अंकिता अग्रवाल, ज्यां द्रेज़ व आशीष गुप्ता जब भी दिल्ली से अपने अकादमिक व अनुसंधान संबंधी कार्यों के सिलसिले में इलाहबाद जाते थे, उन्हें यह देखकर आश्चर्य होता था कि जिन लोगों से वे मिलते थे उनमें से अधिकांश शर्मा, त्रिपाठी या श्रीवास्तव (अधिकतर पुरूष) हुआ करते थे। ब्राह्मण और कायस्थ, उत्तरप्रदेश की आबादी का लगभग 10 प्रतिशत हैं। इसका अर्थ यह है कि राज्य के 90 प्रतिशत लोगों को शक्ति व सत्ता के केन्द्रों में कोई प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। उन्होंने शहर के विभिन्न सार्वजनिक संस्थानों की वेबसाईटों का अध्ययन किया और टेलीफोन डायरेक्ट्रियों व कर्मचारियों की सहायता से ऐसे लोगों के नामों की सूची बनाई, जो इन संस्थानों में प्रभावशाली पदों पर काबिज थे। उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय, भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, प्रेस क्लब और स्वयंसेवी संस्थाओं के ऐसे 1852 लोगों की सूची तैयार की। इन सूचियों की जाति के आधार पर विवेचना करने से पता चला कि इनमें से 75 प्रतिशत उच्च जातियों के और लगभग 50 प्रतिशत ब्राह्मण और कायस्थ थे।
अंकिता अग्रवाल, राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान में शोधार्थी हैं और आशीष गुप्ता, ‘रिसचज़् इंस्टीट्यूट फॉर कम्पेशनेट इकोनामिक्स’ में रिसर्च फेलो हैं। ज्यां द्रेज़ जानेमाने अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ मिलकर कई पुस्तकें लिखी हैं। वे केन्द्र मे यूपीए शासनकाल में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य थे और इलाहबाद के गोविंद वल्लभ पंत समाजविज्ञान संस्थान में अतिथि प्राध्यापक भी रहे हैं। अग्रवाल, देरज़ व गुप्ता के शोध के परिणामों पर आधारित एक लेख, ‘इकोनामिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली’ के सात फरवरी 2015 के अंक में प्रकाशित हुआ है। लेख का शीषज़्क है ‘कॉस्ट एण्ड द पावर एलीट इन इलाहबाद’।
तालिका 1: शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण पदों में ऊँची जातियों का प्रतिशत, इलाहाबाद
समूह | उच्च जातियां | ब्राह्मण और कायस्थ |
अध्यापक संघों के नेता (17) | 100 | 76 |
इलाहाबाद प्रेस क्लब के पदाधिकारी (16) | 100 | 75 |
विज्ञापन एजेसिंयों के मालिक (11) | 91 | 55 |
अस्पतालों के डॉक्टर (99) | 89 | 37 |
बार एसोसिएशन की कार्यकारिणी (28) | 86 | 68 |
प्रमुख प्रकाशक (12) | 83 | 42 |
जीबीपीएसएसआई का शिक्षक संवर्ग (15) | 80 | 60 |
अधिवक्ता संघ की कार्यकारिणी (14) | 79 | 57 |
स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि (30) | 77 | 47 |
लिपिकीय व श्रमिक संवर्गों के संघों के नेता (49) | 76 | 55 |
इलाहबाद विश्वविद्यालय शिक्षक संवर्ग* (112) | 76 | 54 |
सीडीओ व बीडीओ (20) | 75 | 40 |
मीडिया समूहों के संवाददाता (62) | 74 | 53 |
अशोक नगर के निवासी (62) | 74 | 32 |
एयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष (79) | 73 | 44 |
प्रमुख कलाकार (55) | 71 | 47 |
इलाहबाद प्रेस क्लब के सदस्य (104) | 71 | 56 |
पुलिस अधिकारी (जिला व ब्लाक स्तर) (28) | 68 | 39 |
आईआईआईटी इलाहबाद शिक्षक संवर्ग (47) | 68 | 36 |
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश (75) | 68 | 32 |
उच्च न्यायालय के अधिवक्ता * (100) | 67 | 44 |
व्यवसायी संघ (6) | 67 | 0 |
महाविद्यालय प्राचार्य (16) | 56 | 19 |
कनिष्ठ अभियंता, इलाहाबाद नगर निगम(20) | 55 | 30 |
कुल (1,077) | 75 | 46 |
एयू: इलाहबाद विश्वविद्यालय, बीडीओ: विकासखण्ड अधिकारी, सीडीओ: मुख्य विकास अधिकारी, जीबीपीएसएसआई: जीबी पंत समाजविज्ञान संस्थान, आईआईआईटी: भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान।
कोष्ठक में लिखा अंक, समूह के कुल सदस्यों की संख्या है। ‘वे मामले जिनमें समूह का आकार बड़ा होने के कारण केवल नमूने का उपयोग किया गया है। इन मामलों में कोष्ठक में दी गई संख्या, नमूने का आकार है।
