देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाबू जगजीवन राम के जीवन और उनके संघर्षो पर कई पुस्तकें लिखी गयीं हैं। लेकिन राजेंद्र प्रसाद द्वारा उनके जीवन पर लिखी पुस्तक (जगजीवन राम और उनका नेतृत्व) उनसे कुछ हटकर है। इसमें लेखक ने उनके सकारात्मरक पक्षों के साथ-साथ नकारात्मक पक्षों को भी पूरी संजीदगी और प्रतिबद्धता के साथ उठाया है। लेखक स्वयं बाबूजी के काफी करीबी रहे हैं और उनके साथ उन्होंने काम भी किया है। बाबूजी को लेकर आम धारणा, उनकी व्यरक्तिगत जिंदगी, राजनीतिक संघर्ष, महत्वपूर्ण भाषण और कई अनछुए पहलुओं को पुस्तक में शामिल किया गया है।
चौबीस खंडों में विभाजित इस पुस्तक में उनके जन्म व प्रारंभिक शिक्षा, राजनीति में प्रवेश, जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं, सांसद व मंत्री के रूप में उनका योगदान, अंतिम यात्रा व श्रद्धांजलियों तक को शामिल किया गया है। पुस्तक की प्रस्तावना गांधी संग्रहालय के मंत्री डॉ रजी अहमद ने लिखी है। अपनी प्रस्तावना में रजी अहमद ने लिखा है कि ‘बाबू जगजीवन राम ने संघर्षशील मगर कामयाब जिदंगी गुजारी। उन्हें बिहार की सामाजिक बुनावट की कड़वी सच्चाईयों से जूझना पड़ा। जगजीवन राम देश के प्रतिभावान नेता थे, उन्हें दलितों के घेरे में बंद नहीं किया जा सकता।’ पुस्तक की भूमिका में लेखक राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है कि ‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी, कई भाषाओं के जानकार, चिंतक और विचारक बाबूजी समय-समय पर हर वर्ग को जगाया करते थे। बाबूजी ने करीब पांच दशकों तक देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को प्रभावित किया।’
बाबूजी के संसदीय जीवन और कैबिनेट में उनकी भागीदारी की चर्चा करते हुए राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है कि वे 31 वर्षो तक चार प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में रहे। बाबूजी ने केंद्रीय विधानसभा, संविधानसभा और पहली आठ लोकसभाओं में लगातार बिहार के सासाराम संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। वे अंतरिम सरकार में सबसे कम उम्र के मंत्री थे। अंतरिम सरकार में वे 2 सितंबर 1946 को शामिल हुए थे, तब उनकी उम्र 38 साल की थी। केंद्रीय मंत्री के रूप में 1952 से 1979 तक उन्होंने संचार, रेल, परिवहन, श्रम, नियोजन एवं पुनर्वास, खाद्य, कृषि, सिंचाई, सहकारिता और रक्षा मंत्री के रूप में कई ऐतिहासिक काम किए, जो देश के लिए मील के पत्थर साबित हुए।
बाबूजी के समक्ष कई बार प्रधानमंत्री बनने का मौका भी आया लेकिन परिस्थितिवश हर बार वे मौका चूक गए। हालांकि वे उपप्रधानमंत्री जरूर बने। इस संबंध में लेखक राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है कि उन्हें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यदि बाबूजी अनुसूचित जाति के नहीं होते तो प्रधानमंत्री अवश्य बन गए होते। प्रधानमंत्री पद की राह में जाति प्रथा का कलंक हमेशा बाबूजी के लिए अवरोध बना रहा। राजनीति में लंबी पारी और उत्तरोत्तर आगे बढऩे वाले जगजीवन राम षड्यंत्र के शिकार हुए परन्तु दलित समाज के शासन-प्रशासन में हिस्सेनदार बनने का जो सपना डॉ आंबेडकर ने देखा था, उसे बाबूजी ने पूरा किया।
बिसरती विरासत
जगजीवन बाबू ने अपने जीवनकाल में कई संस्थाओं को खड़ा किया था, जिनका मकसद अनुसूचित जाति और कमजोर वर्ग के लोगों को मदद करना था। लेकिन उनके देहांत के बाद एक-एक कर सभी संस्थारएं ध्वस्त हो गयीं। ये संस्थाएं या तो बदहाल हो गयीं या उनके परिजनों की निजी संपत्ति बन गयीं। जगजीवन विद्या भवन (नई दिल्ली), रविदास स्मारक (राजघाट, काशी), जगजीवन सेवा आश्रम (सासाराम), भारतीय दलित साहित्य अकादमी समेत अनेक संस्थााएं बदहाल हैं। बाबूजी के पैतृक गांव चंदवा में बना उनका समाधि स्थल भी विवादों के घेरे में है। लेखक ने लिखा है कि ‘बाबूजी एक भविष्यद्रष्टा थे। वे अपने समय से आगे सोचा करते थे। वे मानते थे कि ज्ञान एक बड़ी शक्ति है इसलिए उन्हों ने ज्ञान की साधना करने वाली संस्था ओं का शिलान्या स और उद्घाटन किया।…..लेकिन यह दुखद है कि बाबूजी की विरासत को आगे ले जाने वाला कोई नहीं है।’
छह माह में दूसरा संस्करण
इस पुस्तक का पहला संस्करण फरवरी 2015 में आया था और कम समय में ही पाठकों के हाथों तक पहुंच गया। इसका दूसरा संशोधित संस्करण जुलाई 2015 में बाजार में आया है। लेखक राजेंद्र प्रसाद आईआईटी के छात्र रहे हैं और फि लहाल बिहार सरकार में सेवारत हैं। उनकी अब तक करीब दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘जगजीवन राम और उनका नेतृत्व’ उनकी नवीनतम पुस्तक है।
(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )