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दक्षिण भारत का असली स्वाधीनता संग्राम

पेरियार ने कुटिल ब्राह्मणों द्वारा आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने के किसी भी प्रयास के विरूद्ध संवैधानिक व्यवस्था कर दी

700-600 ईसा पूर्व के आसपास, प्रवासी आर्यों द्वारा वैदिक संस्कृति लादे जाने के विरूद्ध भारत में कई गैर-ब्राह्मण विद्रोह हुए। परीविराजकर व लोगायथ जैसे समूहों ने वैदिक रीति-रिवाजों के खिलाफ सघन अभियान चलाया। कनाथर, कबीलर, बुद्ध व महावीर जैसे नेताओं व बुद्धम, श्रमणम व अचीवगम जैसे वैदिक-विरोधी संगठनों ने सामाजिक न्याय के इस अभियान में हिस्सेदारी की।

दूसरी ओर, चेरा इमायावरंबन नेदुनचेरलाथन, चैजा पेरूनारकिल्लई व पंडिया पलयगसलई मुथ्थुकुद्दुमी पेरूवलूथि जैसे शासकों ने आर्यों का साथ दिया और वैदिक संस्कृति को अपना लिया। इन शासकों ने ब्राह्मणों को यज्ञ करने के लिए ढेर सारी भूमि, धन व स्वर्ण दान में दिया। जल्दी ही ब्राह्मण, शासकों के शक्तिशाली सलाहकार (राजगुरू)  बन गए।

करूणानिधि के साथ पेरियार

दूसरी सदी ईसा पूर्व व पहली सदी ईस्वी के बीच संकलित संगम साहित्य में बौद्ध और श्रमण परंपरा के तत्व देखे जा सकते हैं। ‘मदुरई कांची’व ‘पट्टीनापल्लई’जैसे काव्य रचनाओं से यह ज्ञात होता है कि तमिलनाडु में बौद्ध व श्रमण परंपरा कितनी समृद्ध थी। तमिल साहित्य के पांच महाकाव्यों में से दो ‘मणिमेकलई’व ‘कुण्डाकेसी’में वैदिक-विरोधी परंपराओं की झलक मिलती है।

राजगुरू से अफसरशाह

अंग्रेजों के आने के बाद मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के जरिए ‘द्विशासन’व्यवस्था अस्तित्व में आई। मद्रास प्रेसीडेंसी के ब्राह्मणों ने आईसीएस, राजनीतिक दलों, शिक्षा, मीडिया आदि के क्षेत्रों में घुसपैठ कर ली और इस प्रकार सामाजिक पदक्रम में अपना उच्च स्थान बनाए रखा। सभी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक अधिकारों से वंचित गैर-ब्राह्मणों (शूद्र, पंजमा) को सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष शुरू करना पड़ा। डॉ. नटेसन, डॉ. टीएम नायर व सर पी. थियागरायर जैसे प्रमुख गैर-ब्राह्मण राजनेताओं ने कई बैठकों और संगोष्ठियों का आयोजन किया और 20 नवंबर 1916 को ‘साऊथ इंडियन लिबरल फेडरेशन’का गठन किया।

सन् 1920 में, साऊथ इंडियन लिबरल फेडरेशन, जिसका नाम बदलकर जस्टिस पार्टी कर दिया गया था, ने मद्रास प्रेसीडेंसी में पहले प्रत्यक्ष चुनाव में सफलता प्राप्त कर अपनी सरकार बनाई। यह पार्टी अगले 16 साल तक सत्ता में रही। 16 सितंबर, 1921 को सरकार ने गैर-ब्राह्मणों के लिए नौकरियों में आरक्षण की घोषणा की, यद्यपि इस आदेश को 1928 में मुथ्थया मुथलियार द्वारा लागू किया जा सका।

पेरियार व जस्टिस पार्टी

पेरियार ने 1925 में स्वाभिमान आंदोलन शुरू किया। यद्यपि यह आंदोलन चुनावी राजनीति से दूर रहा तथापि वह शासक जस्टिस पार्टी का पथप्रदर्शन करता रहा। पेरियार ने कई पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जिनमें ‘कुडियारसू’, ‘पुरात्ची1, ‘पगाथरिवू’, व ‘रिवोल्ट’शामिल थीं। पेरियार ने अपने लेखों के जरिए आमजनों को यह बताया कि किस प्रकार वेदों, शास्त्रों, ईश्वर में आस्था, संस्कारों व कर्मकाण्डों के नाम पर उनका शोषण किया जा रहा है और उन्हें हाशिए पर धकेला जा रहा है। उन्होंने गैर-ब्राह्मणों को आरक्षण सहित अन्य कानूनी रास्तों से सामाजिक न्याय दिलवाने का प्रयास किया। जब जस्टिस पार्टी सत्ता में थी, तब मुख्यमंत्री समय-समय पर पेरियार से विचार विमर्श करते रहते थे।

