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यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (अंतिम भाग)

चीवर धारण करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर माह में मोहनदास नैमिशराय भंते विमल धम्मा के रूप में श्रीलंका की यात्रा पर गए थे। इस यात्रा संस्मरण के पहले भाग में उन्होंने श्रीलंका के विभिन्न बौद्ध स्थलों व बौद्ध संस्कृति के बारे में बताया। अंतिम भाग में वे बता रहे हैं श्रीलंका में बौद्ध धर्म से जुड़े इतिहास के बारे में

पिछले भाग से आगे

जब हम श्रीलंका में बौद्ध धर्म के इतिहास, संस्कृति और साहित्य के बारे में बात करते हैं तब सर एडविन अर्नोल्ड के द्वारा बौद्ध धर्म को दी गई सेवा के बारे में जिक्र करना बहुत जरूरी है। उन्होंने बुद्ध के जीवन और उनकी देशनाओं पर लंबी कविता की रचना ‘द लाइट ऑफ एशिया’ नाम से की थी। यह 1879 में इंग्लैंड से प्रकाशित हुई थी। असल में कविता की रचना से पहले उन्होंने बोधगया में बिखरे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संपदा का अध्ययन किया था, जिससे वे प्रभावित हुए थे। उनका जन्म इंग्लैंड में 10 जून, 1832 को हुआ था और वे 1857 में पुणे के दक्कन कॉलेज के प्रधानाचार्य बनकर आए। इस बीच बौद्ध धर्म में उनकी रुचि हो गई।

सन् 1885 में सर एडविन बोधगया गए। उस समय भारत की अंग्रेजी सरकार के द्वारा महाविहार की मरम्मत का कार्य और जीर्णोद्धार करवाया जा रहा था। उन्हें यह देख कर अच्छा लगा। लेकिन दुख भी हुआ कि इस पवित्र स्थल को वहां का महंत अपवित्र कर रहा था। उस महंत से उन्होंने बोधि वृक्ष की कुछ हरी पत्तियां लेने के बाबत पूछा। स्वीकृति मिलने पर सर एडविन ने गहरे हरे रंग की चार-पांच पत्तियां तोड़ ली।

बौद्ध धर्म के अध्ययन के लिए 1886 में एडविन जब भारत से श्रीलंका गए तो अपने साथ बोधि वृक्ष की पवित्र पत्तियां भी लेते गए, जिसे उन्होंने कैंडी स्थित दांत विहार के भिक्षुक को दे दिया। बताया जाता है कि इसी बौद्ध विहार में बुद्ध का दांत संरक्षित है। बोधगया महाबोधि महाविहार से लाए गए बोधि वृक्ष के पत्तों को जब उन्होंने वहां के एक भिक्षुक को भेंट किया तो उस भिक्षुक ने उन पत्तियों को न केवल तत्परता और उत्साह के साथ स्वीकार किया, बल्कि उन्होंने सोने की मंजूषा पेटी में रख दिया और बाद में वहां साप्ताहिक पूजा का केंद्र भी बना दिया गया। जब श्रीलंका के उपासकों और भिक्षुओं ने एडविन से अनुरोध किया कि बोधगया महाविहार को ब्राह्मणों से मुक्त कराया जाए तब इस मामले को लेकर एडविन ने सीलोन के गवर्नर सर आर्थर गोर्डन से भी बात की। उन्होंने अनुरोध किया कि वे भारत और इंग्लैंड की सरकारों के अधिकारियों से बात करें ताकि बोधगया महाविहार को बौद्धों के हाथों में दे दिया जाए। तब गवर्नर ने इस अनुरोध को तुरंत स्वीकार कर लिया और इस मामले को ब्रिटिश सरकार के पास भेजा।

सर एडविन की लंबी कविता ‘द लाइट ऑफ एशिया’ की कुछ पंक्तियां हैं–

तुम जो देखना चाहो, कहां अवतरित हुई थी ज्योति अंततः,
उत्तर पश्चिम की ओर सहस्त्र वन से जाओ
गंगा की घाटी से होते हुए जब तक तुम्हारे चरण न पड़े
उन हरित पहाड़ियों पर जहां निकलती है वे युगल धाराएं,
निलाजन और मोहन करो उनका अनुसरण
टेढे-मेढ़े चौड़े पत्तों वाले महुआ वृक्षों के नीचे से

संसार और बिर के झाड़ी के बीच,
जब तक न आ जाओ उस मैदानी भाग में
जहां संगम होता है चिलगती भगिनियों का
फल्गु के पाट में, चट्टानी तटों को छूकर बहती हुई
गया और लाल बराबर पहाड़ियों की ओर
उस नदी से सटकर फैला है एक कंटीला उसर,
उरूवेला कहते थे जिसे प्राचीन युग में
टूटे बलवा टीलों वाला इसके तट पर एक वन
लहराता है समुद्री हरे शिखर गुच्छ आरपार आकाश के
वहीं झाड़ियों के बीच चुपचाप सरकती है एक धारा,

नीले श्वेत पद पुष्पों से छिटकी,
और आवासित चपल मीनों और कच्छपों से
इसके निकट अपने फूस के छप्पर उठाए
सेनानी ग्राम सिमटा था ताड़ के वृक्षों के बीच
सीधे सरल मनुजों और ग्राम्याश्रम में शांत

