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दलित पत्रकार होने का अर्थ

'दलित दस्तक'  के संपादक बता रहे हैं कि वे पत्रकारिता में कैसे आये और उन्होंने मीडिया की मुख्यधारा को अलविदा क्यों कहा

अशोक दास ने जब मीडिया का जातिवादी रवैया देखा तो उन्होंने अपनी पत्रिका निकालने ठान ली। वे अव ‘दलित दस्तक’ के सम्पादक-प्रकाशक हैं। दलित मुद्दों और अभिव्यक्ति को संबोधित करती इस पत्रिका ने हिंदी पट्टी में अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है। अशोक दास, दलितमत डाट काम नामक वेब पोर्टल का भी संचालन करते हैं। यह लेख अशोक दास से भडास4मीडिया के संपादक-संचालक यशवंत सिंह की बातचीत पर आधारित है।

मैं बिहार के गोपालगंज जिले का रहने वाला हूं। आज जब सोचता हूं कि पत्रकारिता में कैसे चला आया तो लगता है कि हमने तो बस चलने की ठानी थी, रास्ते अपने आप बनते चले गए। पत्रकारिता में आना महज एक इत्तेफाक था। छोटे शहर में रहने का एक नुकसान यह होता है कि हमारे सपने भी छोटे हो जाते हैं क्योंकि हमारे परिवार, मित्रों के बीच बड़े सपनों की बात ही नहीं होती। सच कहूं तो मुझे एक बात शुरू से ही पता थी और वह यह कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी है। नौकरी करनी पड़ती है, जब इसकी समझ आयी तो मैंने मन ही मन तीन बातें तय कीं। एक, बंधी-बंधाई तनख्वाह वाली नौकरी नहीं करनी। दो, सुबह दस से शाम पांच बजे वाली नौकरी नहीं करनी और तीन, कोई ऐसा काम करना है, जिसमें मुझमें जितनी क्षमता हो, मैं उतना ऊंचा उड़ सकूं। मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए थी जिसमें मैं सुबह दस बजे टिफिन लेकर ऑफिस के लिए निकलूं, बीवी बालकनी में खड़ी होकर बाय-बाय करे और शाम को खाना खाकर सो जाऊं। एक बेचैनी-सी हमेशा बनी रहती थी। मैंने कभी किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं किया। हां, लिखना बहुत पसंद था।

ashok dasअखबार से लेकर किताबों तक – जो मिल जाये उसे पढऩे का शौक बचपन से था। मेरे जिले में जितनी भी किताबें उपलब्ध थी, सब पढ़ गया। एक दिन, ऐसे ही अखबार उलटते-पलटते हुए, आईआईएमसी के विज्ञापन पर नजऱ पड़ी। मैं साधारण ग्रेजुएट था और वहां दाखिले के लिए यही चाहिए था। दिल्ली में बड़े भाई राजकुमार रहते थे। उन्होंने फार्म भेज दिया और मैंने उसे भर दिया। तब तक मुझे भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) की मीडिया के क्षेत्र में धाक और रुतबे के बारे में कुछ पता नहीं था। पटना में लिखित परीक्षा देने के लिए बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में उम्मीदवार परीक्षा केंद्र आये। लगा कि यार कुछ तो है इस संस्थान में। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू के लिए दिल्ली से बुलावा आया। मुझे विश्वविद्यालय में पढऩे का कभी मौका नहीं मिला था इसलिए आईआईएमसी सपने जैसा लगा। इंटरव्यू में पास नहीं हो पाया लेकिन यह तय कर लिया कि अब तो यहीं पढऩा है। हां, लिखने का शौक शुरु से था। डायरी के पन्नों में अपनी भड़ास निकाला करता था। यह कुछ वैसा ही था जैसे कोई गायक बाथरूम में गाकर अपना शौक पूरा करता है। फिर, 2005-06 में आईआईएमसी में मेरा दाखिला हो गया। यह मेरे पत्रकार बनने की शुरुआत थी।

