फिनीक्स के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी ही राख से उठ खड़ा होता है। बिहार विधानसभा के हालिया चुनाव में लालू प्रसाद उसी तरह उठ खड़े हुए हैं -अपनी ही राख से। पिछले कई वर्षों से बिहार की राजनीति में किनारा हुए लालू प्रसाद अब उसके केंद्र में है – एक नायक के बतौर। पिछले चुनाव में हाशिये पर धकेल दिया उनका दल आज बिहार विधानसभा में सबसे बड़ा दल है। नीतीश कुमार के जनता दल (यूनाइटेड) और कांग्रेस के साथ लालू प्रसाद का राष्ट्रीय जनता दल दो-तिहाई से भी अधिक बहुमत पा चुका है। यह जीत लालू और नीतीश की जोड़ी की जीत है। लेकिन बड़ी जीत लालू की है क्योंकि नीतीश हाशिये पर नहीं थे। वे मुख्यमंत्री थे।
इस जीत के अनेक अर्थ लगाये जा रहे हैं। दिल्ली में बैठे अभिजात्य बुद्धिजीवी इसे नीतीश के सुशासन की जीत बता रहे हैं। हाल तक अनेक लोग नीतीश को सलाह दे रहे थे कि वे लालू से दूर हो जाएं। नीतीश नहीं माने। वे बिहार की राजनीति को समझते हैं। वे अडिग रहे। अडिग लालू प्रसाद भी रहे। उन्हें इस बात का अहसास था कि सामाजिक न्याय की धारा को विकास का विश्वसनीय आवेग देना जरूरी है और यह नीतीश ही कर सकते हैं। नीतीश और लालू की यह जोड़ी कुछ उसी तरह हिट हुई जैसे आजादी के तुरंत बाद पूरे देश में पटेल-नेहरू की जोड़ी हुई थी। एक कर्मण्य था, दूसरा स्वप्नद्रष्टा। सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के बीच लालू प्रसाद की विश्वसनीयता और पूरे प्रदेश में नीतीश कुमार के विकास कार्यों के प्रति एक सकारात्मक भाव ने मिलकर इस जीत को संभव बनाया। सबसे बढ़कर हर जाति-वर्ग की महिलाओं की उत्कंठा ने, जिसने उन्हें भारी संख्या में मतदान केन्द्रों तक पहुंचाया। स्पष्ट उनका झुकाव महागठबंधन की ओर था। उनके मतों के बिना यह जीत संभव नहीं थी।
भाजपा कहां गच्चा खा गई? क्या उसने पूरे देश से जो अपनी अक्षौहिणी सेना जुटा ली थी, वह उसके लिए भारी पड़ा या गोमांस और आरक्षण का मुद्दा-जो बीच-बीच में चुनाव में उभरा और नौबत यहां तक आयी कि तीसरे चरण के पहले अपने चुनावी भाषणों में बार-बार प्रधानमंत्री मोदी को अपनी जाति की दुहाई देनी पड़ी। नतीजे बता रहे हैं कि बिहार की जनता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पटना के सभी बड़े होटलों को भाजपा ने जिस तरह अपने कब्जे में लिया था और पूरे देश के भाजपाई जिस अंदाज में चुनाव प्रचार में जुटे थे उसे ही देखकर संभवत: नीतीश कुमार ने ‘बिहारी बनाम बाहरी’ का व्यंग्य किया था और जनता ने इसका संज्ञान लिया।
भाजपा से सबसे बड़ी चूक यह हुई कि वह सामाजिक न्याय की शक्तियों के ध्रुवीकरण को नहीं समझ पाई। लालू और नीतीश इकट्ठे कितनी बड़ी ताकत हो सकते हैं, इसका आकलन भाजपा नहीं कर सकी। लालू-नीतीश ने फूंक-फूंक कर कदम रखे। समय पर सीटों का बंटवारा किया। मुलायम सिंह यादव की लताड़ को नजऱंदाज़ कर तीनों दलों (राजद, जदयू व कांग्रेस) के नेताओं की उपस्थिति में नीतीश कुमार ने सभी उम्मीदवारों की घोषणा की। इससे एकजुटता का प्रदर्शन हुआ। फिर, अपनी आदत के विपरीत उम्मीदवारों का जाति-वर्गवार संख्या भी घोषित की। कुल 243 में 134 सदस्य पिछड़े वर्गों से थे व 33 उंची जातियों से। उंची जातियों के लिए आयोग बनाकर पिछड़े वर्गों में बदनाम हुए नीतीश कुमार ने हिसाब दुरूस्त कर लिया। इसके जवाब में भाजपा ने सौ से अधिक द्विज वैश्य उम्मीदवारों को उतारा। 