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संघ लोकसेवा आयोग बना श्रेष्ठि वर्ग का पोषक

यूपीएससी द्वारा परीक्षा के इस नए ढांचे का पुनरावलोकन करने के लिए नियुक्त निगवेकर कमेटी ने अपनी रपट में यह स्पष्ट कहा है कि सीएसएटी, विद्यार्थियों के एक विशिष्ट समूह को अनुचित लाभ देता है और उसे तुरंत रद्द कर दिया जाना चाहिए। यह दुखद है कि यूपीएससी ने अब तक स्वयं द्वारा नियुक्त कमेटी की रपट पर भी नजर नहीं डाली है

समावेशी नीतियां और समान अवसर, प्रजातंत्र के मूल तत्वों में शामिल हैं। परंतु तब क्या किया जाए जब प्रजातंत्र में ऐसी एकाधिकारवादी संस्थाएं हों, जो ‘गुणानुक्रम’ व ‘गुणवत्ता’ के नाम पर मनमाने निर्णय लेने लगें। और विशेषकर तब, जब इन निर्णयों का उद्देश्य, चुनिंदा लोगों के लाभ के लिए समाज के व्यापक तबके के अधिकारों की अनदेखी करना हो। यह प्रश्न इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315, भाग-14 के अंतर्गत स्थापित संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) प्रतिष्ठित सिविल सर्विसेज परीक्षा के मामले में ठीक यही कर रहा है।

देशभर में सिविल सर्विसेज की प्रारंभिक परीक्षा के द्वितीय प्रश्नपत्र, जिसे

(सीएसएटी) का नाम दिया गया है, का विरोध हो रहा है। इस विरोध को मीडिया और एक विशिष्ट तबके के लोग, अंग्रेजी भाषा विरोधी आंदोलन या बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के अयोग्य विद्यार्थियों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन की संज्ञा दे रहे हैं। यह सोच गलत है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि पत्रकार व टीकाकार, बिना पूरे मुद्दे को ठीक से समझे, इस विषय पर लिख रहे हैं और इस तरह के मुद्दे को उतनी संवेदनशीलता और गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, जितना कि लिया जाना चाहिए।

सीएसएटी क्या है?

देशभर में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों में शामिल लोगों के तर्कों को समझने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि हम जानें कि सीएसएटी आखिर है क्या। इस प्रश्नपत्र को यूपीएससी ने सन् 2011 में एसके खन्ना कमेटी की सिफारिश पर सिविल सर्विसेज प्रारंभिक परीक्षा का हिस्सा बनाया था। यूपीएससी द्वारा जारी किए गए पाठ्यक्रम के अनुसार, इस प्रश्नपत्र में मात्रात्मक कौशल या विवेकबुद्धि व अंग्रेजी ज्ञान के प्रश्न, मैट्रिकुलेशन स्तर के होने थे। प्रश्नपत्र का उद्देश्य उम्मीदवार की किसी मुद्दे को समझने व निर्णय लेने की क्षमता और उसकी सत्यनिष्ठा को परखना था।

सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि प्रश्नपत्र का यह ढांचा सभी उम्मीदवारों को, चाहे उनकी सामाजिक व शैक्षणिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, सफलता प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान करता है। परंतु दुर्भाग्यवश यह सही नहीं है। जैसा कि पिछले तीन सालों के परिणामों से जाहिर है, परीक्षा में इस प्रश्नपत्र को शामिल किए जाने के बाद से सफ ल उम्मीदवारों में कला संकाय व भारतीय भाषाओं के विद्यार्थियों का प्रतिशत गिरता जा रहा है। तथ्य यह है कि सबसे पहले सीएसएटी की वकालत सन् 2001 में वाईके अलघ कमेटी ने की थी ताकि विषय विशेष के वैकल्पिक प्रश्नपत्रों की बजाय, एक ही प्रश्नपत्र से उम्मीदवारों की योग्यता को परखा जा सके। परंतु यूपीएससी ने इसके स्थान पर एक ऐसा प्रश्नपत्र परीक्षा में शामिल कर लिया है जिसे हल करने के लिए एक विशेष तरह का ज्ञान व सटीकता अपेक्षित है।

केवल गणित, अंग्रेजी का प्रश्न नहीं

यह दिलचस्प है कि सन् 2011 तक सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्र में मात्रात्मक कौशल संबंधी प्रश्न हुआ करते थे। उम्मीदवार को अंग्रेजी भाषा की बुनियादी समझ है या नहीं, इसे जानने के लिए मुख्य परीक्षा में अलग से एक आवश्यक प्रश्नपत्र हुआ करता था। इसलिए इस तर्क में-जो कि मीडिया द्वारा प्रचारित किया जा रहा है-कोई दम नहीं है कि आंदोलनरत् छात्र, अंग्रेजी और गणित से भयभीत हैं।

सीएसएटी की मूल समस्या गणित या अंग्रेजी नहीं है बल्कि यह तथ्य है कि इसके जरिए पाठ्यक्रम के कुछ विशिष्ट हिस्सों पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया जा रहा है। प्रश्नपत्र की संरचना ऐसी है कि वह विशेषीकृत व सामान्य ज्ञान वाले उम्मीदवारों के बीच असमान प्रतियोगिता का सबब बन गया है। इसमें आधे प्रश्न, समझने की क्षमता से संबंधित होते हैं और बाकी मात्रात्मक कौशल के। निर्णय लेने की क्षमता को परखने वाले प्रश्नों की संख्या बहुत कम होती है और वे बहुत सरल होते हैं। यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि इस प्रश्नपत्र से किस तबके के उम्मीदवारों को लाभ होगा और किस तबके के उम्मीदवार इसके कारण पिछड़ जाएंगे।

