने वाले घुमंतू भीलों की। दो जून की रोटी और चंद सिक्कों की खातिर इन्हें कोड़ों से अपने आपको तब तक पीटना पड़ता है जब तक देखने वालों की आंखें गीली न हो जाएं। कहने के लिए सरकार के पास कल्याणकारी योजनाएं हैं, लेकिन इन योजनाओं का लाभ घुमंतू जनजातियों को मिला नहीं। इनके लिए जो कुछ भी हुआ है वह कागज तक ही सीमित रहा है।

दिल्ली की सड़कों पर, मार्केट में कई जगहों पर यह बंजारे आपको मिल जाएंगे। इन्हें लोगों की भीड़ घेरे रहती है। एक महिला ढोल बजाती है और सामने एक पुरुष अपने आपको कोड़ों से लहूलुहान करता है। सड़ाक-सड़ाक कोड़ों की आवाज जितनी तेज आती है, उतनी ही तालियां बजती हैं। जैसे ही तमाशा खत्म होता है, लोग हंसने लगते हैं। पैसे मांगने पर कोई गाली, कोई धमकी तो कोई चंद सिक्के दे देता है। बंजारे पूरे दिन काम के बदले अमूमन 40 से 70 रुपये कमा पाते हैं। इनका यह खेल चाबुक तक ही सीमित नहीं रहता है। अपने हाथों में लोहे के स्पॉक घोंप लेते हैं, खून निकलता देखकर लोग शायद आनंद महसूस करते हैं।

इनको देखने के बाद विकास और संपन्नता के दावे भोथरे लगते हैं या कहें कि विकास की रोशनी जिन तक पहुंचनी चाहिए, उन तक पहुंच ही नहीं पाई है। इनमें शिक्षा का स्तर बिल्कुल शून्य है। ये अपने बच्चों को स्कूल भेजने से परहेज करते हैं। इसके दो कारण हैं-इनके बच्चे 3 साल की उम्र से ही कमाना शुरू कर देते हैं (सड़कों पर भीख मांगना, पेपर बेचना) और दूसरा इनका घुमंतू होना। इनके पास समस्याएं ही समस्याएं हैं। गरीबी व पहचान पत्र का न होना इनकी बुनियादी समस्या है। इनका कहीं स्थायी आवास नहीं। इनके लिए बोलने वाला कोई नही है। सही अर्थों में इन्हें भारत का नागरिक नहीं समझा जाता है।

ये लोग अपने आप को भील तेलुगू बताते हैं। ये खासकर महाराष्ट्र के निवासी हैं और दिल्ली के अलावा लखनऊ, बरेली, भोपाल आदि जगहों पर ज्यादा पाए जाते हैं। ये ज्यादातर बांस, पॉलीथीन व घासफूस के छोटे-छोटे तंबुओं में रहते हैं। जहां बुनियादी सुविधा के नाम पर इन्हें कुछ भी नहीं मिलता। यहां तक कि पानी भी नहीं। ये दिल्ली में होली और दीवाली के समय तीन महीने रहते हैं फिर अन्यत्र चले जाते हैं। बंजारों से इस संबंध में जब बात करने की हमने कोशिश की तो उनका कहना था कि हम कोई दूसरा काम नहीं कर सकते। लोग हमें काम देने से कतराते हैं और छुआछूत भी करते हैं।

मताधिकार से भी वंचित

जनजातियों की स्थिति के अध्ययन के लिए फरवरी, 2006 में बने आयोग के अध्यक्ष बालकिशन रेनके के अनुसार केंद्र सरकार के पास इन्हें राहत देने के लिए कोई कार्य योजना नहीं है इसलिए इन्हें राज्यों के अधीन कर दिया गया है। पहली और तीसरी पंचवर्षीय योजना में इनके लिए प्रावधान था लेकिन किसी कारणवश यह राशि खर्च नहीं हो सकी तो इन्हें इस सूची से ही हटा दिया गया। काका कालेलकर आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कुछ जातियां अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ी जातियों से भी पिछड़ी हैं। उनके लिए अलग से प्रावधान होना चाहिए। मुक्तिधारा संस्था के अनुसार घुमंतू (बंजारे) लोगों की संख्या दस करोड़ से भी ज्यादा है। इन्हें आज तक ना तो राशन कार्ड मिला है और ना ही मताधिकार का हक। देश में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए 500 करोड़ रुपये से भी ज्यादा का वार्षिक प्रावधान किया जाता है लेकिन इन्हें कुछ भी हासिल नहीं।

सरकारी-गैरसरकारी नौकरियों पर निगाह डाली जाए तो इनकी भागीदारी एक प्रतिशत भी नहीं है। बंजारा जाति की सामाजिक दशा सुधारने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों से अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग भी समय-समय पर उठती रही है।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

रमेश ठाकुर

रमेश ठाकुर देश के अग्रणी हिंदी समाचार पत्र 'दैनिक जागरणÓ में बतौर सीनियर रिपोर्टर 28 जुलाई, 2010 से कार्यरत हैं

संबंधित आलेख

बहुजनों के वास्तविक गुरु कौन?
अगर भारत में बहुजनों को ज्ञान देने की किसी ने कोशिश की तो वह ग़ैर-ब्राह्मणवादी परंपरा रही है। बुद्ध मत, इस्लाम, अंग्रेजों और ईसाई...
ग्राम्शी और आंबेडकर की फासीवाद विरोधी संघर्ष में भूमिका
डॉ. बी.आर. आंबेडकर एक विरले भारतीय जैविक बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को व्यवस्थित और संरचनात्मक रूप से चुनौती दी। उन्होंने हाशिए के लोगों...
मध्य प्रदेश : विकास से कोसों दूर हैं सागर जिले के तिली गांव के दक्खिन टोले के दलित-आदिवासी
बस्ती की एक झोपड़ी में अनिता रहती हैं। वह आदिवासी समुदाय की हैं। उन्हें कई दिनों से बुखार है। वह कहतीं हैं कि “मेरी...
विस्तार से जानें चंद्रू समिति की अनुशंसाएं, जो पूरे भारत के लिए हैं उपयोगी
गत 18 जून, 2024 को तमिलनाडु सरकार द्वारा गठित जस्टिस चंद्रू समिति ने अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को सौंप दी। इस समिति ने...
नालंदा विश्वविद्यालय के नाम पर भगवा गुब्बारा
हालांकि विश्वविद्यालय द्वारा बौद्ध धर्म से संबंधित पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। लेकिल इनकी आड़ में नालंदा विश्वविद्यालय में हिंदू धर्म के पाठ्यक्रमों को...