लेखकों ने अपने अध्ययन को केवल शक्तिशाली व महत्वपूर्ण पदों तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने मध्यम व नीची श्रेणी के व्यवसायों में रत व्यक्तियों के संबंध में भी इसी तरह के आंकड़े, अनौपचारिक नमूना सवेज़्क्षण के जरिए एकत्रित किए। मध्यम श्रेणी के व्यवसायों में शामिल थे चपरासी, लिपिक व सुरक्षा गार्ड के तौर पर काम करने वाले व्यक्ति जबकि नीची श्रेणी के व्यवसाय करने वालों में रिक्शा चलानेवालों, सफाई कमिज़्यों और मालियों को शामिल किया गया। मध्यम श्रेणी के व्यवसायों, जिन्हें करने के लिए ‘प्राथमिक शिक्षा से ज्यादा किसी विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती’ में भी उच्च जातियों का तुलनात्मक रूप से अधिक प्रतिनिधित्व था। परंतु जहां तक निचली श्रेणी के व्यवसायों का सवाल है, जिनमें से अधिकांश में शारीरिक श्रम करना होता है, ऊँची जातियों का अनुपात बहुत कम था। इन अध्ययनों के नतीजे विभिन्न कार्य स्थलों की जातिगत संरचना के संबंध में पूर्व में किए गए अनुसंधानों से मेल खाते हैं। चाहे वह बड़ी कंपनियों के बोर्ड रूम हों, मीडिया समूहों के न्यूज रूम या भारत सरकार के सचिव।
तालिका 2: विभिन्न व्यवसायों में उच्च जातियों व अन्यों का प्रतिशत
शक्तिशाली व महत्वपूर्ण पद (1,077) | मध्यम श्रेणी के पद (399) | कठिन शारीरिक श्रम वाले व्यवसाय (225) | |
उच्च जातियां | 75 | 36 | 8 |
व्यक्ति जिनके उपनाम ज्ञात नहीं थे | 1 | 13 | 50 |
अन्य | 24 | 51 | 42 |
शक्तिशाली व महत्वपूर्ण पदों के लिए तालिका 1 देखें।
मध्यम श्रेणी के पदों में मुख्यत: चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी, प्रथम व द्वितीय श्रेणी के लेखा लिपिक, सफाई नायक, मोहर्रिर, इलाहाबाद नगर निगम में सहायक व सुरक्षा गार्ड और जीबीपंत समाजविज्ञान संस्थान के लिपिकीय संवर्ग के कर्मचारी शामिल हैं। हर समूह का आकार (व्यक्तियों की संख्या) कोष्ठक में दी गई है।
अग्रवाल, द्रेज व गुप्ता, आम तौर पर दिये जाने वाले इस तर्क को खारिज करते हैं कि ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों में ऐसे लोगों का अभाव है, जिनमें शक्तिशाली व महत्वपूर्ण पदों को पाने के लिए आवश्यक अर्हता हो। उनका कहना है कि यह तर्क सिर्फ ऐसे पदों के मामले में वैध है, जिनके लिए असाधारण योग्यता की आवश्यकता हो। भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण 2004-05 का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि उत्तरप्रदेश में कुल स्नातकों में से 51 प्रतिशत, ओबीसी, दलित, मुसलमान व अन्य थे। अर्थात ऊँची जातियों की तुलना में, वंचित समूहों के स्नातकों की संख्या अधिक थी। परंतु, लेखकों का कहना है, ‘शिक्षा (विशेषकर उच्च गुणवत्ता की शिक्षा) तक पहुंच के मामले में भारी सामाजिक असमानता’ के चलते, ऊँची जातियों ने सार्वजनकि संस्थानों पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। परंतु इसके कुछ अन्य कारण भी हैं। ‘ऊँची जातियों के लोगों के मित्र और शुभचिंतक, प्रभावशाली पदों पर होते हैं और इसका कारण केवल यह नहीं है कि वे तुलनात्मक दृष्टि से अधिक समृद्ध व शिक्षित हैं बल्कि इसके पीछे उनके जातिगत व पारिवारिक रिश्ते भी होते हैं’। एक-दूसरे की मदद करने का यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी अंतर्विवाहों के जरिए चलता रहता है। इसके अलावा, बहुजनों के साथ भतीज़् के समय भेदभाव किया जाता है और आरक्षण संबंधी नियमों का ठीक ढंग से पालन नहीं होता।
लेखकों का निष्कर्ष है कि उनके शोध के नतीजों से यह जाहिर है कि ‘सार्वजनिक संस्थानों में विविधता हो इस पर अधिक ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है और इसके लिए हम वही तरीके अपना सकते हैं, जिनका इस्तेमाल कर अन्य देशों ने कायज़्स्थलों में नस्लीय व लैंगिक असंतुलन को काफी हद तक कम कर लिया है। इलाहाबाद की बॉर एसोसिएशन, स्वयंसेवी संस्थाएं व ट्रेड यूनियन आसानी से यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे उच्च जातियों के क्लब बनकर न रह जाएं। ऐसा न करके वे जातिगत पदक्रम को संरक्षण दे रहे हैं।’
फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित