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आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 अब भी छाया है हमारे दिमागों पर

सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ, उस समय लगभग 128 जनजातियों, जिनकी आबादी भारत की कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत थी, पर 'अपराधी' का लेबल चस्पा था। सन् 1952 में इन 'आपराधिक जनजातियों' को विमुक्त जाति का नाम दिया गया

भारतीय जनजातियों का 19वीं सदी में किया गया वर्गीकरण आज भी उनसे संबंधित सामाजिक-राजनैतिक नीतियों को आकार दे रहा है। भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य ने, कानून और व्यवस्था कायम करने के अपने उपक्रम में, कुछ जनजातियों, समूहों, जातियों और व्यक्तियों पर ‘अपराधी’ का लेबल चस्पा कर दिया। इसे औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए कानून, अपराध संबंधी आंकड़ों और तत्समय नवविकसित नस्लीय विज्ञान का सहारा लिया गया।

सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ, उस समय लगभग 128 जनजातियों, जिनकी आबादी भारत की कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत थी, पर ‘अपराधी’ का लेबल चस्पा था। सन् 1952 में इन ‘आपराधिक जनजातियों’ को विमुक्त जाति का नाम दिया गया। आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 में कई बार परिवर्तन हुए हैं, परंतु उसके मूल तत्वों में कोई बदलाव नहीं आया है। यद्यपि इन जनजातियों का ‘कानूनी दर्जा’ बदल दिया गया है परंतु उनका ‘सामाजिक दर्जा’ आज भी वही है।

औपनिवेशिक प्राच्यवाद
भारत में नस्ल, जाति और जनजाति व प्राच्यवाद, औपनिवेशिक शासन और उससे जुड़ी नस्लीय विचारधारा- ये सब आपस में इस तरह गुथे हुए हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल है। अंग्रेजों ने कानून और व्यवस्था की अपनी अवधारणा देश पर लादने के लिए और औपनिवेशिक शासकों व शासितों के बीच परिभाष्य और विश्वसनीय रिश्ते स्थापित करने के लिए, यहां के समाज के विभिन्न नृजाति विज्ञान अध्ययनों के आधार पर कुछ सूत्र बनाए। उस समय अंग्रेजों की मान्यता थी कि भारत के लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए यहां की प्राचीन शासन प्रणाली से ब्रिटिश शासन को जोडऩा होगा ताकि लोगों को यह महसूस हो कि देश के शासन में एक निरंतरता बनी हुई है। जे. डंकन व एम. डेरिट जैसे तत्कालीन अंग्रेज विद्वानों ने परंपरागत ब्राह्मणवादी ढांचे को हिंदू विधि का मानक मान लिया। तत्कालीन प्राच्य विज्ञानियों ने ‘मनुस्मृति’, जातिगत ऊंच-नीच की अवधारणा और उससे जुड़ी हुई धर्म की व्याख्या को, औपनिवेशिक काल के पूर्व के भारत के कानून को समझने की कुंजी समझ लिया। ऊंची जातियों के लोग आपराधिक न्याय प्रणाली में उच्च पदों पर बैठा दिए गए। अछूतों, आपराधिक जातियों और जनजातियों को चातुर्य वर्ण पदानुक्रम से बाहर रखा गया। प्राक्-औपनिवेशिक भारत में अपराधों व उनके लिए सजा का निर्धारण, सामाजिक नियमों, संबंधित व्यक्ति की जाति और उसकी प्रतिष्ठा के आधार पर किया जाता था।

अपराधी की बुनावट
शुरूआती दौर के औपनिवेशिक अधिकारी समाज को ऊँची जातियों के चश्मे से देखते थे और उसी के आधार पर ‘कानून व्यवस्था’ का ढांचा खड़ा किया गया। जातिगत पहचान को सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्रों में तो महत्व दिया ही गया, आपराधिक प्रवृत्ति का निर्धारण करने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाने लगा। ‘आपराधिक प्रवृत्ति’ के ‘वैज्ञानिक’ निर्धारण को आधार बनाकर, कई जनजातियों के सदस्यों को गिरफ्तार किया जाने लगा और उन्हें जबरदस्ती दूसरे स्थानों पर बसने के लिए मजबूर भी किया गया। अनेक औपनिवेशिक विद्वानों ने उत्तर भारत में नस्ल, जाति और जनजाति के विमर्श के आधार पर आपराधिक समुदायों और समूहों को परिभाषित किया, विशेषकर ‘ठगी’ और ‘सांसी’ के संदर्भ में। ऐसा मान लिया गया कि कुछ समूहों और जातियों के लोग जन्मजात आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं। इस तरह के नामकरणों और कुछ समूहों को दूसरों से अलग बताकर, औपनिवेशिक शासन को मजबूती दी गई और इसका इस्तेमाल स्थानीय विद्रोहों को अवैध करार देने के लिए किया गया। 18वीं सदी के बाद से, ब्रिटिश अधिकारियों ने ‘अपराधियों’ को उनके प्रकार के आधार पर वर्गीकृत करने के प्रयास भी किए। अंग्रेजों की दृष्टि में भारत में अपराधों का चरित्र जातीय था। चोरी के दौरान हिंसा होती थी-जिसे डकैती कहा जाता था। यह अपराध केवल पुरूषों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता था। इन समूहों में नातेदारियां स्थापित हो जाती थीं और कुछ लोग इन समूहों के नेता व संरक्षक बन जाते थे। भारत के मूल निवासियों का वर्गीकरण और कुछ तबकों को अपराधी और डकैत घोषित करना, औपनिवेशिक राज्य द्वारा नस्लीय श्रेष्ठता स्थापित करने और अपनी पश्चिमी पहचान को विलग रखने के प्रयास का हिस्सा था। इस तरह के वर्गीकरण का एक लाभ यह था कि ऊँची जातियां स्वयं को अपने औपनिवेशिक शासकों से जोड़कर देखने लगती थीं और ‘अपराधी’ जनजातियों और जातियों को आधुनिकता व प्रगति से दूर रखना आसान हो जाता था।