ऐसा नहीं है कि आईआईएमसी में दलितों के साथ भेदभाव नहीं था। मुझे वहां भी जातीय दुराग्रह का सामना करना पड़ा। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म तरीके का भेदभाव था जो तब तो मुझे समझ में नहीं आया लेकिन आज समझ पाता हूं। मसलन, मैंने महसूस किया कि कुछ ‘खास’ लोगों को आगे बढ़ाया जाता था। यहां विचारधारा को लेकर भी गोलबंदी थी – वामपंथी, दक्षिणपंथी आदि। तब तक तो मुझे विचारधारा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। सब वहीं भेदभाव झेलते हुए सीखा। मेरे साथ जो हुआ, उसे ‘माइक्रो डिसक्रिमिनेशन’ कहा जा सकता है। जाति ने ‘अमर उजाला’ समेत कई अन्य मीडिया हाउसों में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। आईआईएमसी से निकलने के बाद मेरी सबसे पहली नौकरी ‘लोकमत’ ग्रुप में लगी। मेरी नियुक्ति महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुई। जब तक मैं वहां रहा, मैंने झूठ बोलकर जाति के मसले से बचने की कोशिश की। एक डर, एक आशंका हमेशा बनी रहती थी। मुझे वहां घुटन होने लगी। लगता था कि कुछ बाहर आना चाहता है लेकिन आ नहीं पा रहा है। फिर मुझे ‘अमर उजाला’ (अलीगढ़, यूपी) में बतौर रिपोर्टर नौकरी मिल गई। यहां जाति का सवाल फिर मेरे सामने था। इस बार मैंने जवाबी हमला कर दिया। बिना किसी लाग-लपेट के बता दिया कि मैं दलित हूं। मुझे याद है कि हम दस नए लड़के एक साथ बैठे थे। सब सन्न रह गए। सब अलीगढ के लिए नए थे। एक-दूसरे के साथ शिफ्ट हो रहे थे लेकिन मुझे साथ रखने के लिए कोई तैयार नहीं था। बाद में संपादक के हस्तक्षेप के बाद मैं भी उनमें से एक के साथ रह पाया। लेकिन वहां कुछ दिन रहने के बाद मैं श्रीनारायण मिश्रा के साथ रहने लगा। वे उम्र में मुझसे बड़े थे और हम दोनों के बीच एक स्नेह का रिश्ता बन गया था। लोगों ने उसकी भी खूब खिंचाई की लेकिन उसने मेरा पक्ष लिया। वहां मृत्युंजय भैया ने भी बहुत साथ दिया। हां, जब पदोन्नति की बारी आई तो प्रधान संपादक शशि शेखर द्वारा नियुक्ति के समय किये गए वायदे के बावजूद, संपादक गीतेश्वर सिंह ने मेरा प्रमोशन नहीं किया। मुझे साथ रखने की सजा श्रीनारायण मिश्रा को भी मिली। उसका भी प्रमोशन नहीं हुआ, जबकि वो सभी से सीनियर और ज्यादा योग्य था। यह खुला भेदभाव था। दलित होने के कारण मेरे साथ और एक दलित का साथ देने के कारण श्रीनारायण मिश्रा के साथ। लेकिन मैं वहां कभी दबा नहीं। प्रमोशन नहीं होने के सवाल पर मैंने अपने संपादक की शिकायत दिल्ली में प्रधान संपादक तक से की और सबको सीधी चुनौती दी।

बाद में मैंने ‘अमर उजाला’ एक गुस्से, एक आवेग और एक वृहद सोच के कारण छोड़ दिया। मेरे दिल में गुस्सा था। यह प्रतिक्रिया थी, उस प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदभाव की, जिसका सामना मुझे वर्षों से करना पड़ रहा था। मैं अंदर ही अंदर सुलग रहा था। एक रात जब मैं कमरे पर आया तो टीवी पर राज ठाकरे के गुंडों द्वारा बिहार और यूपी के लोगों के साथ मारपीट की खबर चल रही थी। वे दृश्य परेशान करने वाले थे। मैंने विरोध करने की ठानी। मुझे नहीं पता था कि इससे कुछ होगा भी या नहीं लेकिन मैं चुप नहीं बैठना चाहता था। मैं विरोध करने के लिए, चिल्लाने के लिए, छटपटा रहा था और इस घटना ने मुझे मौका दे दिया। मैं अपने संपादक के पास गया और मुझे यह करना है, कहकर छुट्टी मांगी। उन्होंने कहा कि इस्तीफा दे दो। मैंने कहा कि आपको निकालना हो तो निकाल देना, मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। फिर मैं अलीगढ़ के ही चार अन्य छात्रों के साथ देश के तमाम विश्वविद्यालयों में राज ठाकरे के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाने के लिए निकल पड़ा। इसमें प्रेमपाल और अमित चौधरी ने काफी सहयोग किया। अलीगढ़, लखनऊ, बनारस (बीएचयू), गोरखपुर, पटना, मेरठ, दिल्ली (दिल्ली विवि, जेएनयू) आदि जगहों पर बीस दिनों तक घूमने के बाद दिल्ली में तकरीबन पांच सौ लड़कों के साथ रेलवे स्टेशन से जंतर-मंतर तक मार्च निकाल कर राष्ट्रपति और चुनाव आयोग को ज्ञापन सौंपा।

मेरे हस्ताक्षर अभियान को भड़ास4मीडिया डाट काम नाम की वेबसाइट ने कवर किया। तब तक मेरा आपसे (यशवंत सिंह) से परिचय हो गया था। मेरा हौसला बढ़ाने वालों में आप भी थे। इस अभियान के बाद मैंने अलीगढ़ छोड़ दिया और दिल्ली आ गया। तब तक नौकरी से मन हट गया था, कुछ अलग करने की चाह जाग गई थी। मैं भड़ास4मीडिया डाट काम के साथ काम करने लगा। दलितमत डाट कॉम का विचार वहीं से निकल कर आया। इस दौरान देवप्रताप सिंह, जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार और बौद्ध चिंतक आनंद जी के संपर्क में आया। इनसे मुलाकातों ने मेरी जिंदगी को दिशा दी। इस तरह ‘दलित दस्तक’ अस्तित्व में आयी।

हमारी वेबसाइट 12 देशों में पढ़ी जाती है। पत्रिका भी निरंतर आगे बढ़ रही है। हमें 30 महीने हो चुके हैं और हम दस हजार प्रतियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। हमारा प्रसार देश के 15 राज्यों के 135 जिलों तक हो चुका है। यह सामूहिक प्रयास है और हमारी पूरी टीम ईमानदारी से लगी है। हमारे लिए यह एक मिशन है। बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर, जोतिबा फुले और बुद्ध सहित तमाम बहुजन नायकों की विचारधारा को लोगों के बीच पहुंचाना और उन्हें दलित समाज के वर्तमान हालात के बारे में बताना ही हमारा मकसद है।

फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

अशोक दास

अशोक दास ‘दलित दस्तक' के सम्पादक-प्रकाशक हैं

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