भारत में ‘अस्वच्छ’ शुष्क शौचालयों का निर्माण और उनकी सफाई के लिए लोगों की नियुक्ति सन् 1993 में ही गैरकानूनी घोषित कर दी गयी थी परंतु जमीनी हकीकत यह है कि हैला और वाल्मीकि समुदाय के लोग – अधिकांशत: महिलाएं , यह काम आज भी कर रहे हैं। प्रतिबंध के बाद भी शुष्क शौचालय बनते रहे और ये अभिशप्त महिलाएं और पुरूष सिर पर मैला ढोने के घृणित काम में लगे रहे। फिर, सितंबर 2013 में संसद ने हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम पारित किया, जिसके तहत सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह इन कर्मियों की पहचान करे और उनके पुनर्वास के लिए उन्हें जीविका का वैकल्पिक साधन उपलब्ध करवाए। दुर्भाग्यवश, इसके चलते सरकार उन लोगों का पुनर्वसन करने की जि़म्मेदारी से मुक्त हो गयी है, जिन्होंने 6 दिसम्बर 2013 को इस अधिनियम के लागू होने के पहले इस कार्य से मुक्ति पा ली थी।
यह अधिनियम देवास, मध्यप्रदेश की स्वयंसेवी संस्था ‘जन साहस’ द्वारा निकाली गई ‘मैला मुक्ति यात्रा 2012-13’ का परिणाम था। इस यात्रा ने भारत के शहरी श्रेष्ठी वर्ग का ध्यान मैला उठाने वालों की दुर्दशा की ओर खींचा और यात्रा जहाँ-जहाँ से गुजरी, वहां के ऐसे कर्मियों की मुक्ति संभव हो सकी। मुक्त कर्मियों की संख्या लगभग 5,000 है। यह उन कर्मियों का एक छोटा-सा हिस्सा मात्र हैं, जो देश के लगभग 8,00,000 शुष्क शौचालयों की सफाई करते हैं। इसके अलावा भारतीय रेलवे मैले से सनी पटरियों को भी मनुष्यों से साफ़ करवाती है। जैसा कि ये छायाचित्र (साभार : जन साहस ) बताते हैं, यह काम अब भी जारी है। परंतु इस घिनौनी परंपरा के खिलाफ संघर्ष शुरू हो गया है।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )
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