बंगाल के सबसे गरीब जिलों में से एक पुरूलिया के अकरबेद गांव के 28 वर्षीय बुधन को 10 फरवरी, 1998 को गिरफ्तार किया गया। एक सप्ताह तक पुलिस ने उसे घोर यंत्रणा दी और हिरासत में ही उसकी मृत्यु हो गई। वह खेरिया साबर (जो पश्चिम बंगाल में लोधा के नाम से जाती है ) नामक विमुक्त जनजाति का सदस्य था। पुलिस ने कहा कि उसने हिरासत में फांसी लगा ली थी। बाद में पश्चिम बांग्य खेरिया साबर कल्याण समिति नामक एक नागरिक अधिकार संगठन ने कलकत्ता हाईकोर्ट में पुलिस के विरूद्ध रिट याचिका (रिट याचिका क्रमांक 3715 / 1998) दायर की। अदालत ने पोस्टमार्टम का वीडियो, जिससे छेड़छाड़ की गई थी, को देखने के बाद आदेश दिया कि बुधन की देह को कब्र खोदकर निकाला जाए और उसका पुनः पोस्टमार्टम हो। दूसरे पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के आधार पर अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची की बुधन की मौत पुलिस यंत्रणा के कारण हुई थी (एमनेस्टी इंटरनेशनल रिपोर्ट, 2001:24)। अदालत ने राज्य सरकार को यह आदेश दिया कि बुधन की पत्नी को 80,000 रूपए और उसके माता-पिता को 5,000 रूपए का मुआवजा दिया जाए और पुरूलिया के जेल अधीक्षक और बुर्राबाज़ार पुलिस थाने के प्रभारी के खिलाफ कार्यवाही की जाए।
अमलासोल में लोधा समुदाय के व्यक्तियों की मौत
सन 2004 में अखबारों में यह खबर छपी कि पश्चिमी मेदिनीपुर जिले के बिनपुर-2 में स्थित अमलासोल नामक गांव में पांच लोधा भूख से मर गए। इस घटना पर पश्चिम बंगाल विधानसभा में हंगामा हो गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचारजी ने यह स्वीकार किया कि अमलासोल ही नहीं कई अन्य गांवों में ‘भुखमरी की स्थितियां हैं’ परंतु उनकी पार्टी ने कहा कि ये मौतें कुपोषण और चिकित्सा सहायता न मिलने के कारण हुई थीं। राज्य सरकार ने डाक्टरों का एक दल उस गांव में भेजा, जिसने यह रपट दी कि अवैध शराब के अत्यधिक सेवन और टीबी, पीलिया व मलेरिया जैसे रोगों के कारण मौतें हुई थीं। गांव का न तो सड़क संपर्क था ना ही वहां कोई चिकित्सा सुविधा उपलब्ध थी और गांव की राशन दुकान लगभग बंद रहा करती थी (इकोनामिक एंड पोलिटिकल वीकली 2004:2541)। जिला मजिस्ट्रेट चंदन सिन्हा ने भी हालात पर अपनी रपट सरकार को भेजी।
मुख्यमंत्री ने यह स्वीकार किया कि अमलासोल जैसे कई गांव हैं जिन्हें विकास की दरकार है और जिन पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। परंतु सरकार ने ज़मीनी स्तर पर कुछ नहीं किया और नतीजे में यह इलाका माओवादियों का गढ़ बन गया। कलकत्ता के कई बुद्धिजीवी और जानेमाने लोग इस क्षेत्र में गए और उन्होंने पाया कि विकास का नितांत अभाव, सरकार व सत्ताधारी दल के प्रति लोगों के गुस्से का मुख्य कारण है।
आईए पीछे चलें
ऊपर उल्लेखित दोनों घटनाएं अचानक नहीं हुई थीं। इनके पीछे इतिहास था-शोषण, मानवाधिकारों के उल्लंघन और सामाजिक बहिष्कार का इतिहास; सरकार की इन बेआवाज़ लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय न दे पाने का इतिहास। इन लोगों को औपनिवेशिक सरकार ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था, जिसे स्वतंत्र भारत की सरकार ने बदल कर पहले ‘विमुक्त जनजाति व आदिम जनजातीय समूह’ और बाद में ‘पर्टिकुलरली वलनरेबिल ट्रायबल ग्रुप’ कर दिया।
