h n

फारवर्ड प्रेस और बौद्धिक लोकतंत्र

शायद उनके मन में एक कसक रह जाती है कि मैं धर्म की ताकत को क्यों नहीं समझना चाहता, इसी प्रकार मेरे मन में भी यह आता है कि आखिर वे भौतिकवाद की सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकार करते! मेरे देखे यही द्वंद्वात्मकता फारवर्ड प्रेस की ताकत रही है

lksfj;lksdjf;lsd
प्रमोद रंजन (मध्य में) फारवर्ड प्रेस के संवाददाताओं के साथ

मैंने कभी अपने आप से यह सवाल नहीं पूछा कि पत्रकारिता मेरे लिए मिशन है या प्रोफेशन? कभी इसकी जरूरत ही महसूस नहीं हुई। ना ही कभी यह सवाल मन में कौंधा कि फारवर्ड प्रेस का मेरे लिए क्या मायने है। जब आप तेज गति से निरंतर दौड़ रहे हों तो पीछे छूटते जाते दृश्य आपस में घुलते-मिलते जाते हैं। इस क्रम में आपको उन्हें अलग कर देखने की न तो फु र्सत होती है और ना ही यह संभव होता है।

लेकिन फारवर्ड प्रेस के इस अंक में जब अनेक लोग पीछे मुड़ कर देख रहे हैं तो मुझे भी इसकी आवश्यकता महसूस हुई। आज पीछे देखता हूं तो पाता हूं कि मैं पहले एक पत्रकार हूं, लेखक हूं और उसके बाद ही कुछ और हूं। एक पत्रकार, एक लेखक को जो चुनाव करने चाहिए, मैंने आज तक के अपने जीवन में वे ही चुनाव किए हैं। अगर मैं समाज के कमजोर तबकों के पक्ष में खड़ा होता हूं, तो यह पत्रकार-लेखक होने का स्वाभाविक निहितार्थ है। इसके सिवा मैं कर ही क्या सकता हूं? फारवर्ड प्रेस के साथ अपने जुड़ाव को भी मैं इसी रूप में देखता हूं।

सन 2010 के उत्तरार्द्ध में मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों से एक बार फिर से दिल्ली बसने आया था। इससे पहले मैं शिमला, धर्मशाला, जालंधर और पटना में कई छोटे-बड़े हिंदी अखबारों व पत्रिकाओं के लिए काम कर चुका था, जिनमें ‘भारतेंदु शिखर’, ‘ग्राम परिवेश’, ‘दिव्य हिमाचल’, ‘प्रभात खबर’ जैसे छोटे और मंझोले अखबार भी थे तथा ‘पंजाब केसरी’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘अमर उजाला’,  आदि अपेक्षाकृत बड़े अखबार भी। पटना से प्रेमकुमार मणि और मैंने मिलकर ‘जन विकल्प’ नामक एक वैचारिक पत्रिका भी निकाली थी। हां, यह याद आता है कि ‘जन विकल्प’ के वे दिन मेरे लिए बौद्धिक रूप से बहुत सुखकर थे।

एफ पी से पहला परिचय

आज पत्रकारिता के प्रति अपने जुनून को निहारना अजीब लगता है। 1999 में अपने शहर पटना से दिल्ली आया था बीए की पढ़ाई करने। हंसराज कॉलेज में नामांकन लिया, लेकिन पहले ही साल में सैनी अशेष नामक हिमालय के एक यायावर लेखक के साथ ‘फोटो पत्रकारिता’ करने हिमाचल प्रदेश के दुर्गम इलाकों की ओर भाग चला। उसके बाद जो पढ़ाई छूटी तो वर्षों तक छूटी ही रह गई। बाद में इन अखबारों को छोड़कर अपने गृह प्रदेश पहुंचा और प्रभात खबर में काम करते हुए आगे की डिग्रियां लीं, लेकिन उच्च शिक्षा के लिए एक कसक भी मन में थी। 2010 में फिर दिल्ली आया। तब मेरी उम्र 30 वर्ष थी, जो उत्तर भारत में पढ़ाई के लिए तो कतई उपयुक्त नहीं मानी जाती, लेकिन मुझे लगा कि पत्रकारिता के अलावा जिन दिशाओं में मेरी रूचि है, उसके लिए डॉक्टरेट बहुत आवश्यक बना दी गई है, इसलिए इसे कर ही लिया जाए। मेरे लिए पारिवारिक रूप से आर्थिक मोर्चा बहुत कठिन नहीं रहा है इसलिए पत्रकारिता की नौकरी छोड़कर पढ़ाई जारी रखना कोई खास मुश्किल काम न था, लेकिन सिर्फ  पीएचडी करना भी मुझे गंवारा नहीं था। पत्रकारिता मुझे पुकारती सी लगती थी।

