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पंडित और फिक्सर

अगर हम उपयुक्त भेंट देकर ग्रह-नक्षत्रों और भगवानों को प्रसन्न कर सकते हैं तो आश्चर्य नहीं कि हम इसे बहुत स्वाभाविक और उचित मानते हैं कि हम उनसे कहीं कम शक्तिशाली राजनेताओं और अफसरों को उपयुक्त भेंट देकर अपने काम करवाएं। और जिस तरह हम ईश्वर या ग्रह-नक्षत्रों को सीधे भुगतान नहीं करते बल्कि पंडित को करते हैं, उसी तरह राजनेता या अफसर से कोई काम करवाने के लिए हम फिक्सर को पैसे देते हैं

प्रिय दादू,

मुझे उन परजीवी दलालों से बहुत चिढ़ है जो पैसे लेकर दूसरों के काम करवाते हैं। बल्कि मैं इस वर्ग के लोगों से घृणा करता हूं।

ये ‘फिक्सर’ अक्सर बुद्धिमान और पढ़े-लिखे व्यक्ति होते हैं परंतु वे कोई उत्पादक या उपयोगी काम नहीं करते। लीच की तरह वे सबका – चाहे वह गरीब हो या अमीर – खून चूसते हैं और मोटे होते जाते हैं। और यह सिर्फ  इसलिए क्योंकि उनकी राजनेताओं या अफसरों तक पहुंच होती है या वे उन्हें नियंत्रित करते हैं।

अगर कोई काम कानूनी है और उसे करना संबंधित अधिकारी का कर्तव्य है तब दलाल का शुल्क अपेक्षाकृत कम होता है परंतु यदि हम सही ‘फिक्सर’ को ढूंढ निकालें और उसे मुंहमांगा शुल्क देने को तैयार हों तो हमारे देश में पूरी तरह गैरकानूनी और अनैतिक काम भी आसानी से करवाया जा सकता है।

हम इन दलालों को क्यों झेल रहे हैं? क्या लीचों की तरह इन्हें भी खत्म नहीं कर दिया जाना चाहिए?

सप्रेम,

शिव

प्रिय शिव,

मुझे तुम्हारे जैसे युवा के इस वर्ग के लोगों के प्रति गुस्से को देखकर बहुत खुशी हुई। अगर हम भारतीयों में से कुछ ही तुम्हारी तरह सोचने लगें तो ये ‘फिक्सर’ सचमुच गायब हो जाएंगे।

परंतु आओ, हम ठंडे दिमाग से पूरी स्थिति का आंकलन करें ताकि हम इस समस्या को समझ सकें और उसकी जड़ कहां है, वह पता लगा सकें ।

PrSasiwithhisfatherअगर हमारी न्याय व्यवस्था, देश में आज जितने भी ‘फिक्सर’ हैं, उन सबकी पहचान कर उन्हें फांसी पर भी लटका दे, तब भी, अगले ही दिन, ‘फिक्सरों’ की नई फौज खड़ी हो जाएगी। इसका कारण यह है कि केवल फिक्सरों को खत्म करने से समस्या खत्म नहीं होगी। असली समस्या क्या है?

फिक्सरों का नया समूह इसलिए खड़ा हो जाएगा क्योंकि फिक्सरों की इस व्यवस्था का निर्माण राजनेता और नौकरशाह खुद ही करते हैं। बहाना यह होता है कि चूंकि हमारे देश में संसाधनों के मामले में एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है इसलिए राजनेताओं और नौकरशाहों को निजी सचिवों (या रिश्तेदारों या किसी अन्य विश्वसनीय व्यक्ति) की ज़रूरत होती है, ताकि वे उनका समय बर्बाद करने वालों और फालतू लोगों को अपने से दूर रख सकें। और हमारी अनैतिक संस्कृति में ये ‘छन्ने’ जल्दी ही ‘फिक्सर’ बन जाते हैं, विशेषकर तब, जब उन्हें सत्ताधारियों तक पहुंच दिलवाने के लिए पैसा मिलने लगे।

