अगर समाज में कानून और न्याय के रखवालों में टकराव हो तो क्या जाति और धर्म की बेडिय़ों से मुक्ति संभव है? धर्म और जाति की सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक गतिकी में जल्द कोई परिवर्तन आने की सम्भावना नहीं है, क्योंकि पुराने घिसेपिटे कानूनों, न्यायपालिका द्वारा उनकी गलत व्याख्या और राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव, अर्थात वे कारक जो उसे ऑक्सीजन देते हैं, आज भी अपरिवर्तित हैं।
ऐसा लगता है कि आरक्षण की व्यवस्था, समाज, न्यायपालिका और राजनेताओं द्वारा रचा गया एक गहरा षडय़ंत्र है, जिसका उद्देश्य है दलितों को हिन्दू बने रहने के लिए मजबूर करना और यह सुनिश्चित करना कि वे अपनी हिन्दू पहचान न त्यागें। दलित वर्तमान में भारत की आबादी का लगभग 25 प्रतिशत हैं और उन्हें सत्ताधारी दलों और उच्च जातियों के हिन्दुओं द्वारा धर्म और जाति की जंजीरों से मुक्त नहीं होने दिया जा रहा है। देश के विभिन्न हिस्सों में भगवा झंडे लहराते हुए घरवापसी के नारे लगाये जा रहे हैं, जिनके कारण हिंसा भड़क रही है।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां भारत की जनसँख्या का क्रमश: 16.6 और 8.6 प्रतिशत हैं। संविधान के अनुच्छेद 366 (24) व 341 (1) के अनुसार ‘अनुसूचित जातियों से ऐसी जातियां, मूलवंश या जनजातियां अथवा ऐसी जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भाग या उनके यूथ अभिप्रेत हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 341 के अधीन अनुसूचित जातियां समझा जाएगा।’
संविधान (अनूसूचित जाति) आदेश,1950 के अनुसार ‘कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो हिन्दू (सिक्ख या बौद्ध) धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में आस्था रखता हो, को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जायेगा। इस आदेश में संसद द्वारा 1956 में संशोधन कर दलित सिक्ख व दलित बौद्धों को भी इसमें शामिल कर दिया गया।
यह साफ़ है कि इस आदेश के तहत अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण केवल हिन्दुओं (सिक्ख या बौद्ध दलितों सहित) को उपलब्ध है, ईसाई या मुसलमान दलितों या किसी अन्य धर्मं के दलितों को नहीं। इसका अर्थ यह है कि अनुसूचित जाति का हिन्दू केवल तब तक ही आरक्षण का लाभ ले सकता है, जब तक कि वह हिन्दू बना रहे। अगर वह अपना धर्म परिवर्तित कर लेता है, तो वह आरक्षण का पात्र नहीं रहेगा। परन्तु यदि कोई उच्च जाति की हिन्दू महिला किसी दलित से विवाह करती है या कोई दलित,उच्च जाति के लड़के को गोद लेता है, तो वे आरक्षण के प्रयोजन के लिए अनुसूचित जाति के सदस्य नहीं माने जायेंगे।
स्पष्त:, हमारे संविधान में अनुसूचित जाति की परिभाषा केवल और केवल धर्म पर आधारित है। इसलिए इस्लाम ईसाई व अन्य धर्म मानने वाले इससे बाहर हैं। यद्यपि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है और संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है परंतु यही अनुच्छेद यह भी कहता है कि ‘इस अनुच्छेद की कोई बात, राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। आखिर उन दलितों को, जो हिन्दू नहीं हैं वरन् इसाई, मुसलमान या जैन हैं, आगे बढऩे के इस मौके से वंचित क्यों किया जा रहा है ? यह आश्चर्यजनक है कि अन्य सभी संदर्भों में हिन्दू विधि में हिन्दुओं में सिक्ख, बौद्ध और जैन शामिल माने जाते हैं परंतु 1950 के आदेश में, जैनियों को हिन्दुओं की परिभाषा में शामिल नहीं किया गया है और इसका कारण यह बताया गया है कि उनमें जातिप्रथा नहीं है।
‘समानता’ की उस मूल अवधारणा का क्या हुआ जो ‘विधि के समक्ष समता और विधि का समान संरक्षण’ देने की बात करती है और यह कहती है कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति के लिए सभी नागरिकों को समान अवसर उपलब्ध होंगे। इन अधिकारों की गारंटी, भारत के संविधान में दी गई है। आखिर संविधान के ऐसे प्रावधान, जो किसी अनुच्छेद के अपवादों का वर्णन करते हैं, संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में दी गई समानता की अवधारणा से अधिक महत्वपूर्ण कैसे माने जा सकते हैं?
इस संबंध में सच्चर समिति की रपट के बारे में हमारा क्या रुख हो, जिसके अनुसार मुसलमान भारतीय समाज के आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक दृष्टि से सबसे पिछड़े हुए तबके हैं। न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट
(2007) का क्या हो, जो अनुसूचित जाति की परिभाषा को धर्म से विलग करने की बात कहती है और जिसकी यह सिफारिश है कि अनुसूचित जाति की परिभाषा को भी अनुसूचित जनजातियों की परिभाषा की तरह धर्म-निरपेक्ष बनाया जाए।
इस संबंध में संसद में कई सदस्यों ने समय-समय पर अशासकीय विधेयक प्रस्तुत किए हैं, परंतु इनमें से एक भी पारित नहीं हो सका। सरकार ने 1996 में संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश (संशोधनद्ध विधेयक) का मसौदा तैयार किया था परंतु राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों की सरकारों, केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग व अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोगों और गोपाल सिंह समिति (1983) की सिफारिशों के बीच तालमेल न बैठने से यह विधेयक संसद में प्रस्तुत नहीं किया जा सका।
संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 को उच्चतम न्यायालय में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक स्वतंत्रता व समानता के अधिकार के उल्लंघन के आधार पर कई याचिकाओं द्वारा चुनौती दी गई है परंतु इन पर अंतिम निर्णय अभी तक नहीं आया है। इस आदेश को चुनौती देने का एक आधार यह है कि ईसाई बनने के बाद भी अनुसूचित जातियों के सदस्यों को अमानवीय व निकृष्ट कार्य करने पर मजबूर किया जाता है, उन्हें सामाजिक जीवन में भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है और यह भेदभाव कब्रिस्तान तक जारी रहता है।
यह विडंबनापूर्ण है कि यद्यपि जाति-आधारित हिंसा और अत्याचार किसी एक विशिष्ट धर्म के मानने वालों के विरूद्ध नहीं किए जाते हैं परंतु अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 व नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम 1955 उन दलितों को सुरक्षा नहीं देते जो हिन्दू (जिनमें सिक्ख और बौद्ध शामिल हैं) के अलावा किसी और धर्म में आस्था रखते हों। इसके अतिरिक्त, विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अनुसार, अगर किसी हिन्दू (बौद्ध, सिक्ख या जैन सहित) परिवार का कोई सदस्य किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेता है, जो हिन्दू (बौद्ध, सिक्ख या जैन सहित) धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में आस्था रखता हो, तो उसके अपने परिवार से सभी संबंध स्वमेव समाप्त हो जाते हैं। एक तरह से यह परिवार के सदस्यों के बीच दीवारें खड़ी करता है और यह संदेश देता है कि हम तुम्हारे गैर-हिन्दू पति या पत्नि को अपने परिवार में शामिल नहीं करेंगे। अगर परिवार की कोई संयुक्त पारिवारिक संपत्ति है तो उसमें अपना हिस्सा लो और चलते बनो।
एक अन्य मुद्दा यह है कि ‘हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरणपोषण अधिनियम, 1956 के अनुसार, हिन्दू केवल किसी हिन्दू बच्चे को ही गोद ले सकते हैं। इस समस्या को और बढ़ाता है हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, जो यह कहता है कि अगर किसी व्यक्ति का पति या पत्नि दूसरा धर्म अपना ले तो यह उसके लिए तलाक पाने का समुचित आधार होगा। यह हमारा सौभाग्य ही है कि हिन्दू विधि में इस तरह के प्रावधानों और पूर्वाग्रहों और खाप पंचायतों व सामाजिक दबावों के बावजूद भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश बना हुआ है।
