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सत्य की लड़ाई के लिए शक्ति

जब भी हम वह करने की, जिसे हम सही समझते हैं, कीमत अदा करते हैं तब हम आंतरिक रूप से शक्तिशाली बनते हैं। जब हम छोटे-छोटे अन्यायों के विरूद्ध लडऩा सीख जाते हैं तब हम बड़े अखाड़ों में लडऩे की सोच सकते हैं

प्रिय दादू,

आपका पिछला पत्र पाने के बाद, मैंने इस विषय पर गहनता से विचार किया कि अन्याय से लडऩे के लिए जीवन में अपनी स्थिति का सही निर्धारण मैं कैसे करूं (या मैं कैसे अपने लिए सही मंच को पहचानूं और उस पर चढूं)।

आपने अपने पत्र में यह भी लिखा था कि, ”अन्याय के विरूद्ध लडऩे का साहस, उपलब्ध मंच की शक्ति या मजबूती पर निर्भर नहीं करता और ना ही हमारे गठजोड़ों पर। अंतत:, लडऩे की ताकत आंतरिक या परालौकिक स्त्रोतों से मिलती है”। कृपया समझाएं।

सप्रेम,
आकांक्षा

प्रिय आकांक्षा,

शोध बताते हैं कि हमारे आत्मविश्वास का स्त्रोत होता है वह प्रेम, जो हमें परिवार व मित्रों से बचपन में मिलता है (कुछ शोधों से तो यह पता चला है कि यह प्रक्रिया हमारे छ: वर्ष के होने से पहले ही पूरी हो जाती है!)।

दूसरी ओर, मैं और तुम, ऐसे कई लोगों को जानते हैं जिन्होंने अपने कठिनाइयों-भरे बचपन से जन्मी प्रतिकूलताओं पर विजय प्राप्त की। हम ऐसे लोगों को भी जानते हैं जिनका बचपन एकदम आदर्श परिस्थितियों में बीता परंतु अपने वयस्क जीवन में वे कुछ विशेष हासिल नहीं कर सके।

दूसरे शब्दों में, जीवन की अच्छी शुरूआत निश्चित रूप से हमारी मदद करती है परंतु कोई भी व्यक्ति, अपने बचपन की प्रतिकूलताओं पर विजय प्राप्त कर सकता है और जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की राह चुन सकता है। इससे दो प्रश्न उपजते हैं 1) सर्वश्रेष्ठ से क्या आशय है? और 2) चुनने का क्या मतलब है?

मैं पहले प्रश्न से शुरूआत करता हूं। कुछ व्यक्ति केवल अपना जीवन काटते हैं। परंतु हम में से हर एक, समय के उचित उपयोग और समुचित प्रयास से, क्या सही और सत्य है, उसके अपने मानक निर्धारित कर सकते हैं। कहा जाता है कि जिन खोजा तिन पाइयां। अगर हम किसी दरवाजे पर खटखटाएंगे, तो वह दरवाजा हमारे लिए खुलेगा। परंतु हमें उस दरवाजे को ढूंढने के लिए कोशिश करनी होती है। हमें यह पता लगाना होता है कि वह दरवाजा कहां है और कभी-कभी उसे पाने के लिए अपने जीवन की दिशा भी बदलनी पड़ती है।

सत्य की खोज के लिए यह आवश्यक है कि हम दूसरों के कार्यों और इरादों का मूल्यांकन उदारतापूर्वक करें परंतु हमारे अपने कार्यों और इरादों के आंकलन में कड़ाई बरतें। इसका अर्थ यह है कि हम हर उस घटना को याद रखें, जब हमसे कोई भूल हुई हो या हम असफल हुए हों और हम इस बात के लिए तैयार रहें कि हम उसके लिए ईश्वर और अन्यों से क्षमाप्रार्थना करेंगे ताकि हम अपने जीवन के उस विशिष्ट पक्ष में बदलाव ला सकें। हम दूसरों को माफ करना तभी सीख सकते हैं जब हम मन की गहराई से ईश्वर की क्षमाशीलता को समझें। हम उनसे भी प्यार कर सकते हैं, जिन्हें हम नहीं चाहते या जो हमसे घृणा करते हैं। लेकिन यह तभी हो सकता है जब हम ईश्वर के अपने प्रति उस प्रेम का अनुभव करें, जिसके हम कतई लायक नहीं हैं। सत्य केवल बातें करने से नहीं मिलता और ना ही ध्यान करने से। बल्कि सत्य से हमारा साक्षात्कार तब होता है जब हम वही करते हैं, जिसे हम सही, उचित और उपयुक्त समझते हैं।

यहां प्रश्न चुनने का है और हम किसी भी उम्र में सही राह चुनने का निर्णय कर सकते हैं।

जब भी हम वह करने की, जिसे हम सही समझते हैं, कीमत अदा करते हैं तब हम आंतरिक रूप से शक्तिशाली बनते हैं। जब हम छोटे-छोटे अन्यायों के विरूद्ध लडऩा सीख जाते हैं तब हम बड़े अखाड़ों में लडऩे की सोच सकते हैं।

साधनों की शुद्धता

कुछ लोगों की यह गलत धारणा होती है कि चूंकि वे अन्याय के विरूद्ध लड़ रहे हैं, इसलिए उन्हें अन्यायपूर्ण साधन अपनाने का अधिकार है। जो भी ऐसा करता है, वह जल्दी ही इतिहास से अदृश्य हो जाता है। 18वीं सदी की फ्रांसीसी क्रांति, 20वीं सदी के शुरूआत में हुई रूसी क्रांति और 20वीं सदी के मध्य में हुई चीनी क्रांति का यही हश्र हुआ। मैं जानता हूं कि तुम्हें ऐसे कई उदाहरण, हाल में भारत में हुए कुछ आंदोलनों से मिल सकते हैं।

इसलिए, अगर हमें अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना है तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम केवल और केवल न्यायपूर्ण तरीकों का इस्तेमाल करें। साधनों की पवित्रता, साध्य की पवित्रता जितनी ही महत्वपूर्ण है।

जब हम किसी भी अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते हैं तो हमें उन बाहरी लोगों के आक्रमण का मुकाबला तो करना ही होता है, जिनके बारे में हमें पहले से ही मालूम होता है कि वे हमारा विरोध करेंगे। परंतु अक्सर हमारे साथ वे लोग भी विश्वासघात करते हैं जिन्हें हम अपना मित्र या साथी समझते हैं। यह एक तरह की कसौटी होती है। क्या हम अपनों के विश्वासघात के बाद भी न्यायपूर्ण बने रहते हैं या अहं, भय, घृणा व कटुता जैसी भावनाओं या व्यवहार के भंवरजाल में फंस जाते हैं। सत्य और न्याय की हमारी तलाश को ईश्वरीय मदद मिलती है और यही कारण है कि अन्याय के विरूद्ध संघर्ष के दौरान हम अपनी मानवता और दिमागी संतुलन को बनाए रखते हैं और मजाक करने और सहने की हमारी क्षमता का हृास नहीं होता।

हमें लडऩे की ताकत कहां से मिलती है? क्या उस अन्याय को बार-बार याद करने से, जिसके खिलाफ हम लड़ रहे हैं? या हमारे शत्रुओं व हमारे साथ विश्वासघात करने वालों के बारे में सोचकर? हमें ताकत मिलती है यह याद रखकर कि क्या सही, न्यायपूर्ण, उचित और बेहतर है। हमें ताकत मिलती है ईश्वर, सत्य और सही पर निगाहें जमाए रखकर।

इसका एक तरीका तो यह है कि हम उन लोगों की जीवन गाथाएं पढ़ें जिन्होंने अन्याय के विरूद्ध संघर्ष किया। चाहे वे ईसामसीह हों, महात्मा फुले, गांधीजी, आंबेडकर, सावित्री बाई या पंडित रमा बाई।

इस कठिन राह पर चलते जाने की शक्ति प्राप्त करने का एक दूसरा तरीका है उन लोगों से जुडऩा जो कि हमारी तरह अन्याय के विरूद्ध न्यायपूर्ण और मानवीय तरीकों से लडऩा चाहते हैं। ऐसे लोगों को ढूंढ निकालना कठिन होता है क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम होती है। परंतु ऐसा भी नहीं है कि ऐसे लोग होते ही नहीं हैं। हम अगर उन्हें ढूंढेंगे तो वे हमें अवश्य मिलेंगे।

परंतु यदि तुम्हें तुम्हारी राह का कोई साथी न मिले (जैसा कि मेरे साथ अक्सर होता है) तो तुम गा सकती हो-और यह सत्य, प्रेम और सही रास्ते से अपना जुड़ाव बनाए रखने का एक बेहतरीन तरीका है। उदाहरणार्थ, मैं जब 16 वर्ष का था, तभी से मैं रवीन्द्रनाथ टैगोर की इस बांग्ला रचना से अत्यंत प्रेरित हूं, जिसकी प्रथम पंक्ति हैं :

”जोड़ी तोड़ डांक शुमय क्यो न आशय, तोभय एकला चोलो चोलो रे”।
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला रे

यदि कोई भी ना बोले, ओरे ओरे, ओ अभागे, कोई भी ना बोले
यदि सभी मुख मोड़ रहें, सब डरा करें
त्व डरे बिना ओ तू मुक्तकंठ अपनी बात बोल अकेला रे

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
यदि लौट सब चलें, ओरे, ओ अभागे, लौट सब चले
यदि रात गहरी चलती कोई गौर ना करे
त्व पथ के कांटे ओ तू लहू लोहित चरण तल चल अकेला रे

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे

यदि दिया ना जले ओरे ओ रे ओ अभागे दिया ना जले
यदि बदरी आंधी रात में द्वार बंद सब करे
तब वज्र शिखा से तू हृदय पंजर जला और जल अकेला रे
ओ तू हृदय पंजर जला और जल अकेला रे

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे।

यह न भूलना कि मैंने अब तक जो कुछ कहा है वह तुम्हारे मूल प्रश्न का उत्तर देने की तैयारी भर है।
तुम्हारे प्रश्न पर मैं अगले पत्र में चर्चा करूंगा।

सप्रेम

दादू

(फारवर्ड प्रेस के दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

दादू

''दादू'' एक भारतीय चाचा हैं, जिन्‍होंने भारत और विदेश में शैक्षणिक, व्‍यावसायिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में निवास और कार्य किया है। वे विस्‍तृत सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक मुद्दों पर आपके प्रश्‍नों का स्‍वागत करते हैं

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