जिन दिनों मैं पटना में था, उन्हीं दिनों हिंदी कवि प्रोफेसर सुरेंद्र स्निग्ध ने मुझे फारवर्ड प्रेस का एक अंक दिया था। वह शायद 2009 का कोई अंक था। मुझे पत्रिका बहुत अच्छी लगी तथा मित्रों के बीच मैंने इसे नि:संकोच अन्य वैचारिक पत्रिकाओं की तुलना में श्रेष्ठ पत्रिका घोषित कर दिया था। पत्रिका का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह लगा था कि उसमें वैचारिक सामग्री के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्यों-किशोरों, महिलाओं, बुजुर्गों के लिए भी स्वतंत्र कॉलम छपते थे। यह बात इसलिए ज्यादा मायने रखती है, क्योंकि सामान्यत: उत्तर भारत के मौजूदा वैचारिक आंदोलनों में लोगों के पारिवारिक जीवन पर ध्यान नहीं दिया जाता, जबकि यह एक ऐसा जरूरी पक्ष है, जिसके बिना कोई भी आंदोलन प्रभावी नहीं हो सकता। दक्षिण भारत में पेरियार के अनुयायियों ने अपने आंदोलन में इस पर पर्याप्त ध्यान दिया है। उनके आंदोलन की सफलता के इस राज पर बहुत कम काम हुआ है।

पटना में रहते हुए मैंने पत्रकारिता में वंचित तबकों की हिस्सेदारी पर एक सर्वे किया था, जो एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ था। मैंने वह पुस्तिका डाक से फारवर्ड प्रेस के संपादक के नाम भेजी थी। उसके बाद इसके तत्कालीन हिंदी संपादक से फोन पर इस संबंध में मेरी कुछ बातचीत भी हुई तथा बाद में वे अपने निजी काम से पटना भी आए थे और हम मिले भी। उन्होंने अपने निजी प्रसंगों की तमाम बातें कीं, लेकिन एक भी शब्द न अपनी पत्रिका के बारे में कहा, न ही उन्हें संबोधित कर भेजी गई मेरी पुस्तिका के बारे में। जबकि उन दिनों उस पुस्तिका की पर्याप्त चर्चा थी। एक ओर इंडिया टुडे (हिंदी) व अन्य अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने उसकी विस्तृत प्रशंसात्मक समीक्षाएं छापीं थी, तो दूसरी ओर जनसत्ता के संस्थापक संपादक रहे प्रभाष जोशी अपने कॉलम में मीडिया में जात-पात फैलाने का आरोप बताते हुए मेरी लानत-मलानत कर चुके थे।

उस समय तक फेसबुक और ट्विटर हमारे सार्वजनिक जीवन पर इस कदर नहीं छाये थे और सोशल मीडिया की दुनिया मुख्य रूप से ब्लॉगों की दुनिया हुआ करती थी। हिंदी ब्लागिंग में कई महीनों तक प्रभाष जोशी के विरोध में आने वाले लेख छाये रहे थे और सामाजिक रूप से वंचित तबकों की पत्रकारिता में हिस्सेदारी पर एक बहस खड़ी हो गई थी, लेकिन फारवर्ड प्रेस के उन संपादक को इन बातों की न कोई खबर थी, ना ही इनमें उनकी कोई रूचि थी। इसलिए मुझे लगा कि शायद यह पत्रिका अपने काम की नहीं है।

