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सामाजिक न्याय की परंपरा से जुडि़ए नीतीश कुमार

मैं एक बार फिर आपसे अनुरोध करुंगा कि आप अपनी राजनीति पर पुनर्विचार कीजिए और हो सके तो जीतनराम मांझी से अपने संबंध दुरूस्त कीजिए। इसमें आपको हेठी नहीं होनी चाहिए। आप यदि जाति के हिसाब से अपने को बड़ा मानते हैं तब तो मुझे कुछ नहीं कहना

खुला पत्र

हिंदी के चर्चित लेखक व राजनीतिकर्मी प्रेमकुमार मणि ने यह पत्र पिछले महीने लिखा था, उस समय दलित समुदाय से आने वाले बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और पिछड़े समुदाय से आने वाले नीतीश कुमार के बीच राजनैतिक घमासान चल रहा था। जीतनराम मांझी ने 20 फरवरी को अंतत: मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। मणि का चाहना था कि बिहार की राजनीति में दलित-पिछडों का अलगाव नहीं हो, जैसा कि पिछले वर्षों में उत्तर प्रदेश में हो गया है। खबर है कि उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों प्रयास किये जा रहे हैं कि पिछडों और दलितों को एक राजनीतिक मंच पर लाया जाए। पूरे देश की यह एक सामाजिक-राजनीतिक जरूरत है। बिहार में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उससे आशंका बनती है कि वहां दलितों और पिछड़ों के राजनीतिक सोच में अलगाव होगा। नि:संदेह इसका फायदा उन ताकतों को मिलेगा, जिन्हें हम सामंती/ दक्षिणपंथी कहते रहे हैं। श्री मणि ने इस पत्र में इच्छा व्यक्त की है कि बिहार की राजनीति से देश को एक नया संदेश मिले। इसलिए उन्होंने नीतीश कुमार से आग्रह किया था कि वे श्री मांझी से बात करें और पूरे देश को एक नया राजनीतिक संदेश दें। मांझी के मुख्यमंत्रीत्व का भले ही पटाक्षेप हो गया हो, लेकिन सवाल अभी मरे नहीं हैं। हम समझते हैं कि बिहार की राजनीति को समझने के लिए यह पत्र अभी भी प्रासंगिक है। – संपादक

पटना
16.02.2015

आदरणीय भाई नीतीश जी,

जीतनराम मांझी की राजनीतिक स्थितियों पर विचार करते हुए एक बार फिर आपको पत्र लिखने के लिए मजबूर हुआ हूं, क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों के जनक आप ही हैं। संभव है कि मेरी बातें आपको अच्छी न लगें, लेकिन मामला बिहार के भविष्य का है, मेरा व्यक्तिगत नहीं, इसलिए आपकी नाराजगी मोल लेकर भी मैं कुछ कहना चाहूंगा।

nitish-kumar-height-weight-age-wife-affairs-moreपिछले वर्ष मई में, लोकसभा के चुनावी नतीजों से खीजकर अथवा निराशा और शर्मिंदगी से उबरने के लिए आपने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था, तब मुझे लगा था कि आपके चरित्र में लोकतांत्रिक मूल्यों की वापसी हो रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों का तकाजा तो यह था कि आपकी पार्टी उसी वक्त राज्यपाल से विधानसभा भंग कर चुनाव करवाने की सिफारिश करती, क्योंकि यह विधानसभा तो 16 जून 2013 को ही नैतिक दृष्टि से जनादेश खो चुकी थी, जब आपने एनडीए गठबंधन से अपनी पार्टी को अलग कर लिया था। तब से अवसरवादी जोड़तोड़ से येनकेन प्रकारेण सरकार चल रही है। मेरे हिसाब से एक अनैतिक सरकार। 2010 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को जनता का समर्थन मिला था, न कि अकेले जदयू या भाजपा को। 2014 के लोकसभा चुनाव में आपको बुरी तरह पराजित कर जनता ने साफ तौर पर बता दिया था कि आपको क्या करना चाहिए। वह आपके आत्ममंथन का समय होना चाहिए था। तब आपके पराभव का कारण संभवत: आपका अहंकार था। आपको इससेे मुक्त होने की जरूरत थी। आपमें वह संकल्प शक्ति है, जिसके बूते आप यह सब कर सकते थे। लेकिन आप ने चालाकी की। त्याग का स्वांग किया और जैसा कि आप प्राय: करते रहे हैं, अपने चाटुकारों की मदद से अपनी पार्टी के विधायक दल का नया नेता मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त कर लिया। (जैसा कि हमारी पौराणिकता में रावण ने हर तरह की शक्ति और अधिकार स्वयं में समाहित कर लिए थे।) फिर, आप अचानक दलित उद्धारक के रूप में प्रकट हुए और सबको आश्चर्य मेें डालते हुए, महादलित परिवार से आए जीतनराम मांझी को नया मुख्ममंत्री घोषित कर दिया। दरअसल आप सोनिया गांधी की राजनैतिक पैरोडी कर रहे थे। 2004 में उन्होंने इसी तरह सबको आश्चर्य में डालते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया था। उस वक्त आपने मुझसे कहा था कि यह मनुवादी ब्राहणवादी मानसिकता ही है जिसमें कोई दाता और कोई याचक बनता है। इसे लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।