जस्टिस पार्टी का शासनकाल आरक्षण के लिए तो याद किया ही जाता है, वह इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि इस सरकार ने कई आदेश जारी कर दलितों को उनके अधिकार दिलवाए। इनमें हिन्दू मंदिरों में प्रवेश का अधिकार, मुख्य सड़कों पर चलने का अधिकार, बस में यात्रा करने का अधिकार, थियेटरों में प्रवेश का अधिकार और सार्वजनिक तालाबों से पीने का पानी लेने का अधिकार शामिल था। शिक्षा में भेदभाव को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। इसके अतिरिक्त, इस सरकार ने म्यूनिसिपल स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए मुफ्त मध्याह्न भोजन की शुरूआत की और महिलाओं को वोट देने और चुनाव लडऩे का अधिकार दिया।

हिन्दू मंदिरों में चढ़ाए जाने वाले चढ़ावे को ब्राह्मण आपस में बांट लिया करते थे। जस्टिस पार्टी, देश की पहली ऐसी राज्य सरकार थी, जिसने हिन्दू धार्मिक व धर्मस्व ट्रस्ट की स्थापना की जो मंदिरों के धन का व्यवस्थापन करता था और इस धन को सरकार के कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च किया जाता था।

‘स्वतंत्रता’के बाद

सन् 1935 में पेरियार ने सरकार से यह अपील की कि वह राज्य सरकार की संस्थाओं की तरह मद्रास प्रेसीडेन्सी में स्थित केन्द्र सरकार की सभी संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था लागू करे। इस व्यवस्था के अंतर्गत 14 प्रतिशत पद ब्राह्मणों के लिए, 44 प्रतिशत गैर-ब्राह्मणों के लिए व 14 प्रतिशत दलितों के लिए आरक्षित किए जाते थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री राजा सर बोबली ने इस अपील को केन्द्र सरकार को अग्रेषित कर दिया। पेरियार और राजा सर बोबली के सघन प्रयासों से केन्द्र सरकार की संस्थाओं में 72 प्रतिशत आरक्षण लागू हो गया। यह ऐतिहासिक सरकारी आदेश, देश में ब्रिटिश शासन समाप्त होने तक लागू रहा। परंतु भारत के ‘स्वतंत्र’होने के कुछ ही समय बाद, भारत के ब्राह्मणवादी प्रशासकों ने इस आदेश को वापिस ले लिया।

पेरियार ने पहले ही यह भविष्यवाणी की थी कि ऐसा होगा। उन्होंने ‘विदुथलई’नामक दैनिक समाचारपत्र में दो लेख लिखे थे। एक का शीर्षक था ’15 अगस्त-वर्णाश्रम शासन के नए युग का उदय’व दूसरे का ‘अगस्त 15-ब्रिटिश-बनिया-ब्राह्मण संविदा दिवस’।

प्रथम संवैधानिक संशोधन

यह सन् 1950 की बात है। एक ब्राह्मण महिला शेनबागुम दुरईसामी को एक चिकित्सा महाविद्यालय में इसलिए प्रवेश नहीं दिया गया क्योंकि वह निर्धारित आयु सीमा पार कर चुकी थी। दुरईसामी ने इसके लिए आरक्षण को दोषी ठहराते हुए मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर, आरक्षण की व्यवस्था को रद्द करने की मांग की। इसी वर्ष की 28 जुलाई को मद्रास उच्च न्यायालय ने उसके पक्ष में अपना निर्णय सुना दिया। बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया। इस तरह, आरक्षण की व्यवस्था अचानक समाप्त हो गई। यह महत्वपूर्ण है कि शेनबागुम के वकील अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर थे जो कि संविधानसभा के सदस्य रह चुके थे।

मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय के एक सप्ताह के भीतर, 6 अगस्त 1950 को पेरियार ने मद्रास राज्य के लोगों से यह अपील की कि वे अपने अधिकारों को फिर से पाने के लिए संघर्ष शुरू करें। पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन हुए। पेरियार ने 14 अगस्त, 1950 को आम हड़ताल का आहवान किया और वह जबरदस्त सफल रही। उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल से अनुरोध किया कि आरक्षण अधिकारों की पुनस्र्थापना की जाए। सरकार ने उनकी अपील पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध) में संशोधन किया। अनुच्छेद 15(1) कहता है कि ”राज्य, किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा’’। अनुच्छेद 29(2) के अनुसार, ”राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा’’। अनुच्छेद 15 में खण्ड (4) जोड़ा गया जो कहता है, ”इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात, राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ेे हुए नागरिको के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी’’।

इस प्रकार, पेरियार ने कुटिल ब्राह्मणों द्वारा आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने के किसी भी प्रयास के विरूद्ध संवैधानिक व्यवस्था कर दी। अगर तीस शब्दों का यह खण्ड संविधान में नहीं जोड़ा गया होता तो तमिलों की कई पीढिय़ां शिक्षा से वंचित रह जातीं और शेष भारत को रास्ता दिखाने वाला कोई राज्य न होता और ना ही सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान हो पाता। पेरियार के कारण भारत के पिछड़े वर्गों की आने वाली पीढिय़ां शिक्षा से वंचित नहीं रहेंगी।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

टी. थमराई कन्नन

पेरियादवादी सामाजिक कार्यकर्ता टी. थमराई कन्नन "कात्तारु : वैज्ञानिक संस्कृति का तमिल प्रकाशन" की संपादकीय-व्‍यवस्‍थापकीय टीम के संयोजक हैं। उनकी संस्था 'कात्तारु' नाम से एक तमिल मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी करता है।

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