स्वतंत्र भारत में, अज्ञात कारणों से, जनजाति शब्द का यही लक्ष्यार्थ स्वीकार कर लिया गया और इसे भारतीय संदर्भों में समाज में अलगाव पैदा करने के लिए किया जाने लगा। इस सोच ने शनै:-शनै: प्रशासनिक व शैक्षणिक क्षेत्रों में गहरी जड़ें जमा लीं। सन् 1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम व ‘पहचान स्थापित करने और लोगों के संबंध में सूचनाएं एकत्रित करने के अन्य तरीकों’ जैसे जनगणना व अंगुलियों के निशान लेने की तकनीक का इस्तेमाल दमन करने, राजनैतिक गतिविधियों पर नजर रखने और घुमन्तु जातियों का एक स्थान पर बसाने के लिए किया जाने लगा। सन् 1871 के अधिनियम का घोषित लक्ष्य समाज के वंशानुगत आपराधिक तबकों का दमन करना था (राधाकृष्ण: 2001)। ‘अनुसंधान के कुछ साधनों’ जैसे जनगणनाओं, राजपत्रों व सर्वेक्षणों और मानवविज्ञान व मानवमिति जैसे औपनिवेशिक विषयों के आधार पर देश को ‘लड़ाकू नस्लों’ और ‘आपराधिक जातियों’ में बांट दिया गया। 19वीं सदी के अंत तक जुर्म, जाति और जनगणना, ब्रिटिश भारत को परिभाषित करने वाले तत्व बन गए थे। संतति विज्ञान और सामाजिक डार्विनवाद पर आधारित आपराधिक जनजाति अधिनियम यह मानकर चलता है कि आपराधिक प्रवृत्ति वंशानुगत होती है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती है।

स्वतंत्रता के बाद
स्वतंत्र भारत में आधिकारिक दृष्टि से उन समुदायों को जनजाति माना जाता है जो संविधान में दी गई अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल हैं। यद्यपि संविधान में अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित नहीं किया गया है और न ही इनकी पहचान करने के कोई मापदंड दिए गए हैं परंतु सामान्यत: यह माना जाता है कि जनजातियां वे आदिम समुदाय हैं जो भौगोलिक रूप से अलग-थलग हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति है और जो अन्य समुदायों से बहुत कम संपर्क-संबंध रखते हैं। वे तकनीकी दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं, उनमें विशेषीकरण व धन संग्रह करने की प्रवृत्ति का अभाव होता है, भूमि व उत्पादन के अन्य साधनों पर समुदाय का मालिकाना हक होता है व आर्थिक ऊँचनीच नहीं होती। आदिवासी सामाजिक-राजनैतिक अर्थव्यवस्था को आर्थिक विकास का बहुत निचला स्तर माना जाता है। इसके अलावा, यह भी माना जाता है कि आदिवासी समुदाय केवल ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं। यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा आदिवासी समुदायों की बेहतरी के लिए बनाए गए अधिकांश कानून जिनमें ‘पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996’ व ‘अनुसूचित जनजाति तथा पारंपरिक वनवासी (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम 2006’ केवल ग्रामीण क्षेत्रों में लागू होते हैं।

राज्य का जनजातियों के प्रति दृष्टिकोण आज भी 19वीं सदी के भारत से प्रभावित है। यह आवश्यक है कि इन समुदायों के बीच काम कर उन्हें संगठित किया जाए ताकि वे उन सामाजिक और आर्थिक कष्टों से मुक्ति पा सकें जो वे भोग रहे हैं।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

प्रोग्या घटक

डॉ. प्रोग्या घटक भुवनेश्वर में सहायक प्राध्यापक हैं

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