हां, 2004 की पैरोडी जब आपने 2014 में की, तब उसमें सामाजिक न्याय का छौंक लगाया और दलितोद्धारक की रामनामी ओढ़कर आत्मुग्ध हो गए। जीतनराम मांझी के घर में आपकी तस्वीर लगी। और जैसा कि मांझी ने ही अपने एक इंटरव्यू में कहा कि आप उनके घर के भगवान बन गए। आपने एक हनुमान का सृजन कर खुद को राम बना लिया। आप दाता हो गए और मांझी याचक। राम-हनुमान की यह जोड़ी कुछ समय तक खूब चली। इसी के बूते विधानसभा के उपचुनाव में आपने एक हद तक सफलता हासिल की। आपकी राजनीति एक बार फिर उठ खड़ी हुई।

लेकिन छह-आठ महीने में ही क्या हो गया कि आपका हनुमान आपकी ही आँखों की किरकिरी बन गया? मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से मेरी भी बातें हुई हैं और यह जानकर मैं हैरान रह गया कि उनके मन में आज भी आपके प्रति इज्जत का भाव है। वह आपकी कद्र करते हैं। लेकिन आपके लोगों से वह परेशान थे। मैं उनकी परेशानी समझ सकता हूं, क्योंकि आपके लोगों को लंबे समय से मैं भी जानता हूं।

नीतीश जी, 15 वर्ष पहले भी दुखी होकर मैंने एक बार आपको लिखा था कि बिहार को सुधारने के पहले आप अपनी चौकड़ी सुधारिए। एक बार फिर आग्रहपूर्वक कहना चाहूंगा कि आप चिंतन कीजिए, मनन कीजिए और स्वयं ही परीक्षण कीजिए कि आपके इर्द-गिर्द कैसे लोग हैं। जैसा कि मैं देख रहा हूं आप भ्रष्ट और चापलूस लोगों से बुरी तरह घिरे हुए हैं। आपकी हर सांस पर उनका पहरा है। स्पष्टवादी मित्रों से आप एक-एक कर दूर होते गए। और आज आप जिस रूप में हैं, उस पर मुझे केवल दया आ सकती है।

आपको अव्वल चाहिए तो यह था कि आप अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर कामराज योजना की तरह अपनी पार्टी और सरकार का इस्तीफा हासिल करते और फिर दोनों का पुनर्गठन करते। इसकी जगह जीतनराम मांझी पर आपने अपना पूरा का पूरा मंत्रिमंडल ज्यों का त्यों थोप दिया। वह मंत्रिमंडल आपका बनाया हुआ था। मांझी को अपने मंत्री चुनने की आजादी भी नहीं मिली। देश में कभी गुलाम वंश राज करता था, आपने लोकतांत्रिक राजनीति के बीच गुलाम मुख्यमंत्री की परंपरा स्थापित की। यह तो लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की हद है।

नीतीश जी, शायद आपको मालूम नहीं हो कि आपका साइनबोर्ड लगाकर आपके सहयोगियों ने बिहार को किस हद तक लूटा और बर्बाद किया है। पद की लिप्सा छोडकर आप इन चीजों पर चाक-चौबंद होते तो मुझे ख़ुशी होती। हम लोगों ने कभी तय किया था कि बिहार की राजनीतिक संस्कृति को नया स्वरूप देंगे। आप ने तो सधे अंदाज में अपनी पार्टी को अपराधियों का अभयारण्य बना दिया और बिहार की राजनीति को बुरी तरह विकृत कर दिया। आप तो इतने मायोपिक हो गए हैं कि अपनी विकृति भी नहीं देख-समझ सकते। कामना करता हूं कि आप दृष्टि की दक्षता यथाशीघ्र प्राप्त करें।

मैं एक बार फिर आपसे अनुरोध करुंगा कि आप अपनी राजनीति पर पुनर्विचार कीजिए और हो सके तो जीतनराम मांझी से अपने संबंध दुरूस्त कीजिए। इसमें आपको हेठी नहीं होनी चाहिए। आप यदि जाति के हिसाब से अपने को बड़ा मानते हैं तब तो मुझे कुछ नहीं कहना, लेकिन उम्र और अनभुव में मांझी आपसे बड़े हैं। वह उस समाज, परिवार से आते हैं जो सदियों से आखिरी पायदान पर रहा है। वह आज जहां जिस स्थान पर हैं, वह आपके कारण हैं। आप उनके जनक हैं। अपनी सृष्टि अपनी रचना को आप स्वयं नष्ट करने पर क्यों तुले हुए हैं? एक समय हम लोगों ने सामाजिक न्याय का ख्वाब साथ-साथ देखा था। हम लोग, निश्चित ही आप भी, रामायण महाकाव्य के पौराणिक पुरुष राम की, शम्बूक वध के लिए तीखी आलोचना करते रहे हैं। राम के चरित्र पर यह एक बदनुमा दाग है। लोहियाजी कहते थे राम ने यह काम वाशिष्ठी परंपरा के लोगों के कहने पर किया था। आपके इर्द-गिर्द भी वाशिष्ठी संप्रदाय मजबूत हो गया है और उनके इशारे पर आप शंंबूक तो शंबूक, हनुमान का वध करने के लिए तलवार उठा चुके हैं। यह पाप होगा, परम पाप। आपके सलाहकारों की कोशिश आपको दलितहंता बनाने की है। कुछ लोग कह रहे हैं कि आपके इस दलित विरोध के पीछे बेलछी के दलित दहन की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि है। प्यारे और अग्रज मित्र के रूप में बार-बार अनुरोध करूंगा कि कुटिल जातिवादी तत्वों के बहकावे में न आएं और भूमि सेना, रणवीर सेना की परंपरा से जुडऩे के बजाय सामाजिक न्याय और समाजवाद की महान मानवीय परंपरा से खुद को जोडऩे की कोशिश करें। कर्पूरी ठाकुर और अन्य समाजवादियों ने बहुत मुश्किल से दलित पिछड़ों की राजनीतिक एकता बनाई थी। इसे आप तार-तार करने पर आमादा हैं। इसका प्रतिफलन ठीक नहीं होगा। गांव-गांव में गृहयुद्ध की स्थिति बनेगी। उच्च-पिछड़ा और दलित आमने-सामने आ जाएंगे। इसमें किसकी राजनीतिक रोटी सिकेंगी, आप अच्छी तरह समझते होंगे।

मैं तो आस्तिक नहीं हूं, लेकिन आप तो हैं। एक जनश्रुति है कि आज तक कोई भक्त भगवान तक नहीं पहुंचा, हमेशा भगवान ही भक्त तक पहुंचता है। इस कठिन समय में आपको उदारता दिखलानी चाहिए। श्री मांझी से आपको खुद बात करनी चाहिए। यह सब आपके लिए ही कह रहा हूं, आपकी मुक्ति के लिए। आप विद्रोह कीजिए। स्वयं को वाशिष्ठी परंपरा के घेरे से मुक्त कीजिए। अपनी परंपरा में लौटिए। यह ज्यादा महत्वपूर्ण बात होगी।
आपका,

प्रेमकुमार मणि

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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