मुद्राराक्षस जाने-माने हिंदी लेखक हैं जिनके नाटक, लघुकथाएं और अन्य कृतियां क्रांतिकारी रूप में बहुजन सशक्तिकरण के मुद्दे उठाती हैं। स्वयं एक ओबीसी लेखक, मुद्राराक्षस ने भारत के स्वतंत्रता दिवस पर फॉरवर्ड प्रेस से बातचीत की। प्रस्तुत हैं कुछ अंश:
इस महीने भारत अपना 63वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। आपके इस बारे में क्या विचार हैं? क्या हम अपने समाज में प्रजातांत्रिक और मानवतावादी मूल्यों का प्रसार करने में सफल रहे हैं?
15 अगस्त 2010 के इस दिन, हमें देखना होगा कि भारत पर कौन राज करता है। हम जानते हैं कि लोग जो हम पर राज करते हैं वे हिंदू हैं जिनको आकार और संस्कार देने वाले ब्राह्मण हैं, एक ऐसा कुल जिसके मन में मानव मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं। 19 वीं सदी के एक क्राँतिकारी समाजशास्त्री थोस्रटीन वेबलेन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द थ्योरी ऑफ़ द लिबरल’ क्लास में उचित ही कहा है कि ब्राह्मण विलासी वर्ग का हिस्सा हैं, जिन्होंने मानव इतिहास में कोई सृजनात्मक भूमिका नहीं निभाई। भारत में सत्तासीन वर्ग के साथ सांठगांठ करके उन्होंने हमारे समाज के बहुसंख्यक वर्ग को मान न देकर ”पिछड़ा’’ बनाए रखा है, बिना किसी सामाजिक, सांस्कृतिक या आर्थिक अधिकार के।
आप हिंदू बौद्धिक उपलब्धियों की काफी निराशाजनक तस्वीर पेश कर रहे हैं। अक्सर यह दावा किया जाता है कि ब्राह्मणवादी विचारधारा ही सच्ची भारतीय विचारधारा है। ब्राह्मणवादी लेखकों ने भारतीय राष्ट्रवाद में काफी योगदान दिया है: वे तो मातृभूमि की भी पूजा करते हैं, भारत माता की।
भारत में हिंदू मनुष्य को छोड़ हर वस्तु को आदर्श बनाता और उसकी पूजा करता है। हिंदू एक विचित्र समुदाय है जो जानवरों के मल की भी पूजा करता लेकिन मनुष्य से घृणा करता है। केवल यहीं नहीं, हिंदू सीखने से और किसी भी प्रकार के ज्ञान और वैज्ञानिक खोज से भी घृणा करता है।
शंकराचार्य जैसे महान दार्शनिकों के बारे में आपका क्या कहना है?
यदि हम भारतीय इतिहास को देखें तो हम पाते हैं कि शंकराचार्य के भक्ति आंदोलन के आने के बाद हिंदू धर्म ने बौद्ध धर्म का दमन किया। यह जानना दिलचस्प है कि इस हिंदू विचारक ने दार्शनिक विचार पर एक भी पुस्तक नहीं लिखी। वह न तो मौलिक चिंतक थे और न ही दार्शनिक। उन्होंने किन्हीं प्राचीन कृतियों की विवेचना मात्र ही की है, जैसे कि गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषद। भारत में मौलिक दार्शनिक कृतियाँ बौद्ध विचारकों ने रची थीं न कि हिंदू ब्राह्मणों ने।
ब्राह्मण भारत के शिक्षक रहे हैं फिर भी आप कहते हैं कि उन्होंने मानवतावादी मूल्यों का प्रसार नहीं किया।
यह गलत प्रचार किया गया है कि भारत में ब्राह्मणों का काम शिक्षा देना और शिक्षा लेना था। उपनिषद हमें साफ बताते हैं कि ब्राह्मण मात्र अपनी धार्मिक पुस्तकों की शिक्षा ब्राह्मण छात्रों को देते थे जिसका एकमात्र उद्देश्य था उन्हें हिंदू कर्मकांडों में कुशल बनाना। प्रत्येक उपनिषद साफ-साफ कहता है कि सीखने का वास्तविक लक्ष्य था ब्रह्म को जानना, अर्थात्, ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त करना, और जो कुछ एक ब्राह्मण जानता है ब्रह्म ज्ञान वही है। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ब्राह्मण की मूर्खता भी ब्रह्म ज्ञान है।
यह तो घुमावदार तर्क हुआ।
गौर करने वाली दिलचस्प बात यह है कि किसी भी ब्राह्मण के लिए ज्ञान का सर्वोच्च रूप ब्रह्म का ज्ञान है लेकिन कोई ब्राह्मण पुस्तक हमें यह नहीं बताती कि ब्रह्म क्या है। ब्राह्मण पुस्तकें केवल यह कहती हैं कि ब्रह्म वह है जो केवल एक ब्राह्मण को पता है। यदि एक ब्राह्मण मूर्खता को भी ब्रह्म कहे तो उस पर विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण से न तो सवाल किया जा सकता है और न उसका विरोध किया जा सकता है। महाभारत का भीष्म पर्व, वह अध्याय जो भीष्म से संबंधित है, कहता है कि वह जो ब्राह्मण को अपने तर्क से पराजित करता है उसे दुष्ट माना जाए और डंडों से उसकी पिटाई की जाए।
कई आधुनिक राष्ट्रीय नेता, जैसे कि गांधी, इस प्रकार की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते। क्या उन पर भी आरोप लगाएंगे?
दु:ख की बात है कि गांधी ने भी जाति-आधारित हिंदू धर्म की इस मानव विरोधी सामाजिक व्यवस्था को समर्थन दिया। हमारी लगभग आधी जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे रहती है और इस सारे तबके — दलित, ओबीसी या फिर अनुसूचित जनजाति — की नियति धरती के बदकिस्मत लोग बन कर ही रहने की होगी यदि हिंदू धर्म राज करना जारी रखता है।
आप बहुजन के लिए आशा कहां देखते हैं? समकालीन, स्वतंत्र भारत में उनके लिए क्या सकारात्मक होता दिखता है?
जब तक ब्राह्मणवाद पराजित नहीं होता तबतक कोई आशा नहीं है। ब्राह्मणवादी धार्मिक विचारों और कृतियों की आलोचनात्मक रीति से समीक्षा करनी होगी ताकि लोग समझ पाएँ कि किसने उन्हें गुलाम बना रखा है और किस प्रकार। भारतीय मनस पर ब्राह्मणवादी परछाई छाई हुई है और जब तक यह परछाई मिट नहीं जाती कोई भी सकारात्मक विचार उभरने वाला नहीं। यदि गरीबों और निस्सहायों की वर्तमान स्थिति को बदलना है तो वह तभी होगा जब हम सबसे पहले प्रचलित ब्राह्मणवादी विचारों की आलोचना करें। ब्राह्मणवादी धार्मिक पुस्तकों को आलोचनात्मक ढंग से जांचना होगा और ऐसे लोग हैं जो यह काम कर रहे हैं। लेकिन उनमें से कई संस्कृत नहीं जानते, इसलिए यह काम आधा ही हुआ है।
मुद्राराक्षस की पुस्तक धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ का अंग्रेजी अनुवाद रीरीडिंग हिंदुइज़्म शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है।
(फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2010 अंक में प्रकाशित)
Sir I went through this article (ie Interview). We should not aggregate the words ‘Hindu Dharm & Brahmin Dharm. They are separate in every manner. And also these two enemies are fighting among themselves since 5 thousand years. They are also known as battle camps fighting for their on interests. Hindu Bahujan camp wants to restore the equity, liberty and fraternity which the original stream of this country. While the Brahmin camp tries to impose the inhuman values like gender bias, caste system, un-touchability etc.
So we always keep it in our mind that Brahmin Religion and Hindu (Sindhu) culture are not the same. ..
Thanks..
Great Shrawan, what a classification you did? Hindu Dharam and Brahmin Dharam are two separate thing? what do you mean by Brahman Dharam? Is there any brahman dharam exist in India in Past or Present. Sindhu river made Hindu by the Britishers and this is not the religion. The early civilization of Indus valley civilization peoples are the native of this land and they love their culture, they do not know any religion but the crooked Brahmin wrongfully and forcefully impose on the Native of this land their own customs.