86 केवल उंची जातियों से। आलम यह था कि त्रिवेणी संघ के उद्भव क्षेत्र भोजपुर-बक्सर की कुल 11 में से जिन 10 सीटों पर भाजपा लड़ी, उनमें से आठ पर उसके उम्मीदवार उंची जातियों से थे। शेष दो सीटें आरक्षित थीं। इसी क्षेत्र में पहली बार नरेंद्र मोदी ने अपनी जाति का उल्लेख करते हुए अपने को अतिपिछड़ा बतलाया। दलित-पिछड़ों ने उनकी नहीं सुनी तो क्या आश्चर्य? इस क्षेत्र से भाजपा के लगभग सभी उम्मीदवार हार गए।
संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर बयान ने दलित-पिछड़ों के मन में संशय पैदा कर दिया। नरेंद्र मोदी की लाख कोशिशें उसे मिटा न सकीं। चर्चा यह भी थी कि संघ और मोदी में घमासान चल रहा है और भागवत ने जानबूझकर यह बयान दिया है जिससे बिहार में मोदी की मुश्किलें बढ़ें। हकीकत क्या है संघ और मोदी जानें, लेकिन इस वाकये ने सामाजिक न्याय की ताकतों को एकजुट कर दिया।
लालू प्रसाद जानते थे कि भाजपा किस समीकरण में उलझेगी। इसीलिए उन्होंने आरंभ में ही मंडल-2 का नारा देते हुए घोषणा कर दी कि बैकवर्ड-फारवर्ड की लड़ाई छिड़ चुकी है। 1993 में इसी मंत्र से उत्तरप्रदेश में कांशी-मुलायम ने भाजपा को पटकनी दी थी।
ये चुनाव नतीजे देश की राजनीति पर क्या प्रभाव डालेंगे? मैं पहले से ही कहता रहा हूं कि बिहार में यदि भाजपा हार गई तो प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली में हिल जाएंगे। मेरी समझ से उनकी उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। उनकी मुसीबतें इंदिरा गांधी से ज्यादा बढेंगी। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भी उनकी साख गिरेगी। शायद ही विदेशों में उनके लिए मोदी-मोदी के नारे उस उत्साह से लगें, जैसे पहले लगते थे। उनकी लोकप्रियता को एक बड़ा कोष्ठक मिल गया बिहार चुनाव के बाद। उनके दल के भीतर पहले से ही विद्रोह के स्वर (शत्रुघ्न सिन्हा और आरके सिंह) उठने लगे थे। अब और तेजी से उठेंगे। आज शत्रुघ्न सिन्हा आश्वस्त भाव से चुभला-चुभला कर अपनी बातें यूंही नहीं कर रहे हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी की नियति कहीं उनके अपने ही प्रदेश के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की तरह न बन जाए। 1977 में वह चमकते सितारे की तरह उभरे और दो-ढाई साल में फुस्स हो गए।
लालू, नीतीश को निश्चित ही बड़ी जिम्मेदारी मिली है। जिस तबके का वोट उन्हें हासिल हुआ है, उन्हें विकास की धारा से जोडऩे की जिम्मेदारी उनकी है। वे सर्वजन के नहीं बहुजन के वोटों के बल पर चुन कर आये हैं। उन्हें स्वप्न भी देखने होंगे और कर्मण्य भी होना होगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्रों को उन्हें प्राथमिकता देनी होगी। जैसा कि पहले से तय था, नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली है। उन्हें लम्बा अनुभव है। बिहार की जनता के साथ मुझे भी उम्मीद है कि वे बिहार को विकास के पथ पर आगे बढायेंगे। लाखों बधाइयों के साथ उन्हें मेरी भी बधाई!