अब आज की बात करते हैं

श्रीलंका के बौद्ध धर्म के इतिहास में जाएं तो भारत और श्रीलंका में बौद्ध धर्म की यह यात्रा आज से लगभग ढाई हजार वर्षों पहले शुरू हुई थी। आज नई शताब्दी में भारत कहां है और श्रीलंका कहां। हम इस बात को इस तरह कह सकते हैं और कहना भी चाहिए कि नई शताब्दी में जहां श्रीलंका में बौद्ध धर्म के साथ साहित्य और संस्कृति का विकास हुआ है, वहीं भारत इस क्षेत्र में पिछड़ गया है। श्रीलंका जाने वाले हर लेखक, साहित्यकार और चिंतक को यही सब देखने और महसूस करने को मिलता है। एक छोटा-सा देश और बौद्ध धर्म के मामले में उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि। इस बात को हमें गंभीरता से लेनी चाहिए और भारत में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं तथा उपासकों को सीखना चाहिए, जैसा श्रीलंका के भिक्षुओं और उपासकों ने कर दिखलाया है।

श्रीलंका के एक बौद्ध विहार में बच्चों के संग लेखक मोहनदास नैमिशराय

इसको ऐसे भी देखें कि श्रीलंका की सिरीया दतवारे डायस, जिन्हें आमतौर पर सिरी मावो भंडारनायके के नाम से जाना जाता है, जो 22 जुलाई, 1960 को श्रीलंका की प्रधानमंत्री बनीं। वह दुनिया की किसी भी देश में बनने वाली पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। शपथ ग्रहण समारोह के बाद उन्होंने कोलंबो के प्रसिद्ध बौद्ध विहार में जाकर बुद्ध की अर्चना की थी। मैं यहां उनका उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि वहां के बड़े से बड़े पद पर आसीन व्यक्ति भी तथागत बुद्ध का सम्मान करते हैं। जाहिर तौर पर जब वह तथागत का सम्मान करेंगे तो आम जन अपनेआप बुद्ध के बताए मार्ग पर चलने का प्रयास करेंगे।

बुद्ध के मानवीय सिद्धांतों के संबंध में श्रीलंका के ऐतिहासिक धरोहर

बौद्ध धर्म और संस्कृति ने विदेशी अध्येताओं को प्रभावित किया था। इसमें व्यापार के लिए बने रेशम मार्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। न जाने कितने लेखकों और अनेक दार्शनिकों के अलावा अनेक जिज्ञासु यात्री इसी मार्ग से चलकर भारत की अनुपम सभ्यता और संस्कृति से रू-ब-रू हुए और अपने देश लौटे।

श्रीलंका के बारे में लिखा जाए तो 1972 तक सीलोन नाम था। 1978 में बदलकर श्रीलंका हो गया। आरंभ में अनुराधापुर राजधानी थी। पाठकों को बता दूं कि संघमित्रा के परिनिर्वाण के बाद अनुराधापुर में बनवाई गई उनकी समाधि है जो पूर्व में चित्रशाल के पास बोधि वृक्ष के सामने स्थित है। उत्तिया, जो उस समय राजा थे, ने संघमित्रा की मृत्यु होने पर एक स्तूप भी बनवाया था, जो आज भी मौजूद है। निश्चित ही सम्राट अशोक की बेटी संघमित्रा और उनके बेटे महेंद्र की कर्मभूमि श्रीलंका रही। दोनों ने बुद्ध के संदेशों के प्रचार-प्रसार में अपना जीवन अर्पित कर दिया था। देखा जाता है कि श्रीलंका के राजा के साथ वहां के नागरिकों ने भी संघमित्रा का सम्मान किया। वे आज भी उनकी समाधि पर जाते हैं, फूल अर्पित करते हैं और उनके बताए मार्ग पर विशेष रूप से महिलाएं आगे बढ़ती हैं। अपने परिवार का पालन-पोषण बुद्ध के बताए अनुसार करती हैं।

यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में घोषित बुद्ध दांत मंदिर के अलावा श्रीलंका में लगभग 6 हजार बौद्ध मंदिर हैं, जिनमें 15 हजार भिक्षु और भिक्षुणी हैं, जो गांवों, कस्बों और शहरों में बने बौद्ध विहारों में रहते हैं। कुछ बौद्ध विहार समुद्र तट पर और कुछ वनों में भी हैं।

श्रीलंका में बौद्ध तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत से आया था और तब से यह श्रीलंका का प्रमुख धर्म बन गया। यहां बौद्ध धर्म की स्थापना राजा देवनापी दिशा के शासनकाल में हुई थी।

वर्ष 2012 में हुई जनगणना के मुताबिक थेरवादी बौद्ध धर्मावलंबियों की आबादी श्रीलंका में 70.2 फीसदी है। बौद्ध धर्म विशेषकर थेरवाद बौद्ध धर्म देश का आधिकारिक धर्म है। यह श्रीलंका द्वीप तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में दूध घोष के रूप में प्रख्यात विद्वानों के उत्पादन और विशाल पाली के सिद्धांतों के संरक्षण में बौद्ध धर्म की शुरुआत के बाद बौद्ध धम्म के बारे में ज्ञान का केंद्र रहा है। यह धर्म श्रीलंका की संस्कृति और इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। राजनीतिक स्थिति के बारे में कहें तो सोलहवीं सदी में इसे पुर्तगालियों ने अपने अधिकार में लिया था और सत्रहवीं सदी में इसे डचों ने अपने अधिकार में ले लिया। उसके बाद 1796 में डचों ने इसे अंग्रेजों को सरेंडर कर दिया। बाद में 1802 में यह अंग्रेजों का एक प्रमुख उपनिवेश बन गया। 1948 में अंग्रेजों से इसे आजादी मिल गई और तब 1972 में देश का नाम श्रीलंका रख लिया गया।

(समाप्त)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मोहनदास नैमिशराय

चर्चित दलित पत्रिका 'बयान’ के संपादक मोहनदास नैमिशराय की गिनती चोटी के दलित साहित्यकारों में होती है। उन्होंने कविता, कहानी और उपन्यास के अतिरिक्त अनेक आलोचना पुस्तकें भी लिखी।

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