बिहार के औरंगाबाद के एक अनुमंडल, दाउदनगर, में मुख्यत: पिछड़ी जाति ‘कसारे’ और ‘पटवा’ की आबादी है। यहाँ कभी घर-घर में कांसे के बर्तन बनाने के लघु उद्योग थे। आज इस शहर की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान है। इसे पिछड़ी जातियों के सांस्कृतिक उन्मेष का शहर कहा जा सकता है।
दाउदनगर बहुजन कलाकारों का शहर है। दरअसल, यह पूरा शहर आश्विन मास की द्वितीया को (प्राय: अक्टूबर में) भांति-भांति के स्वांग रचता है, लावणी और झूमर गीत गाते हुए रात-रात भर झूमता है। इस छोटे से शहर में कलाकारों ने भांति-भांति की कलाएं साधी हैं। पानी पर घंटों सोये रहने की कला या जहरीले बिच्छुओं से डंक मरवाने का करतब। स्वांग रचाते हुए कोई छिन्न मस्तक हो सकता है तो कोई अपने हाथ पाँव को अलग करता हुए दिख सकता है। आश्विन मास के आयोजन की रातों में पूरे शहर में कई लोग अलग-अलग देवी-देवताओं के स्वांग में होते हैं तो कई लोग राजनीतिक व्यंग्य करते हुए अलग-अलग नक़ल-अवतारों में। कई लोग घंटों स्थिर मुद्रा में खड़े या बैठे होते हैं, पलक झपकाए बिना, कहीं बुद्ध बने तो कहीं कृष्ण या काली।
लावणी में सामाजिक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व की गाथाएं गाई जाती हैं, धार्मिक मिथों के अलावा। सोन नदी पर बनी नहर का वर्णन एक लावणी में दर्ज है कि कैसे अंग्रेजों ने जनता के पालन के लिए नहर खुदवाई, नहर की कितनी गहराई, चौड़ाई है और कैसे नहर के लिए अभियंताओं ने नक्शे आदि बनवाये। कला को समर्पित इस शहर में सामुदायिक सौहार्द के कई उदहारण हैं। जीवित पुत्रिका व्रत उर्फ जीतिया के दौरान जहाँ शहर के मुसलमान भी स्वांग रचते हैं, झूमते गाते हैं, वहीं मुसलमानों के त्योहारों में भी हिन्दू कलाकारों को भागीदारी बढ़-चढ़ कर होती है। जिन दिनों हम लोग दाउदनगर पहुंचे उन दिनों मुहर्रम के ताजिये का निर्माण हिन्दू कलाकार शिव कुमार के निर्देशन में हो रहा था। शहर के 8 से 9 ताजियों के खलीफ़ा शिव कुमार की प्रशंसा करते हुए उन्हें सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बताते हैं।
दाउदनगर के वासी इसे वाणभट्ट का भी शहर बताते हैं। ‘कादम्बरी’ के रचनाकार वाणभट्ट को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ में नाट्य विधा में निपुण बताया है। द्विवेदी जी ने अपनी रचना का श्रेय मिस कैथराइन को दिया है, जो 75 वर्ष की अवस्था में भी सोन क्षेत्र में घूम कर वाणभट्ट के सन्दर्भ में सामग्री जुटाती रही थीं। उस सामग्री को उन्होंने द्विवेदी जी को
154 साल पुराना है जिउतिया
किसी भी लोक संस्कृति का प्रारंभ किन लोगों ने कब किया, इस बारे में तथ्यात्मक रूप से बता पाना शायद ही संभव होता है। जिउतिया के मामले में भी ऐसा ही है। लेकिन एक लोकगीत इसके आरंभ के बारे में स्पष्ट संकेत करता है – ‘आश्विन अन्धरिया दूज रहे, संबत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमडी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धन भाग रे जिउतिया..।’ इस गीत के अनुसार, पांच लोगों ने इसे प्रारंभ किया था। इस शुरूआत का कारण प्लेग की महामारी को शांत करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा थी। सामाजिक मान्यता है कि इसी कारण उस समय इलाके में प्लेग का प्रकोप थम गया था।
कौन थे जीमुतवाहन?
दाउदनगर में इस त्योहार के दौरान जिस जीमुतवाहन की आह्वान बहुजन करते हैं वे समुद्र तटीय संयुक्त प्रांत (उडीसा) के प्रतापी राजा थे। उनके पिता का नाम शालीवाहन और माता का नाम शैव्या था। सूर्यवंशीय राजा शालीवाहन ने ही शक संवत चलाया था। इसका प्रयोग आज भी ज्योतिष शास्त्री करते हैं। ईस्वी सन के प्रथम शताब्दी में 78वें वर्ष में वे राजसिंहासन पर बैठे ।
दो जातियों ने दे रखा है ‘संजीवनी’
दाउदनगर में जिउतिया लोक संस्कृति को जीवंत बनाये रखने का श्रेय मुख्य रूप से दो जातियों को जाता है। पटवा या तांती और कांस्यकार या कसेरा। इसके अतिरिक्त, हलवाई जाति के रामबाबू परिवार को भी इसका श्रेय देना होगा। प्राचीन साहित्य में में जिन पांच नामों को इस संस्कृति की स्थापना का श्रेय दिया जाता है वे सभी कांस्यकार जाति के हैं। लेकिन यह समाज भी यह मानता है कि उनके पूर्वजों ने यह संस्कार पटवा समाज से ही सीखा था।
उपेंद्र कश्यप
दिया था। ब्राह्मणवादी व्यवस्था, नाट्यकर्म को प्रतिष्ठा नहीं देती रही है लेकिन जनता के बीच लोकप्रियता के कारण उन्हें ‘भरत मुनि’ के नाट्य शास्त्र को पंचम वेद मानना भी पडा था।
स्वांग रचाता दाऊदनगर तो कई-कई वाणभट्टों का शहर प्रतीत होता है। कला यहां के लोगों के लिए आय का साधन नहीं है, अलग-अलग पेशों से जुड़े दाउदनगर वासी कला के संधान में लगे हैं, क्या डाक्टर, क्या इंजीनियर या प्राध्यापक, सब के सब स्वांग रचाने के पर्व में उल्लासपूर्वक शामिल होते हैं। नक़ल विधा में निपुण और पेशे से डाक्टर विजय कुमार कहते हैं, ‘केंद्र और राज्य सरकार को यहाँ की कला और कलाकारों को संरक्षण देना चाहिए।’ वे साथ ही जोड़ते हैं कि ‘कलाओं को समर्पित टी वी कार्यक्रमों के लिए दाउदनगर एक अलग से विषय हो सकता है।’ काश, उनकी इस मांग पर सरकार और मुख्यमधारा के मीडियाकर्मी ध्यान देते।
(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)
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