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चुनाव सुधारों की अविलंब आवश्यकता

भारत सरकार द्वारा नियुक्त विधि आयोग की 1999 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जर्मन मॉडल पर चुनाव कराये जाने की जरूरत है। ज्ञात हो कि यूरोप के 28 में से 21 देशों में किसी न किसी रूप में आनुपातिक चुनाव प्रणाली है। पड़ोसी देश नेपाल में आनुपातिक चुनाव प्रणाली से ही चुनाव हो रहे हैं

आजादी के बाद हमने संसदीय प्रजातंत्र के ब्रिटिश वेस्टमिन्स्टर माडल को अपनाया, जिसके तहत जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और फिर निर्वाचित प्रतिनिधि, सरकार का गठन करते हैं। इन दिनों चुनाव के तरीके पर बहस चल रही है। सवाल यह है कि चुनाव-प्रक्रिया कैसी हो? किस प्रक्रिया से लोगों की भागीदारी बढ़ेगी।

संविधान सभा में भी इस विषय पर चर्चा हुई थी। कई सदस्यों का मत था कि हमें आनुपातिक चुनाव प्रणाली अपनानी चाहिए परन्तु उस वक्त देश की साक्षरता दर मात्र 14 प्रतिशत थी इसलिए इस प्रणाली को उपयुक्त नहीं समझा गया।

भारत की चुनावी व्यवस्था समानुपातिक नहीं है। इसे बहुमत आधारित चुनाव प्रणाली कहा जाता है, जो व्यवहार में अल्पमत आधारित है। पार्टियों द्वारा प्राप्त वोट और उन्हें मिली सीटों में कोई तालमेल नहीं दिखता। कभी वोट ज्यादा और सीटें कम तो कभी वोट कम और सीटें ज्यादा। कोई भी उम्मीदवार 20-30 प्रतिशत वोट पाकर निर्वाचित हो सकता है, जबकि स्पष्टत: उसे 70-80 प्रतिशत लोगों का समर्थन प्राप्त नहीं होता है। यह स्थिति देश में जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है। कोई भी पार्टी किसी खास वर्ग या जाति या क्षेत्र के निवासियों को गोलबंद कर सत्तासीन हो सकती है।

सरकार के गठन के लिए आधे से अधिक सीटों की जरूरत होती है परंतु एक व्यक्ति के चुनाव जीतने के लिए यह अनिवार्य शर्त नहीं है. 2009 में हुए आम चुनाव में 543 में 145 सदस्यों को 20 प्रतिशत से भी कम वोट मिले थे। केवल 5 सदस्यों को 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले। नागालैंड सिक्किम और सरकार के गठन के लिए आधे से अधिक सीटों की जरूरत होती है परंतु एक व्यक्ति के चुनाव जीतने के लिए यह अनिवार्य शर्त नहीं है. 2009 में हुए आम चुनाव में 543 में 145 सदस्यों को 20 प्रतिशत से भी कम वोट मिले थे। केवल 5 सदस्यों को 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले। नागालैंड सिक्किम और पश्चिम बंगाल से एक-एक उम्मीदवारों और त्रिपुरा से 2 उमीदवारों को 50 प्रतिशत से अधिक मत मिले थे।

उदाहरण स्वरूप 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव को देखा जा सकता है। कुल 52.71 प्रतिशत मतदान हुआ। भारतीय जनता पार्टी को 16.46 प्रतिशत वोट के साथ 91 सीटें मिलीं, राष्ट्रीय जनता दल को 18.84 प्रतिशत वोट मिले, जो उसे कुल 22 सीट ही दिलवा सके। जनता दल यू को महज 22.61 प्रतिशत वोटों ने 115 सीटें दिलवा दीं। साफ़ है कि भाजपा से ज्यादा वोट राजद को मिले परंतु सीटें भाजपा को ज्यादा मिलीं। अगर हमारे देश में आनुपातिक चुनाव प्रणाली होती तो भाजपा को 40-41 तथा राजद को 48-49 सीटें प्राप्त होतीं।