फारवर्ड प्रेस में

2010 में मेरे दिल्ली आने के बाद एक बिल्कुल अज्ञात ब्लॉग ने मेरे उस सर्वे का एक संक्षिप्त विवरण अंग्रेजी में प्रकाशित किया। उसके तुरत बाद फारवर्ड  प्रेस के संस्थापक व प्रधान संपादक आयवन कोस्का का एक ई मेल मुझे मिला कि वे इस विषय पर मेरा लेख चाहते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, लेकिन मैंने उत्तर नहीं दिया, क्योंकि तब तक हिंदी में इस पर काफी चर्चा हो चुकी थी एवं मैं इस विषय पर कुछ और लिखने के मूड में नहीं था। इसके अलावा, पत्रिका के प्रति पैदा हुई विरक्ति भी एक कारण रही होगी, लेकिन उसके दो महीने बाद ही, अप्रैल, 2011 में श्री कोस्का और मेरे साझा मित्र दिलीप मंडल ने कहा कि अगर मैं पीएचडी करते हुए पत्रकारिता भी करना चाहता हूं तो मुझे फारवर्ड  प्रेस ज्वाइन करना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि आयवन कोस्का को फारवर्ड प्रेस में हिंदी का कामकाज देखने के लिए एक अदद संपादक की जरूरत है। मुझे याद है कि मैं बहुत संकोचपूर्वक श्री कोस्का से मिलने गया था, लेकिन उनसे मिलकर लगा कि उनके साथ न सिर्फ  काम किया जा सकता है, बल्कि किया ही जाना चाहिए। श्री कोस्का को भी स्पष्टत: मैं योग्य उम्मीदवार लगा और इस प्रकार मई, 2011 में मैं विधिवत फारवर्ड  प्रेस में ‘ऑन बोर्ड’ आ गया।

बहरहाल, हिंदी अखबारों की सामंती दुनिया से निकलकर श्री कोस्का के लोकतांत्रिक व्यवहार को देखना मेरे लिए कुछ सुखद अनुभव था। पहली मुलाकात में मैंने पाया कि वे न सिर्फ  विभिन्न मुद्दों पर निरतंर जिज्ञासा रखने वाले श्रेष्ठ पत्रकार हैं, बल्कि वैचारिक स्तर पर हम अधिकांश मामलों में समान धरातल पर थे। फूले-आंबेकरवाद के प्रति उनकी विलक्षण रूचि भी आश्चर्यचकित करने वाली थी। इसके अलावा उनके पास पत्रिका के ले-आउट आदि को लेकर एक वैश्विक सौंदर्यबोध तथा उस दौरान पल-पल बदल रही इंटरनेट और छपाई से संबंधी तकनीक का भी अद्यतन ज्ञान था, जिसने मुझे आकर्षित किया। इन वर्षों में मैंने उनसे बहुत सारी नई चीजें सीखी हैं।

लेकिन इसी क्रम में मुझे मालूम चला कि हमारे बीच एक बड़ी फांक भी है। उनकी अटूट आस्था ईसा मसीह में है और वे अपने लगभग हर काम को ईश्वरीय प्रेरणा के वशीभूत पाते हैं। श्री कोस्का में अपने ईश्वरीय विचारों के प्रति जबरदस्त विश्वास और आग्रह है। मसलन, वे नि:संकोच कह डालते हैं कि फारवर्ड प्रेस में मेरा आना संयोग नहीं बल्कि ईश्वरीय इच्छा है। इसके विपरीत, मेरी आस्था किसी भी धर्म विशेष में नहीं रही है। मेरे विचार में फारवर्ड प्रेस जैसी पत्रिका का शुरू होना ही एक सतत भौतिक प्रक्रिया का हिस्सा है। आरंभ में काम के दौरान इस तरह की तमाम बातें भी हमारे बीच चलती रहीं। इतने लंबे साथ में हम कुछ हद तक पारिवारिक रूप से भी जुड़ते चले गए हैं। जब भी मैं उनके घर जाता था तो पाता कि फारवर्ड प्रेस ही उनका जीवन बन गया है। उनके खराब होते स्वास्थ्य और निरंतर बरकरार आर्थिक परेशानियों को देखकर सचमुच आश्चर्य होता है आखिर कौन सी ताकत है, जो उन्हें इस प्रकार अटूट रहने की ताकत देती है। इसलिए अब श्री कोस्का व श्रीमती कोस्का जब अपने कर्मचारियों के परिवारों और भारत के बहुजनों की बेहतरी के लिए प्रार्थना करती हैं तो मैं भी ‘आमीन’ (तथास्तु) कह देता हूं।

लेकिन इसके बावजूद शायद उनके मन में एक कसक रह जाती है कि मैं धर्म की ताकत को क्यों नहीं समझना चाहता, इसी प्रकार मेरे मन में भी यह आता है कि आखिर वे भौतिकवाद की सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकार करते! मेरे देखे यही द्वंद्वात्मकता फारवर्ड प्रेस की ताकत रही है। फारवर्ड प्रेस के न्यूज रूम में हम इस पर खूब चर्चा करते थे और पाते थे कि आधुनिक विमर्शों के आगमन के बाद बहुजन समाज भी आज विभिन्न धार्मिक दर्शनों को लेकर एक प्रकार की द्वंद्वात्मकता में जी रहा है। हम सब विभिन्न मतों के थे, लेकिन हमने न कभी एक दूसरे पर अपना मत थोपने की कोशिश की, न ही किसी भी रूप में पत्रिका को इनसे प्रभावित होने दिया। अलग-अलग विचारधाराओं, मान्यताओं और पंथों के लोग होते हुए भी हम सबका लक्ष्य एक ही रहा – एक ऐसी पत्रकारिता का उदाहरण सामने रखना, जो सिर्फ  वंचित तबकों पर होने वाले दमन को ही प्रकाशन योग्य नहीं मानती, बल्कि उनकी अपनी परंपराओं, उनकी संस्कृति, उनके साहित्य तथा उनके अपने जीवन मूल्यों को प्राथमिकता देती है। पत्रकारिता के इन मूल्यों का पालन करने के क्रम में कई बाधाएं आईं, हमें पुलिस दमन से लेकर कई बार प्रतिगामी ताकतों का कोपभाजन बनना पड़ा तथा अनेकानेक आरोपों का सामना करना पड़ा। हमारे पाठक उन घटनाओं से परिचित हैं, इसलिए उसके विस्तार में यहां नहीं जाउंगा। मुझे इस बात का संतोष है कि हम किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल के प्रभाव में नहीं आए और ना ही कभी अपने चुने हुए मार्ग से विचलित हुए।

आगे देखते हुए और पीछे भी

band_June16-1फारवर्ड प्रेस के प्रिंट संस्करण के इस अंतिम अंक को तैयार करते हुए आज मुझे यह याद करना सुखद लग रहा है कि पत्रिका के समाचार कक्ष और इसके पन्नों पर हमेशा एक विराट वैचारिक लोकतंत्र बना रहा और हमने मानवीय मूल्यों वाले सभी मतों को समान भाव से पत्रिका में जगह दी। श्री कोस्का पत्रिका के प्रेस में जाने तक (इस अंक के मामले में भी) उसमें परिवर्तन करने को तैयार रहते थे।

इस अंतिम अंक को तैयार करते हुए मेरे साथ अलग-अलग समय पर संपादकीय सहयोगी रहे आशीष अलेक्स्जेंडर, नवल किशोर कुमार, पंकज चौधरी और अशोक चैाधरी, अमृत चौधरी, रामलगन की याद आती है, जिन्होंने पत्रिका को अपने-अपने तरीके से समृद्ध किया। संजीव चंदन, अमरीश हरदेनिया और अनिल वर्गीज आज भी संपादकीय विभाग के सहयोगी हैं तथा हमारी आगामी यात्रा में भी साथ रहेंगे। हमारे ग्राफिक डिजायनर राजन कुमार भी हमारी पुस्तक परियोजना से जुड़े रहेंगे। कार्यालय प्रबंधन में शरीक रहे चंद्रिका, धर्मेद्र चौहान, हाशिम हुसैन, सोहन सिंह और धनंजय उपाध्याय का भी बड़ा योगदान पत्रिका को रहा है।

विभिन्न स्थानों पर संवाददाता रहे ए.आर. अकेला, बीरेंद्र यादव, राजेश मंचल, रामप्रसाद आर्य, प्रणीता शर्मा, अभिनव मल्लिक, संजय मान, अशोक आनंद, उपेंद्र कश्यप, अरविंद सागर और संतोष कुमार आदि समेत 100 से अधिक लोग हैं, जो इस पत्रिका से बतौर संवाददता जुड़े हैं। आप इस टीम को आने वाले समय में एफ पी वेब पर भी देखेंगे। फारवर्ड प्रेस के लेखकों के नाम देने की जरूरत नहीं है, उनसे तो आप परिचित हैं ही, वे सभी भी हमारे साथ बने रहेंगे। बल्कि अब हम उन्हें मुद्रित संस्करण की अपेक्षा अधिक स्थान दे सकेगें और हमें उम्मीद हैं कि हम उनके ब्लॉग भी नियमित रूप से एफ पी की वेबसाइट पर प्रस्तुत कर सकेंगे।

1 जून बहुजनों के लिए महत्वपूर्ण दिन

फारवर्ड प्रेस के वेब संस्करण का स्वतंत्र रूप से संचालन हम 1 जून, 2016 से आरंभ करेंगे। यानी, एक ओर फारवर्ड प्रेस की यह अंतिम प्रिंट संस्करण आपके हाथ होगा और उसे के साथ-साथ हमारी बेब पत्रकारिता की भी शुरूआत होगी। हालांकि यह संयोग ही है, लेकिन हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 1 जून, 1869 को जोतिबा फुले का ‘पोवाड़ा’ प्रकाशित हुआ तथा तथा 1 जून, 1873 को ही उनकी ‘गुलामगिरी’ भी छपी थी। इसके अलावा 1 जून, 1968 को रामस्वरूप वर्मा ने अपने अर्जक संघ की भी स्थापना थी।

(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

संबंधित आलेख

सवर्ण व्यामोह में फंसा वाम इतिहास बोध
जाति के प्रश्न को नहीं स्वीकारने के कारण उत्पीड़ितों की पहचान और उनके संघर्षों की उपेक्षा होती है, इतिहास को देखने से लेकर वर्तमान...
त्यौहारों को लेकर असमंजस में क्यों रहते हैं नवबौद्ध?
नवबौद्धों में असमंजस की एक वजह यह भी है कि बौद्ध धर्मावलंबी होने के बावजूद वे जातियों और उपजातियों में बंटे हैं। एक वजह...
संवाद : इस्लाम, आदिवासियत व हिंदुत्व
आदिवासी इलाकों में भी, जो लोग अपनी ज़मीन और संसाधनों की रक्षा के लिए लड़ते हैं, उन्हें आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के तहत गिरफ्तार किया...
ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण (संदर्भ : श्रमणत्व और संन्यास, अंतिम भाग)
तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद शिव को देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता...
ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के खिलाफ था तमिलनाडु में हिंदी विरोध
जस्टिस पार्टी और फिर पेरियार ने, वहां ब्राह्मणवाद की पूरी तरह घेरेबंदी कर दी थी। वस्तुत: राजभाषा और राष्ट्रवाद जैसे नारे तो महज ब्राह्मणवाद...