जब वे उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश थेए, उस समय न्यायमूर्तिगण अशोक भान और मार्कंडेय काटजू ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘जाति प्रथा इस देश के लिए एक अभिशाप है और यह जितनी जल्दी नष्ट हो उतना बेहतर है। तथ्य यह है कि वह हमें एक ऐसे समय में विभाजित कर रही है, जब हमें देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए एक होना चाहिए। इसलिए अंतरजातीय विवाह राष्ट्र हित में हैं क्योंकि वे जातिप्रथा को नष्ट करने में मदद करेंगेÓ (लता सिंह विरूद्ध उत्तरप्रदेश शासन, एआईआर 2006 एससी 2522)। दूसरी ओर, पर्सनल लॉ की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ‘जातिप्रथा, भारतीयों की मूल मानसिकता का हिस्सा है। यदि कोई कानून न लागू होता हो तो अंतरजातीय विवाहों के मामले में कोई व्यक्ति अपने पिता की जाति का उत्तराधिकारी होता है न कि अपनी मां की जाति का’ (2003 एआईआर एससीडब्लू 5149 चरण 27)।
उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एचके सेमा व डा. एआर लक्षमणन ने अर्जन कुमार बनाम यूओआई प्रकरण में कहा कि ‘किसी आदिवासी महिला के अगड़ी जाति (कायस्थ) के गैर-आदिवासी पुरूष से विवाह से उत्पन्न संतानें, अनुसूचित जनजाति के दर्जे का दावा नहीं कर सकतीं (2006 एआईआर 2006 एससी 1177)। भारत में बच्चे अपने पिता की जाति के उत्तराधिकारी होते हैं, अपनी मां की नहीं। ऐसे में किसी अविवाहित मां की संतान की जाति क्या होगी, यदि वह अपने पति का नाम नहीं जानती? महिलाओं के मामले में विवाह के पहले उसकी वही जाति होती है, जो उसके पिता की है और विवाह के पश्चात वह पति की जाति की हो जाती है। मूलत: किसी व्यक्ति की जाति और धर्म उसके पिता की जाति और धर्म पर निर्भर करता है। कोई व्यक्ति अपना धर्म तो बदल सकता है परंतु अपनी जाति नहीं। अगर हमारी न्यायपालिका लैंगिक न्याय करने में ही सक्षम नहीं है तो सामाजिक न्याय कैसे होगा?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये मुद्दे सनातन नहीं हैं और ऐतिहासिक परिवर्तनों के साथ गुलामी की बेडिय़ां गायब हो जाएंगी। दलित हमेशा समाज के सबसे निचले पायदान पर नहीं रहेंगे। जातिप्रथा को नष्ट कर अछूत प्रथा का उन्मूलन भले ही एक सुदूर स्वप्न बना रहे परंतु शिक्षा और सामाजिक जागृति से निश्चित रूप से नीची जातियों के समूहों का सशक्तिकरण होगा और वे धार्मिक और राजनैतिक सत्ता में बराबरी का हिस्सा मांगेगे। एक विडम्बना यह भी है कि हाल में जब कुछ राज्यों में दलितों ने राजनैतिक सत्ता हासिल की तब उनके समुदाय के सदस्यों व विशेषकर महिलाओ पर अत्याचार बढ़े। यह अत्यंत दुख की बात है कि दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों ने इन लोगों को सुरक्षा और न्याय उपलब्ध करवाने के लिए कुछ नहीं किया। सबसे गरीब लोगों की आवाज अक्सर गुम हो जाती है। नेताओं को इतनी फुर्सत ही नहीं रहती कि वे अपने दलित भाईयों और बहनों के दुखों का तथ्यों और आंकड़ों के साथ वर्णन करें।
फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2015 अंक में प्रकाशित
हमैं भी हमारा आरछण (हक) चाहिये ?
सरकार हमने बी.जे.पी.की बनायी लेकिन आरछण अब तक नहीं मिला !
लेकिन ऐसा क्यों मोदी सरकार?
धरनिर्पेक्षता उस देश के धर्म के कमजोर होने का प्रमाण है कोई भी शक्तिशाली राष्ट्र में धर्म निरपेक्षता नही होता पंथ निरपेक्षता हो सकता है जाति निरपेक्षता हो सकता है हमारे देश का कानून मुस्लिमों और अंग्रेजो के दबाव में बना है
एक तो मराठाओंको आरक्षन दों नहीं तो सब का बंद कर दों|
“एक मराठा लाख मराठा”
विश्व पाटील
मराठी
माणूस
युवा ग्रप,धाराशिव
Bhai arakchan chahiye to nagar palika me bharti hona pdega or jhadu lagana pdega or wo sabhi kam karna pdege jo sc. St karte he….. Are u ready…. ####” ” ‘?
क्या जाति बदली जा सकती है
एक माँ के दो पुत्रो को एक दुध और दूसरे को विष दिया जाता है
मै आरक्षण
Dalito ka aarakshan samapt nahi karna nahi to bharat me ek toophan aa jayega(aandolan).Aur iske karan hone bali ghatnaon ko koi nahi rok payega.Aur iska jimmedar Bharat sarkar hogi.JAI BHEEM
KMJORON KEE MADAD KARNA GALAT HAY KYA ?
Promotion in reservation was not passed by central govt.
Jab tak india ke sabhi private college or schools sarkari nahi hoti amir ya garib ke bache ek schools mai nahi padte to arakshan nahi khatm hoga kyuki jab take saman shiksha nahi to competition saman kaise dege ek sarkari schools me bache ek CBSE schools se bache se takkar kaise lenge,adi asp ek manaw hai to soche ,sawayam ke liye to janwar bhi sochte hai (sarkar agar aise karti hai to Sabko ko phayda hoga kyuki sabka paisa bachega or bachache ko bhi saman shiksha mileage tab mera India pargati karega)
Comment Text*जो जाति सम्पन्न हो गई उसको Reserve kota se bahar kiya जाय
मैं अमित सिंह राज्पूत मैं आरक्षण को समर्थन करता हूँ और मै नहीं चाहत कि विचारों गारिबो को उन्कि नीच जाती कि सजा मीले
वो गारिब जिन्को हम उछे जात वाले हमेशा से सताते आये हैं अगर आज उने सरकार द्वारा जीने का थोडा हक मिला है तो मेरे हिसाब से वो हक उनसे वापस नहीं चीनन चाहिये
जय हिंद जय भारत
Muslims ko aarksad Nahi milega
संविधान की मूल अवधारणा के अनुसार “समानता का अधिकार” भारत में अब तक क्यों नहीं लागू किया गया। हमारे भारत में इसके विपरीत जातिगत भेदभाव या जातिगत आरक्षण की दीवार बना दी गयी। यह “समानता के अधिकार” का उल्लंघन नहीं तो और क्या है।
यदि हमारी भारत सरकार ईमानदारी से किसी दबे, कुचले, गरीब, जनता का उत्थान चाहती ही है/ और चाहिए भी तो वह जातिगत या धार्मिक आरक्षण न दे करके वरन् “आर्थिक-सामाजिक, स्वास्थ्य और शैक्षणिक” रूप से मदद् करे तो इसमें किसी को कोई आपत्ति न होगी / नहीं होनी चाहिए। परन्तु हमारे भारत सरकार या अन्य महापुरुषों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इसमें व्यक्ति की विशेषता (क्वालिटी) व उसकी योग्यता के साथ समझौता नहीं करना चाहिए। इसी में हमारे देश का विकास निहित व संभव है क्योंकि किसी विद्वान ने सत्य ही कहा है कि स्वस्थ मस्तिष्क/ स्वस्थ विचार ही स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण मे भागीदार हो सकता है।
आपका धन्यवाद् ।
अपने राष्ट्र का एक जिम्मेदार नागरिक
Meri ray me varn vyavstha ke karan shataabdiyon se upje annyay ko aarakshanse ki vyawastha se hi nivaarit karne me sahaayta milegi .Yadi soch me poorvagrahon ka dambh na ho…
मेरे हिसाब से आरक्षण समाप्त होना चाहिए लेकिन उसके पहले जातियों गणना करनी होगी और जनसँख्या के अनुपात में भारत में जो भी धन संपत्ति है उसेबराबर डिस्ट्रीब्यूट करना होगा