16वींं लोकसभा के चुनाव में ‘मोदी लहर’ की बात करें। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 26 प्रतिशत वोट पाकर विपक्ष में बैठना पड़ा था और कांग्रेस महज 28.5 प्रतिशत वोट पाकर सत्तासीन हो गई थी। इस बार, तथाकथित मोदी लहर में भाजपा ने 31 प्रतिशत वोट प्राप्त किये और उसे सीटें मिलीं 282, जिसका प्रतिशत बनाता है 51.9। 31 प्रतिशत वोट का मतलब है कि 69 प्रतिशत लोगों ने भाजपा को वोट नहीं दिया। अनुपातिक प्रणाली के अनुसार 31 प्रतिशत वोट, 170-171 सीटों में ही तब्दील हो पाते यानी बहुमत से 100 सीटें कम – आनुपातिक प्रणाली में कांग्रेस पार्टी को प्राप्त 19 प्रतिशत वोट के साथ 104-105 सीटें प्राप्त होतीं न कि मात्र 44।

सबसे बुरा हाल उत्तर प्रदेश का रहा, जहां बहुजन समाज पार्टी को 4.1 प्रतिशत वोट तो मिले परन्तु एक भी सीट नहीं मिली, जबकि उससे कम, 3.8 प्रतिशत वोट, पाकर समाजवादी पार्टी ने 5 सीटें हासिल कर लीं। वर्तमान चुनावी व्यवस्था से हाशिए पर पड़े लोगों, विशेषकर दलित, आदिवासी और मुसलमानों, को नुकसान उठाना पड़ रहा है। 2014 के चुनाव में उत्तरप्रदेश के 18 प्रतिशत मुसलमानों को प्रतिनिधित्व ही नहीं मिला। 80 में से एक भी सीट उन्हें हासिल नहीं हुई, जबकि उनकी आबादी के लिहाज से उन्हें 13-14 सीटें निश्चित रूप मिलनी चाहिए थीं।
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। समान भागीदारी तथा समावेशी विकास पर यह गंभीर सवाल खडी कर रही है। सवाल आरक्षण का नहीं है। सवाल भागीदारी का है। एक बड़ी आबादी प्रतिनिधित्व-विहीन हो रही है।

संसद में आनुपातिक चुनाव प्रणाली के बारे में कई बार चर्चा हुई परन्तु सत्तासीन वर्ग हमेशा उसे लागू करने से इन्कार करता रहा। भारत में चुनाव सुधार अभियान (सेरी) के संस्थापक, लेखक और चिंतक एम.सी. राज कहते हैं कि आनुपातिक चुनाव प्रणाली में ही वोटों की सही कीमत लगेगी तथा भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा। इस प्रणाली से ही समाज के दबे कुचले वर्गों एवं अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व मिल पाएगा।

भारत सरकार द्वारा नियुक्त विधि आयोग की 1999 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जर्मन मॉडल पर चुनाव कराये जाने की जरूरत है। ज्ञात हो कि यूरोप के 28 में से 21 देशों में किसी न किसी रूप में आनुपातिक चुनाव प्रणाली है। पड़ोसी देश नेपाल में आनुपातिक चुनाव प्रणाली से ही चुनाव हो रहे हैं।

सन 1960 तक विधानसभा तथा लोकसभा की कुछ सीटें बहुसदस्यीय थीं। डॉ0 बी0 आर0 अम्बेडकर प्रारंभ से आनुपातिक प्रणाली के पक्ष में थे। उन्होंने 1919 में साउथ बोरो कमीशन के सामने भी इसकी वकालत की थी। वे बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के चुनाव के खिलाफ थे।

वास्तव में अब समय आ चुका है कि चुनाव सुधार पर व्यापक बहस चलाई जाए, गुजरात में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव में मतदान अनिवार्य किये जाने पर बहस चल रही है, क्यों न हम चुनाव सुधार की ओर भी मुखातिब हों।

(फारवर्ड प्रेस के  दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

रामदेव विश्वबंधु

रामदेव विश्वबंधु दलित-आदिवासी मुद्दों पर सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से सामाजिक जीवन की शुरुआत करने वाले रामदेव विश्वबंधु नेशनल फाउन्डेशन ऑफ़ इंडिया के मीडिया फेलो रहे हैं। इनकी एक किताब डा.आंबेडकर और अन्य पिछड़ा वर्ग मूल निवासी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है।

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