अपने एक हालिया लेख में मानवशास्त्री अनातासिया पिलियाविस्की ने इस मान्यता को चुनौती दी कि कुछ जनजातियों पर आपराधिक जनजाति का लेबल चस्पा करने का काम हमारे औपनिवेशिक शासकों ने किया था। उन्होंने कई प्राचीन संहिताओं, लोक कथाओं, जैन, बौद्ध और ब्राह्मणवादी आख्यानों, मुगल स्त्रोतों और पूर्व-आधुनिक यूरोपीय प्रवासियों के यात्रावृत्तांतों के हवाले से यह बताया कि पूर्व-औपनिवेशिक काल में भी ‘चोर जातियों’ की अवधारणा थी। उनका तर्क है कि यह विचार कि कुछ जातियों के लोग जन्मजात चोर होते हैं, अंग्रेज़ों का आयात नहीं था वरन भारतीय उपमहाद्वीप में पहले से मौजूद था। अनातासिया के अनुसार जहां आपराधिक जनजाति की अवधारणा का इस्तेमाल औपनिवेशिक शासकों ने ऐसे समुदायों, जिन्हें ब्रिटिश कानून जन्मजात अपराधी कहता था, के खिलाफ वीभत्स हिंसा करने के लिए किया वहीं यह भी सही है कि इस अवधारणा की जड़े देशीय थीं।
वीकिपीडिया के अनुसार ‘‘लोधा का अर्थ है मांस का टुकड़ा, जिसे पूर्वजों के नाम पर रखा गया हो। लोधा लोगों पर मानवशास्त्रियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ढेर सारे अध्ययन किए हैं। ब्रिटिश राज के शुरूआती काल में भारत सरकार ने जंगलमहल के आदिवासी लोगों, जो पारंपरिक रूप से अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर थे, का दमन किया। इन जनजातियों ने विद्रोह भी किया परंतु उसे क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया। उनके पास आजीविका का कोई स्त्रोत नहीं बचा और मजबूरी में उन्होंने अपराध की दुनिया में प्रवेश किया और बाद में उन्हें आपराधिक जनजाति कहा जाने लगा। दरअसल उन्हें ऐसा विद्रोही कहा जाना चाहिए जिन्हें अपनी ज़मीन से जुदा कर दिया गया है। लोधा लोगों के कुलनाम नायिक, मल्लिक, दिगर, सरदार, भोकता, कोटल, डंडापथ, भूनिया इत्यादि होते हैं। ये कुलनाम सामाजिक ज़िम्मेदारी को प्रतिबिम्बित करते हैं।’’(http://en.wikipedia.org/wiki/Lodha_people, accessed 21 October 2014)
स्वतंत्रता के बाद से ‘पूर्व अपराधी’ व ‘विमुक्त’ लोधा समुदाय ने उच्च हिंदू जातियों ही नहीं बल्कि क्षेत्र की वर्चस्वशाली जनजाति संथालों के हाथों भी घोर अपमान और मानवाधिकारों का उल्लंघन भोगा है। मानवशास्त्री प्रमोद भौमिक ने अपने एक लेख में तत्कालीन मिदनापुर जिले में सुबरनरेखा नदी के किनारे सितंबर 1979 लोधा लोगों का पीछा कर उनमें से 31 की क्रूरतापूर्वक गर्दन काट दिए जाने और बाकी को बंदी बनाये जाने की घटना का जिक्र किया है। इसी लेख में उन्होंने बताया है कि सन 1968 में संथालों ने इस शक की बिना पर कि लोधा आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं, लोधाओं के 18 गांवों के सभी घरों को आग के हवाले कर दिया था। पश्चिम बंगाल में लोधाओं के हशियेकरण की प्रक्रिया की एक अन्य महत्वपूर्ण साक्षी महाश्वेता देवी थीं। उन्होंने न केवल लोधाओं की घोर गरीबी और शोषण पर लिखा बल्कि उन्होंने कई दशकों तक समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए भी काम किया। इकोनामिक एंड पालिटिकल वीकली में प्रकाशित अपने एक लेख में महाश्वेता देवी ने बताया कि किस तरह 1982-83 में जब लोधाओं ने अपने समुदाय के संगठन ‘लोधा साबर कल्याण समिति’ को पुनर्जीवित किया तब वे कितने उत्साहित और प्रसन्न थे।
‘अंधेरे में प्रकाश की किरण’’
पश्चिमी मेदनीपुर जिले के पूर्व जिला मजिस्ट्रेट चंदन सिन्हा ने लोधा विकास कार्यक्रम की सफलताओं के बारे में लिखा है। अपनी पुस्तक ‘किंडलिंग ऑफ़ एन इनसरेशनः नोट्स फ्राम जंगलमहल (रूलेज 2013) में सिन्हा लिखते हैं कि सरकार द्वारा अपनी एक योजना के अंतर्गत उन्हें दी गई मुर्गियों और मवेशियों की झरग्राम के लोधा परिवारों ने व्यक्तिगत व समुदायिक स्तर पर कितने अच्छे से देखभाल की और अपने श्रम से एक सरकारी योजना के अंतर्गत अपने लिए मकान बनाए।
सिन्हा के शब्दों में ”…अंधेरा हो चला था परंतु टार्च की रोशनी में हम लोग हरी और प्रमिला साबर के घर पहुंचे। मैंने देखा कि हरी साबर अकेले ही अपने मकान की नींव खोद रहा था। मैंने उससे पूछा कि वह इतनी देर रात तक काम क्यों कर रहा है। उसने बताया कि वो दिन में साल की पत्तियां इकट्ठी करने जंगल गया था। लौटने पर उसने देखा कि नींव का कुछ हिस्सा अभी भी अधूरा था और उसने तय किया कि वह सोने से पहले खुदाई का काम पूरा करेगा। यह देखकर मुझे आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई विशेषकर इसलिए क्योंकि लोग सामान्यतः यह मानते हैं कि लोधा कड़ी मेहनत और ज़िम्मेदारी से बचते हैं (सिन्हा 2013: 206-208)।
चंदन सिन्हा का यह दृष्टिकोण एक अपवाद है। वरना तो स्वाधीनता के सात दशकों बाद भी पुलिस सहित सभी सरकारी अधिकारी लोधा लोगों को नीची निगाहों से देखते हैं। उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी लोधाओं की यह छवि बनी हुई है कि वे मूलतः अपराधी हैं। प्रसिद्ध अध्येता, सामाजिक कार्यकर्ता और ‘डीनोटिफाइड नोमेडिक ट्राइब्स राईट्स एंड एक्शन ग्रुप के
न्यूजलेटर ‘बुधान’ के संपादक जी. देवी, 1998 में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखते हैं:
“स्वतंत्रता के तुरंत बाद, सरकार ने कुछ समुदायों को आपराधिक जनजातियाँ घोषित करने वाली अधिसूचना को रद्द कर दिया। इसके बाद कई अधिनियम लागू किये गए, जो ‘आदतन अपराधी अधिनियम’ कहे जाते हैं. इन अधिनियमों में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के अधिकांश प्रावधानों को जस का तस रख दिया गया, सिवाय इसके कि इनमें किसी समुदाय को जन्मजात अपराधी घोषित नहीं किया गया है। सामान्य तौर पर ऐसा लग सकता है कि अधिसूचना को रद्द करने और नए अधिनियम ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के पीड़ितों की समस्या को हल कर दिया होगा। परन्तु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि पुलिस बल और आमजन आज भी हमारे औपनिवेशिक शासकों द्वारा फैलाई गए इस धारणा से मुक्त नहीं हो सके हैं कि कुछ समुदाय जन्मजात अपराधी होते हैं (देवी 1998)।
स्वतंत्रता से लोधा और उन 100 से अधिक जनजातियों को क्या मिला, जिन्हें ‘डीनोटीफाई’ किया गया? क्या उन्हें, एम.एन.श्रीनिवास के शब्दों में, अपना ‘संस्कृतिकरण’ होने देना चाहिए या मानवशास्त्री निर्मल कुमार बोस के शब्दों में हिन्दू धर्म का भाग बन जाना चाहिए? अगर कोई उन्हें मंदिरों में प्रवेश का हक़ दिलाने या उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था के लिए संघर्ष करे तो भी क्या उन्हें कोई अंतर पड़ेगा? वे इतने दीनहीन हैं कि वे नोबेल विजेता अमर्त्य सेन द्वारा जिसे ‘कल्याणकारी राज्य’ निरुपित किया गया था, के द्वारा उपलब्ध करवाए गए किसी अवसर का इस्तेमाल करने में सक्षम नहीं हैं।