जब मैं यह कहता हूं कि हमारी संस्कृति अनैतिक है, तो मेरा क्या अर्थ है? विवाह जैसी सामान्य चीज़ के बारे में सोचो। हमारे चतुर पुरोहितों और पंडितों ने हमें यह विश्वास दिला दिया है कि हमारे जीवन पर ग्रह-नक्षत्रों का नियंत्रण है और इसलिए यदि वर-वधु के ग्रह नहीं मिलेंगे तो उनका विवाह सफ ल नहीं होगा। परंतु पुरोहित या पंडित को उपयुक्त दक्षिणा देने पर वह ऐसा कुछ कर्मकांड या पूजा कर देता है जिससे ग्रह अपनी वक्रदृष्टि बदल लेते हैं और फिर, कम से कम पंडित के अनुसार, सब कुछ अनुकूल हो जाता है। हमारे देश में केवल ग्रह-नक्षत्रों को ही प्रसन्न नहीं किया जाता, हमारे भगवानों को भी रिश्वत देकर हम अच्छा स्वास्थ्य, नौकरी या कोई भी अन्य चीज़ हासिल कर सकते हैं। भगवानों और ग्रह-नक्षत्रों को प्रसन्न करने का काम हम स्वयं नहीं कर सकते। यह काम कोई पंडित ही कर सकता है क्योंकि उसमें ही यह करने की योग्यता होती है और हमें उसे उसकी मेहनत का पारिश्रमिक देना होता है।

पैसे से कुछ भी हो सकता है

अगर हम उपयुक्त भेंट देकर ग्रह-नक्षत्रों और भगवानों को प्रसन्न कर सकते हैं तो आश्चर्य नहीं कि हम इसे बहुत स्वाभाविक और उचित मानते हैं कि हम उनसे कहीं कम शक्तिशाली राजनेताओं और अफसरों को उपयुक्त भेंट देकर अपने काम करवाएं। और जिस तरह हम ईश्वर या ग्रह-नक्षत्रों को सीधे भुगतान नहीं करते बल्कि पंडित को करते हैं, उसी तरह राजनेता या अफसर से कोई काम करवाने के लिए हम फिक्सर को पैसे देते हैं। किसी छोटे-मोटे या रोजमर्रा के काम के लिए शुल्क का मोलभाव करने या उसे वसूलने का काम राजनेताओं और अफसरों को अपनी शान के खिलाफ  लगता है और इसलिए यह काम फिक्सर करता है। सुदामा की कहानी हमें बताती है कि दलालों, मध्यस्थों, चैकीदारों और फि क्सरों को उपकृत कर अपना काम करवाने की परंपरा हमारे देश में आदिकाल से चली आ रही है।

जो धन हम फिक्सर को देते हैं, वह उसकी जेब में नहीं जाता। वह धन उसके ऊपर वालों – अर्थात राजनेता या अफसर – से लेकर नीचे वालों तक में बंटता है ताकि सब चुप रहें और वफादार बने रहें। अगर कोई व्यक्ति बहुत बड़ा या गैरकानूनी काम करवाना चाहता है तब राजनेता या अफसर उसके साथ स्वयं बैठकर अपने शुल्क का निर्धारण करते हैं परंतु इस शुल्क का कुछ हिस्सा भी फिक्सरों और नीचे वालों तक पहुंचता है।

दूसरे शब्दों में, फिक्सर समस्या नहीं है। फिक्सर तो केवल समस्या का लक्षण है। समस्या है वह राजनेता या अफसर और उसके कार्यालय या विभाग के सभी अधिकारी व कर्मचारी, जो फिक्सर का इस्तेमाल धन कमाने के लिए करते हैं। अगर किसी कार्यालय में कोई ईमानदार व्यक्ति होता भी है तो उसे या तो कोने में पटक दिया जाता है या स्थानांतरित कर दिया जाता है या उसे नौकरी से ही बाहर कर दिया जाता है। पुराने समय में लोग अपनी योग्यता से नौकरियां पाते थे और बाद में व्यवस्था उन्हें भ्रष्ट बना देती थी। अब तो व्यवस्था ही इतनी भ्रष्ट हो गई है कि आपको उसमें प्रवेश पाने के लिए भी शुल्क देना पड़ता है। आप केवल अपनी योग्यता के आधार पर कोई पद पाने की कल्पना भी नहीं कर सकते।

तो अब तुम यह समझ ही गए होगे कि केवल आज के ‘फिक्सरों’ को ठिकाने लगाने से कुछ नहीं होगा। हमें पूरी व्यवस्था को ही जड़मूल से बदलना होगा। हमारी पारंपरिक संस्कृति में यह करने की क्षमता ही नहीं है, जैसा कि आरएसएस, विहिप व भाजपा में जो कुछ हो रहा है, उससे जाहिर है।

परंतु ऐसा नहीं है कि व्यवस्था को बदला ही नहीं जा सकता। नि:संदेह उसे बदला जा सकता है। क्यों और कैसे इसकी चर्चा मैं अपने अगले पत्र में करूंगा।

सप्रेम

दादू

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

दादू

''दादू'' एक भारतीय चाचा हैं, जिन्‍होंने भारत और विदेश में शैक्षणिक, व्‍यावसायिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में निवास और कार्य किया है। वे विस्‍तृत सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक मुद्दों पर आपके प्रश्‍नों का स्‍वागत करते हैं

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