अरसद जुबैऱ, रमजान के महीने में रोज़े पर थे। दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में खानपान की व्यवस्था उनकी देख-रेख में चल रही थी। महाराष्ट्र्र के कुछ संसद सदस्य उस सरकारी अतिथिगृह में ठहरे हुए थे और उनमें भाजपा और शिवसेना के 11 सदस्य शामिल थे। ये सभी खानपान की व्यवस्था को लेकर बेहद नाराज थे। अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करने के लिए उन्होंने 17 जुलाई को महाराष्ट्र-स्थित मीडिया संस्थानों के संवाददाताओं को बुलाया। ग्यारह मीडिया संस्थानों के संवाददाता और कैमरा पर्सन निमंत्रण को स्वीकार कर सदन पहुंचे। उन सभी के सामने, शिवसेना के एक सांसद राजन विचारे ने जुबैर के मुंह में जबरन एक रोटी ठूंस दी। इस दृश्य को कैमरे में भी कैद किया गया। लेकिन हैरानी की बात यह है कि पल-पल की खबरें देने वाले मीडिया चैनलों में एक हफ्ते तक यह खबर नहीं आ सकी कि एक शिवसेना सांसद ने मीडिया कर्मियों की मौजूदगी में एक रोजेदार मुसलमान के मुंह में जबरन रोटी ठूंस दी।
हालांकि, मीडिया संस्थानों के जिन मुलाजिमों के सामने यह घटना हुई, उन्होंने उसके बारे में दूसरे मीडिया संस्थानों के अपने साथियों को भी बताया लेकिन किसी ने भी उस खबर को जाहिर नहीं होने दिया। उन लोगों के पास एक तर्क यह था कि घटना न तो उनके सामने हुई थी और ना ही उनके पास उस घटना का कोई सबूत है। 23 जुलाई 2014 को जब अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने घटना का विवरण पहली बार छापा तब घटना के समय मौजूद चैनलवालों ने भी अपनी चमडी बचाने के लिए उसके फुटेज दिखाने शुरू कर दिए। संसद का सत्र चल रहा था और उस समय इस खबर के सार्वजिनक होते ही संसद में भी शोर शराबा हुआ।
इस घटना को लेकर दो प्रश्न विचारणीय हैं। पहला, क्या महाराष्ट्र के संवाददाताओं में धार्मिक व जातीय पूर्वाग्रह अपेक्षाकृत ज्यादा हैं? दूसरा, कि क्या यदि संसदीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के बीच सांठगांठ हो जाए तो बड़ी से बड़ी घटनाएं दबाई जा सकती है?
पहले प्रश्न के उत्तर की खोज करते हुए मुझे एक शोधपत्र मिला। उसे जनसंचार के शोधार्थी दिनेश मुरार ने कड़ी मेहनत से तैयार किया है। उन्होंने महाराष्ट्र के विदर्भ में मीडिया संस्थानों के पत्रकारों के सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, लैंगिग आदि पृष्ठभूमि के तथ्य जमा किए और यह विश्लेषण किया कि पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का असर किस रूप में खबरों पर होता है – कितना, क्या और कैसे छिपाया जाता है और क्या और कैसे बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है। इस अध्ययन में हिंदी भाषा के लोकमत समाचार, दैनिक भास्कर,नवभारत, राष्ट्रप्रकाश, प्रतिदिन, मराठी भाषा के लोकमत, सकाल, लोकसत्ता, देशोन्नती,पुन्यनगरी, लोकशाही वार्ता तथा अंग्रेज़ी भाषा के द इंडियन एक्सप्रेस, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया और द हितवाद को लिया गया है। सर्वे के अनुसार इन संस्थानों के कुल 186 पत्रकारों में 79 प्रतिशत पत्रकार हिंदू , 6 प्रतिशत मुस्लिम, 12 प्रतिशत बौद्ध और 3 प्रतिशत जैन हैं, जबकि सिख, ईसाई या अन्य धर्मों से एक भी पत्रकार नहीं हैं। लेकिन केवल यह आंकड़ा विभिन्न भाषाओं के पत्रों में धार्मिक कट्टरता को नहीं दर्शाता है। उसके लिए आंकड़ों के भीतर जाना होगा।
मुख्य समाचारपत्रों की स्थिति इससे जानी जा सकती है। लोकमत समूह के मराठी दैनिक लोकमत के कुल 47 पत्रकारों में से 79 प्रतिशत पत्रकार हिंदू हैं, 15 प्रतिशत बौद्ध और 6 प्रतिशत जैन धर्मावलम्बी हैं। लोकमत में मुस्लिम, सिख और ईसाई समुदाय से एक भी पत्रकार नहीं हैं। मराठी दैनिक देशोन्नती में 84 प्रतिशत पत्रकार हिंदू, 3 प्रतिशत मुस्लिम और 13 प्रतिशत बौद्ध हैं। मराठी दैनिक लोकसत्ता में सभी पत्रकार हिंदू हैं। गौर करें, मराठी पत्रों में दूसरे धर्मों के सदस्यों की संख्या पर।
लोकमत समूह के हिंदी दैनिक लोकमत समाचार में 68 प्रतिशत पत्रकार हिंदू, 20 प्रतिशत पत्रकार मुसलमान और 12 प्रतिशत पत्रकार बौद्ध हैं। हिंदी समाचारपत्र दैनिक भास्कर में 94 प्रतिशत पत्रकार हिंदू, 3 प्रतिशत पत्रकार मुस्लिम और 3 प्रतिशत पत्रकार बौद्ध हैं। लोकमत, देशोन्नती, लोकसत्ता, लोकमत समाचार, दैनिक भास्कर, नवभारत और द हितवाद के विदर्भ में सभी संपादकीय प्रमुख हिंदू धर्मावलम्बी हैं। विदर्भ के 77 प्रतिशत पत्रकारों ने माना कि धार्मिक पृष्ठभूमि का प्रभाव सम्बंधित पत्रकार के दृष्टिकोण व कार्य पर पड़ता है ।
ये आंकड़े बताते हैं कि मीडिया संस्थानों में खास जातियों व धर्म का वर्चस्व है। लोकसत्ता में तो एक भी गैर-हिन्दू मुलाजिम नहीं हैं। वह महाराष्ट्र में ‘मुख्य धारा का सशक्त प्रतिनिधि’ है।
आखिरकार महाराष्ट्र सदन में पांच समाचारपत्रों और छह चैनलों की आंखों की मौजूदगी के बावजूद जुबैर के मुंह में जबरन रोटी ठूंसने की घटना तत्काल क्यों बाहर नहीं आ पाई? क्या उनके धार्मिक पूर्वाग्रह सक्रिय नहीं थे? धर्म की बात छोड़ भी दी जाए तो खबर के मानवीय प्रश्न को उठाने से संवाददाताओं को कौन सी चीज रोक रही थी? कहने के लिए वे सभी एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने वाले मीडिया संस्थानों के संवाददाता थे लेकिन यह कैसी प्रतिस्पर्धा है कि उनके बीच किसी सच को छिपाने के लिए एका हो जाता है? यह तो महज एक उदाहरण है। दरअसल, प्रतिस्पर्धा के यहाँ अपने अलग अर्थ हैं। एक खास तरह के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विचारों पर सहमति के साथ भी प्रतिस्पर्धा का एक कोना तैयार किया जा सकता है।
दूसरे प्रश्न के उत्तर की खोज करते हुए संसदीय लोकतंत्र की उस अवधारणा पर सवाल करने का मन करता है जिसमें कहा जाता है कि इसके चारों स्तंभ एक दूसरे पर निगरानी रखने और संतुलन बनाने के लिए जरूरी होते हैं। यदि ये चारों स्तंभ लोकतंत्र के प्रति संवेदनशील नहीं हों और उनके बीच एका हो जाए तो उस स्थिति में क्या किया जा सकता है? 1990 के बाद खासतौर से संसदीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के बीच लोकतंत्र को बचाने के लिए प्रतिस्पर्धा की बजाय लोकतंत्र को नई आर्थिक व्यवस्था के लिए खतरा समझने में एका की स्थिति दिखाई देती है।
महाराष्ट्र सदन की घटना केवल धार्मिक पूर्वाग्रह की वजह से किसी समाचार को दबाने का उदाहरण नहीं हैं बल्कि वह एक बड़े स्तर पर सांठगांठ की एक झलक पेश करता है। इंडियन एक्सप्रेस ने तो 24 जुलाई को यह तक लिखा कि सासंद को जबरन मुंह में रोटी ठूंसने के लिए मीडिया वालों ने भी उकसाया। इस तरह मीडियाकर्मी केवल मूकदर्शक ही नहीं रहे, बल्कि घटना के वह सक्रिय पात्र भी बने। उन्होंने घटना में हिस्सेदारी की। इस प्रवृति को भी इस रूप में समझना चाहिए कि नई व्यवस्था में मीडियाकर्मी पर घटनाओं को रचने में हिस्सेदारी करने का भी दबाव है। जाहिर तौर पर वह केवल किसी खबर को सार्वजनिक करने का पात्र ही नहीं रह गया है
(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)
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