अगर यूपीएससी का उद्देश्य कोचिंग संस्थानों की कमर तोडऩा था तो वह इसमें पूरी तरह असफल रहा है क्योंकि कोचिंग संस्थानों की संख्या में वृद्धि होती ही जा रही है। सीएसएटी के कारण उम्मीदवारों को उसी तरह की तैयारी करनी पड़ रही है जैसी कि उन्हें तकनीकी या प्रबंधन शैक्षणिक संस्थानों की प्रवेश परीक्षा के लिए करनी पड़ती है। नतीजे में कोचिंग संस्थान, कला संकाय, ग्रामीण व गैर-अंग्रेजी माध्यम की पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का, सीएसएटी के लिए विशेषीकृत ‘प्रशिक्षण’ प्रदान करने के नाम पर, शोषण कर रहे हैं।

यूपीएससी हमेशा से यह कहती आई है कि प्रारंभिक परीक्षा का उद्देश्य, मुख्य परीक्षा के लिए ‘गंभीर’ उम्मीदवार छांटना है। पिछले साल परीक्षा में शामिल हुए एक सफल उम्मीदवार को प्राप्त अंकों (सामान्य अध्ययन-1 में 34 प्रतिशत, सामान्य अध्ययन-2 में 25 प्रतिशत, सामान्य अध्ययन-3 में 35 प्रतिशत व सामान्य अध्ययन-4 में 41 प्रतिशत-ये वे प्रश्नपत्र हैं, जिन्हें हल करने के लिए भारतीय और विश्व इतिहास, भूगोल, राजनीति, सामाजिक-आर्थिक मुद्दों, पर्यावरण व पारिस्थितिकी, विज्ञान, सुरक्षा, नीतिशास्त्र आदि का गहरा ज्ञान आवश्यक है) को देखने से यह समझना मुश्किल है कि ‘गंभीर’ उम्मीदवार से यूपीएससी का आशय क्या है। इस उदाहरण से चयन प्रक्रिया में निहित विषमताएं उजागर होती हैं। ऐसे उम्मीदवारों, जिनकी सामान्य अध्ययन-जिसे एक समय में सिविल सर्विस अधिकारी बनने की आवश्यक शर्त माना जाता था-पर गहरी पकड़ नहीं है, की परीक्षा में सफ लता प्राप्त करने से यह स्पष्ट है कि यूपीएससी ने एक मनमानी प्रक्रिया अपना ली है।

प्रश्न समानता का है

यह स्पष्ट है कि यह आंदोलन हिन्दी अथवा खराब अनुवाद से संबंधित नहीं है बल्कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सभी को समान अवसर उपलब्ध करवाने से संबंधित है। अवसर की समानता इस देश के प्रत्येक नागरिक को हमारा संविधान उपलब्ध करवाता है। यूपीएससी की गरिमा और उसकी स्वायत्तता पर प्रश्नचिन्ह लगाने का कोई प्रश्न ही नहीं है परंतु यूपीएससी के कर्ता-धर्ताओं को यह याद रखना चाहिए कि यूपीएससी एक संवैधानिक संस्था है और उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी नीतियां ऐसी न हों जो वर्ग, जाति, भाषा, नस्ल या धर्म के आधार पर उम्मीदवारों में भेदभाव करती हों। दुर्भाग्यवश, सीएसएटी का ढांचा इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

यह तथ्य है कि दलित, अल्पसंख्यक व अन्य पिछड़े समुदायों के बहुत कम विद्यार्थी विज्ञान व प्रबंधन संस्थानों में अध्ययनरत् हैं। हमारे देश में शिक्षा की गुणवत्ता समान नहीं है और मैट्रिकुलेशन स्तर के गणित और अंग्रेजी का अर्थ अलग-अलग राज्यों के शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए अलग-अलग हो सकता है। फिर, यह कैसे माना जा सकता है कि किसी प्रतिष्ठित कान्वेंट स्कूल से निकले विद्यार्थी और दूरदराज के किसी गांव के स्कूल में पढ़े दलित, ऐसे प्रश्नपत्र को हल करने में समान रूप से सक्षम होंगे जिसके लिए विशेषीकृत ज्ञान व सटीकता की आवश्यकता हो।

यूपीएससी द्वारा परीक्षा के इस नए ढांचे का पुनरावलोकन करने के लिए नियुक्त निगवेकर कमेटी ने अपनी रपट में यह स्पष्ट कहा है कि सीएसएटी, विद्यार्थियों के एक विशिष्ट समूह को अनुचित लाभ देता है और उसे तुरंत रद्द कर दिया जाना चाहिए। यह दुखद है कि यूपीएससी ने अब तक स्वयं द्वारा नियुक्त कमेटी की रपट पर भी नजर नहीं डाली है।

सुशासन एक चुनावी नारा ही नहीं रहना चाहिए। अपने इस वायदे को पूरा करने के लिए नई सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी नौकरशाही भारत की विविधवर्णिता को प्रतिबिम्बित करे। इसकी शुरुआत सिविल सर्विसेज परीक्षा के स्वरूप में आवश्यक परिवर्तन कर की जा सकती है।

(फारवर्ड प्रेस, सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

दिव्यांशु पटेल

दिव्यांशु पटेल जेएनयू, नई दिल्ली के समाजशास्त्र विभाग में शोधरत हैं

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