भारत के सामाजिक न्याय के इतिहास में 26 तारीख का बहुत महत्व है। यह अंक 26 जून के आसपास छपने जा रहा है, जो कि छत्रपति शाहू महाराज की जयंती है। महात्मा जोतिबा फुले के अनुयायी, शाहू महाराज ने अपनी रियासत कोल्हापुर में 26 जुलाई 1902 को पहली बार आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी। फुले ने 1869 और 1882 में आरक्षण की आवश्यकता प्रतिपादित की थी। शाहू महाराज उन राजाओं में से एक थे, जिन्होंने आम्बेडकर की शिक्षा व उनकी सामाजिक गतिविधियों के लिए आर्थिक मदद दी थी। आम्बेडकर का भारतीय संविधान, जिसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की गारंटी दी गई थी, 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। 26 जुलाई आरक्षण दिवस है और उसे इसी रूप में मनाया जाना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में यह उचित ही है कि फारवर्ड प्रेस का यह अंक, सामाजिक न्याय विशेषांक है।
कांग्रेस के हाथों उपेक्षा झेलने के बाद, देश के ओबीसी वर्ग ने ओबीसी मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का साथ दिया। उन्हें विश्वास था कि बहुसंख्यक दलितबहुजनों के अच्छे दिन आयेंगे। अपना एक वर्ष पूरा करने के बाद और बिहार के आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, हवा का रूख भांपने के लिए, मोदी सरकार ने 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण कोटे को विभाजित करने का प्रस्ताव किया है, जैसा कि कई राज्य सफलतापूर्वक कर चुके हैं।
हमारी आवरण कथा से मोदी सरकार को यह समझ में आना चाहिए कि अगर वह इस दिशा में आगे बढ़ी तो वह ओबीसी वर्ग की राय और सामान्य बुद्धि – दोनों के विरूद्ध जाएगी। अशोक यादव के तार्किक और दृढ़ तर्कों व ओबीसी वर्ग के जानकारों की राय है कि इस कवायद के लक्ष्य तो ठीक हैं परंतु यह काम राज्यों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। अगर केंद्र इस मामले में हाथ डालेगा तो जितनी समस्याएं सुलझेंगी, उनसे कहीं अधिक उत्पन्न हो जायेंगी।
दूसरी ओर, अनूप पटेल, भाजपा-शासित राजस्थान में गुर्जरों की विशेष या ओबीसी उप-कोटा के अंतर्गत आरक्षण की मांग के इतिहास पर प्रकाश डाल रहे हैं। ओबीसी आरक्षण के उलझे हुए मसलों में से कुछ ऐसे हैं, जिनमें केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए तो अन्य को राज्यों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ राज्य आदर्श हैं, जैसे तमिलनाडु और बिहार।
उच्चतम न्यायालय के जानेमाने विधिवेत्ता और महिलाओं को न्याय दिलाने के अभियान से जुड़े अरविन्द जैन इस अंक में जाति, धर्म और आरक्षण पर अपनी बात रख रहे हैं। अपने निष्कर्ष को वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं ”पुराने घिसेपिटे कानून, न्यायपालिका द्वारा उनकी गलत व्याख्या और राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव – अर्थात वे कारक जो सामाजिक न्याय की राह में बाधक हैं-में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है।”
बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और जाहिर है कि यह राज्य आने वाले समय में सुर्खियों में रहेगा। परंतु एफपी, सुर्खियों के पीछे जाती है। ब्रह्मेश्वर मुखिया की अब तक अनसुलझी हत्या को तीन साल बीत गए हैं। फारवर्ड प्रेस के जुलाई 2012 अंक की आवरण कथा का शीर्षक था ”मुखिया की हत्या जादुई गोलियों से हुई”। जो प्रश्न हमने उस समय उठाए थे, वे आज भी अनुत्तरित हैं। अब बिहार के राजनेताओं और हिन्दी प्रेस ने इस क्रूर हत्यारे को षडय़ंत्रपूर्वक शहीद की संज्ञा देनी शुरू कर दी है। एफपी में हमारे पूर्व सहकर्मी नवल किशोर कुमार, जिन्होंने 2012 की मुखिया आवरण कथा लिखी थी, इस बार इस भूमिहार नायक की अभ्यर्थना करने वाले राजनेताओं पर अपनी रपट दे रहे हैं। सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन, जिन्होंने बिहार की प्रेस की सामाजिक संरचना का अध्ययन किया है, ने वहां की हिंदी प्रेस में मुखिया के कार्यक्रम से संबंधित समाचारों के कथ्य व प्रस्तुतिकरण का विश्लेषण किया है। जो भी राजनेता या पार्टियां भूमिहारों के वोटों की खातिर मुखिया के भूत से हाथ मिलायेंगी उन्हें यह याद रखना चाहिए कि उनके हाथ कम से कम 300 दलितबहुजन बच्चों, महिलाओं और पुरूषों के खून से रंगे होंगे।
अगले माह तक…, सत्य में आपका
आयवन कोस्का
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फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2015 अंक में प्रकाशित