गत 5 जुलाई को, केंद्र की एनडीए सरकार ने, यूपीए शासनकाल की सामाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना की रपट को अंशत: सार्वजनिक किया। ”अंशत:” अर्थात जहां आर्थिक आंकड़े जारी कर दिए गए वहीं जातिवार जनसंख्या के आंकड़े -जिनका सभी को बेसब्री से इंतज़ार था – सार्वजनिक नहीं किए गए। भारत में जाति जनगणना की मांग कई सालों से उठाई जा रही थी। इस जनगणना से हमें यह पता चल सकेगा कि विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मानकों पर अलग-अलग जातियों की क्या स्थिति है और यह भी कि जातिगत ऊँच-नीच का कितना प्रभाव अब भी बाकी है और वह, संबंधित जातियों की साक्षरता, शिक्षा, उनकी शहरी व ग्रामीण आबादी में हिस्सेदारी, सेवा क्षेत्र व विभिन्न पेशों में उनके प्रतिनिधित्व आदि में किस तरह प्रतिबिंबित हो रही है।
इन आंकड़ों से यह भी पता चलेगा कि विभिन्न जातियों के बीच अब भी कितनी गहरी खाई है। उदाहरणार्थ, हम यह जान सकेंगे कि सन् 1993 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से क्या ओबीसी वर्ग के सदस्यों को अधिक रोजग़ार मिला है? मंडल आयोग की रपट के कारण जाति व्यवस्था पर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ी। आयोग की सिफारिशों को लागू करने के समर्थन और विरोध में चले आंदोलनों ने भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी। इसका सभी राजनैतिक दलों पर प्रभाव पड़ा – चाहे वे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी। यहां तक कि हिंदू राष्ट्रवादी संगठन आरएसएस, जो कि ओबीसी के लिए आरक्षण के खिलाफ था, भी परिवर्तन की इस आंधी से अछूता नहीं रह सका। इतिहास में पहली बार एक गैर-ब्राह्मण (रज्जू भैया, जो कि जाति से ठाकुर थे) आरएसएस के सरसंघचालक बने। वी.पी. सिंह, जिन्होंने प्रधानमंत्री बतौर मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था, ऊँची जातियों की आंख की किरकिरी बन गए। तब से लेकर अब तक, जाति का मुद्दा, कटु बहस-मुबाहिसों का विषय बनता आ रहा है।
क्या भाजपा के नेतृत्व वाली वर्तमान एनडीए सरकार को जाति जनगणना के आंकड़े जारी करने की इजाज़त मिलेगी? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भाजपा का पितृसंगठन आरएसएस, जातिगत पदक्रम का जबरदस्त हिमायती और संरक्षक है और सन् 1980 के दशक में चले मंडल-विरोधी आंदोलन में उसने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। सरकार, जाति संबंधी आंकड़ों को सार्वजनिक करेगी या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि उक्त आशय की मांग कितना ज़ोर पकड़ती है और विपक्षी दल सरकार की आनाकानी को मुद्दा बनाते हैं या नहीं?
जाति-आधारित आरक्षण की शुरूआत
महात्मा जोतिराव फुले पहले सामाजिक क्रांतिकारी थे, जिन्होंने जाति प्रथा के खिलाफ आवाज़ बुलंद की और विभिन्न जातियों को, आबादी में उनके हिस्से के अनुरूप, सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिए जाने की मांग उठाई। उनका कहना था कि इससे ब्राह्मणों का सरकारी सेवाओं पर एकछत्र राज समाप्त हो जाएगा। उन्होंने इस बारे में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक शेतकर्याचा असुड़ (किसान का चाबुक, 1883) में लिखा है।
कोल्हापुर के राजा शाहू ने सन् 1902 में अपने राज्य में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया, जिसके लिए उन्हें ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। कांग्रेस के कद्दावर नेता बालगंगाधर तिलक ने भी उनका विरोध किया और ऐसा कहा जाता है कि तिलक ने शाहू को धमकी देते हुए कहा कि उन्हें अपने इस निर्णय की भारी कीमत चुकानी होगी। तत्पश्चात, यह आंदोलन मद्रास राज्य में फैल गया और फुले से प्रेरित पेरियार ने इस आंदोलन का नेतृत्व संभाल लिया। इसके अलावा, ब्रिटिश सरकार ने 1881 से लेकर 1931 तक जाति-आधारित जनगणना करवाई। इन जनगणनाओं के नतीजों ने ‘अछूतों’ सहित नीची जातियों के लोगों की आंखें खोल दीं।
तालिका बंबई राज्य में जाति और साक्षरता (प्रतिशत)
क्र. सं. |
जाति |
वर्ष | |||
1901 | 1911 | 1921 | 1931 | ||
1 |
मांग |
0.10 | 0.40 | 0.50 | 1.00 |
2 | महार | 0.30 | 0.90 | 1.60 | 2.90 |
3 | लोहार | 2.50 | 3.10 | 3.60 | 7.50 |
4 | माली | 1.20 | 1.70 | 3.90 | 4.80 |
5 | कुनबी | 2.50 | 3.10 | 4.60 | 7.60 |
6 | तेली | 1.50 | 2.30 | 3.60 | 5.20 |
7 | ब्राह्मण | — | — | 40.30 | 55.30 |
स्त्रोत भारत की जनगणना
इस तालिका (बंबई राज्य में जाति और साक्षरता) से स्पष्ट होता है कि साक्षरता के मामले में ब्राह्मण, ओबीसी व अनुसूचित जातियों (मांग और महार अछूत जातियां हैं) से कितने आगे थे। आज स्थिति में क्या बदलाव आया है, यह तभी स्पष्ट हो सकेगा जब वर्तमान सरकार जाति जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करे। जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है, वे इस मुद्दे को कोई खास तवज्ज़ो नहीं दे रहे हैं। हां, ओबीसी नेतृत्व वाले कुछ राजनैतिक दलों ने जातिगत आंकड़ों को प्रकाशित करने की मांग की है परंतु उनका भी उस पर बहुत ज़ोर नहीं है। यद्यपि वर्तमान सरकार के मुखिया दावा करते हैं कि वे ओबीसी हैं और इस लेबिल का उन्होंने चुनाव प्रचार में जमकर इस्तेमाल भी किया था, परंतु वे भी इन आंकड़ों के प्रकाशन में बहुत रूचि नहीं दिखला रहे हैं। बल्कि, बिहार के गया में नौ अगस्त को राज्य में होने वाले चुनाव के सिलसिले में आयोजित एक आमसभा को संबांधित करते हुए उन्होंने ऐसे नेताओं की आलोचना की, जो जाति संबंधी आंकड़ों को सार्वजनिक किए जाने की मांग कर रहे हैं। उन्होंने जाति के मुद्दे को नहीं छुआ और ना ही लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की मांग को खारिज किया। कम्युनिस्ट पार्टियों का इन आंकड़ों से कोई लेना-देना ही नहीं है क्योंकि वे जाति संबंधी मुद्दों को नजऱअंदाज़ करती आई हैं। एक तरह से, मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अभियान में ये पार्टियां कांग्रेस व भाजपा के साथ थीं। आरएसएस व सभी हिंदू समूह और ब्राह्मण सभाएं, मंडल विरोधी आंदोलन की अग्रिम पंक्ति में थीं। जाति जनगणना के मुद्दे पर दलित भी उतने मुखर नहीं हैं, जितने कि वे मंडल आयोग की सिफारिशों के मसले पर थे। इससे ऐसा लगता है कि ओबीसी पार्टियों व ओबीसी संगठनों को अपने दम पर ही सरकार को इसके लिए मजबूर करना होगा कि वह जाति जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करे।
जब भी ये आंकड़े सार्वजनिक किए जाते हैं, इन्हीं पार्टियों और संगठनों का यह दायित्व होगा कि वे सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाएं कि सरकारी सेवाओं में सभी जातियों को, आबादी में उनके हिस्से के अनुपात में आरक्षण दिया जाए। यह कब तक हो सकेगा, कहा नहीं जा सकता परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा करने के लिए सरकार पर बहुत दबाव रहेगा। भाजपा के ओबीसी नेता भी इस मुद्दे को नजऱअंदाज़ नहीं कर सकेंगे। क्या हम भूल सकते हैं कि गोपीनाथ मुंडे ने मंडल आयोग की सिफारिशों का खुलकर समर्थन किया था, जबकि नितिन गडकरी और प्रकाश जावड़ेकर जैसे पार्टी नेता या तो आरएसएस में थे या मंडल विरोधी खेमे में या चुप्पी साधे हुए थे।
यह भी संभव है कि जाति संगठन फिर से सक्रिय हो जाएं और सरकारी सेवाओं में अपने कोटे की मांग उठाएं। सन् 1980 के दशक में चले मंडल आंदोलन में मेरी सक्रिय भागीदारी थी और उस वक्त मैंने देखा था कि सिफारिशों का समर्थन करने के लिए कई नए जाति संगठन आगे आए थे। जब भी ये आंकड़े सार्वजनिक होंगे, संभवत: वैसा ही कुछ फिर से दोहराया जाएगा।
गैर-हिंदू समुदायों में पिछड़ी जातियां
मंडल आयोग ने कई मुस्लिम, ईसाई व सिक्ख समुदायों को भी ओबीसी की सूची में शामिल किया था। आयोग के अनुसार, हिंदुओं में ओबीसी का प्रतिशत 43.74 और गैर-हिंदुओं में 8.40 है। आयोग ने अपनी रपट में कहा ”इसमें कोई संदेह नहीं कि गैर-हिंदू समुदायों में भी, हिंदुओं की तरह, कुछ समूह सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन के शिकार हैं। यद्यपि सैद्धांतिक तौर पर जाति प्रथा केवल हिंदू धर्म में है तथापि व्यवहार में भारत के सभी गैर-हिंदू समुदायों को जातिप्रथा ने जकड़ रखा है। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला, जाति प्रथा का मनुष्य के व्यक्तित्व पर गहरा असर पड़ता है और वह उसकी सामाजिक चेतना व सांस्कृतिक आचार-विचार पर अमिट प्रभाव डालती है। इसलिए धर्म परिवर्तन कर लेने के बाद भी, हिंदू, सामाजिक पदानुक्रम और स्तरण की अवधारणाओं से मुक्त नहीं हो पाते, जो कि उनके दिमागों में गहरे तक पैठी होती हैं। इसी का नतीजा है कि मुसलमान, ईसाई या सिक्ख बने हिंदुओं ने इन समतावादी धर्मों में भी जातिप्रथा के बीज बो दिए। दूसरे, हिंदू-बहुल भारत में रहने वाले गैर-हिंदू अल्पसंख्यक, स्वयं को हिंदुओं के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव से अछूता नहीं रख सके। इस तरह, गैर-हिंदू समुदायों में जातिप्रथा का उदय, आंतरिक और बाह्य, दोनों कारकों से हुआ और इन्हीं दोनों कारकों ने उसे जीवित बनाए रखा और मज़बूती दी” (पिछड़ा वर्ग आयोग की रपट, प्रथम भाग, खंड 1 व 2, 1980, पृष्ठ 55, भारत सरकार)।
अत:, वर्तमान स्थिति में सरकार को जाति जनगणना के आंकड़े जारी करने के लिए मजबूर करने हेतु देश के सभी ओबीसी को संगठित होना होगा और गैर-हिंदू ओबीसी को भी उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलानी होगी। मंडल आंदोलन के दौरान मुसलमानों और ईसाईयों ने भी आयोग की रपट को लागू करने की मांग का सक्रिय समर्थन किया था। उनका समर्थन, भविष्य में होने वाले आंदोलनों के लिए भी महत्वपूर्ण होगा। परंतु केवल जातिगत आंकड़ों के प्रकाशन से समस्या सुलझने वाली नहीं है। वंचित जातियों और समुदायों को सरकारी नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग उठानी होगी। उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के कारण, ओबीसी के लिए आरक्षण 27 प्रतिशत पर अटका हुआ है। इस समस्या को संविधान संशोधन के जरिए सुलझाना होगा, अन्यथा, जातिवार आबादी के आंकड़े इकट्ठे करने का कोई अर्थ नहीं रहेगा, शासक वर्ग का चरित्र नहीं बदलेगा और आबादी का 25 प्रतिशत हिस्सा, 50 प्रतिशत सरकारी नौकरियों पर काबिज़ बना रहेगा। उच्च पदों पर तो लगभग 80 प्रतिशत लोग ऊँची जातियों के हैं। डॉ. आंबेडकर ने बताया था कि गांधी और कांग्रेस ने अछूतों के साथ क्या किया है। ”ब्राह्मण शासक वर्ग हैं, इस पर तो कोई प्रश्न उठाया ही नहीं जा सकता। केवल दो परीक्षण किए जा सकते हैं एक, जनभावनाएं और दूसरा प्रशासन पर नियंत्रण (डॉ. आंबेडकर ऑन कांग्रेस एंड ब्राह्मिन्स, संकलन: के वीरमणि, द द्रविण कषगम पब्लिकेशन्स, 50, ई.व्ही.के. संपथ रोड, मद्रास, 1985)।”
यद्यपि सरकार जाति जनगणना के आंकड़ों को प्रकाशित करने में आनाकानी कर रही है परंतु हम यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वह विभिन्न जातियों के बीच विषमता को समाप्त करने का प्रयास करेगी। यह एक लंबी प्रक्रिया होगी, जो भारतीय समाज के मूल विरोधाभासों को सामने लाएगी और जिससे जाति-विरोधी संघर्ष को गति मिलेगी।
फारवर्ड प्रेस के सितंबर, 2015 अंक में प्रकाशित