सामाजिक न्याय तब तक मृग मरीचिका बना रहेगा जब तक भेदभाव के शिकार समुदायों की आधी महिला आबादी – जो कि अपने वर्ग के पुरूषों की तुलना में अधिक पददलित है – को भी न्याय नहीं मिलता। इसलिए सामाजिक न्याय के मुद्दे को हम अपने जनवरी विशेषांक तक सीमित नहीं रख सकते थे। इस बार हमारा फोकस देश के विभिन्न हिस्सों और समुदायों में महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय पर है।
स्त्रीवादी पत्रिका के संपादक और लेखक संजीव चंदन की आवरणकथा लोकसभा और राज्यसभा से शुरू कर विधानमंडलों में महिला आरक्षण के संघर्ष पर केन्द्रित है। दस्तावेजों व अकाट्य तर्को के आधार पर वे पिछले दो दशकों से विभिन्न शासक दलों द्वारा महिला आरक्षण न देने के बहानों को झूठा साबित करते हैं। वे लिखते हैं, ”महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल पर सक्रिय (सवर्ण) महिलाएं, जाति-प्रतिनिधित्व के मसले पर एक राय नहीं हो पाती हैं” तो दूसरी ओर ”जाति-प्रतिनिधित्व के सवाल पर सहमत लोग, महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मसले पर ईमानदार पहल नहीं करते”। इस गुत्थी को कौन सुलझाएगा ताकि हमारे देश की विधायिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।
भारत के पूर्व से हम एक अंग्रेजी-भाषी बंगाली दलित महिला की कश्मकश का द्रिशादवती बर्गीका रूढिबद्ध धारणाएं तोडऩे वाला व्यक्तिगत अनुभव प्रस्तुत कर रहे हैं, जो जाति, लिंग, विचारधारा और जीवन शैली से उद्भूत तनावों के बारे में है।
एके विस्वास हमें बंगाल के 19वीं सदी के विस्मृत नामशूद्र आंदोलन की याद दिला रहे हैं, जिसने ब्रिटिश राज में निम्न जातियों व समुदायों की मुक्ति में महती भूमिका अदा की। यह महत्वपूर्ण है कि ”जब भी कोई नामशूद्र गुरूचंद से मिलकर मातुआ पंथ में शामिल होने की इच्छा व्यक्त करता था…तो वे उससे अपने घर में शौचालय का निर्माण करने को कहते थे”। आज जब भारत अपने ग्रामीण नागरिकों को, और कुछ नहीं तो अपनी महिलाओं की सुरक्षा के लिए, शौचालयों का निर्माण करने के लिए राजी नहीं कर पा रहा है, तब यह दूरदर्शिता सचमुच अद्भुत प्रतीत होती है।
इसके बाद, हम सुदूर दक्षिण में अजय एस. शेखर के साथ केरल के ऐतिहासिक स्तन-वस्त्र संघर्षो का जायजा लेते हैं। वे इन दलित स्त्रीवादी संघर्षो को हजारों साल पुराने नीची जातियों के बौद्ध-जैनों के विरूद्ध ब्राहम्णवादी आक्रामकता के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि केरल और नामशूद्र मुक्ति आंदोलनों में ईसाई मिशनरियों की केन्द्रीय भूमिका थी। दूसरी ओर, युगों से ब्राह्मणवाद, भारत में महिलाओं के अधिकारों का शत्रु रहा है। महात्मा फुले को इस बात का अहसास था और इसलिए उनके मुक्ति एजेन्डे में महिलाओं को सर्वोच्च स्थान दिया गया था : स्त्री-शूद्र-अतिशूद्र। भारत की पहली संसद में ब्राह्मणवादी शक्तियों ने आम्बेडकर के हिन्दूकोड बिल का विरोध किया, जिसके चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
जनवरी के मध्य में दलित शोध अध्येता रोहित वेमूला की आत्महत्या के पीछे ब्राह्मणवादी हाथ साफ दिखलाई दे रहा है। ब्रजरंजन मणि की इस मेधावी, महत्वाकांक्षी युवक, जो अपनी 27वीं वर्षगांठ के दो हफ्ते पहले इस दुनिया से चला गया, को संवेदनशील श्रद्धांजलि हमें उसकी आत्मा और सोच से परिचित करवाती है। वे केवल व्यक्ति तक सीमित न रहकर इस मुद्दे की व्यापकता पर भी प्रकाश डालते हैं। यह सचमुच त्रासद है कि वेमूला ने अपने अंतिम पत्र में लिखा, ”मेरा जन्म एक घातक दुर्घटना थी।”
उसे जीते जी तो सामाजिक न्याय न मिल सका परंतु शायद मृत्यु के बाद उसे न्याय मिल सके। हमें आशा है कि यह भारत के ज्ञान के मंदिरों में किसी दलित विद्यार्थी की आखिरी बलि होगी।
पुनश्च: – राजेन्द्र प्रसाद सिंह का गीता के काल और लेखक के संबंध में विचारोत्तेजक लेख केवल इसलिए पढि़ए ताकि आप उनके इस तर्क को समझ सकें कि ”गीता एक बहुजन नायक के कंधे पर बंदूक रख कर चलाई गई द्विजवादी गोली है। गीता और कुछ नहीं मनुस्मृति का प्रतिरूप है।”
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )