लेख श्रृंखला : जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना
एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही है। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रकिया कहीं से चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। क्या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फॉरवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। इसमें आज पढें ईश मिश्र को – संपादक।
मैं 1972 में 17-18 साल की उम्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जब बीएससी कर रहा था, पूरी तरह ब्राह्मण से इंसान बन गया था कि नहीं, ठीक-ठीक नहीं कह सकता, लेकिन भगवान और भूत के भय से मुक्त प्रामाणिक नास्तिक बन चुका था। जात-पात को मानव निर्मित ढकोसला मानने लगा था। ऐसा शायद विज्ञान और गणित की पढ़ाई के चलते हुआ हो। मैं सोचने लगा था कि जात-पात शायद गांव में अशिक्षा के चलते है। विश्वविद्यालय इससे मुक्त होंगे। लेकिन विश्वविद्यालय में जाति आधारित (ब्राह्मण लॉबी और कायस्थ लॉबी) प्रोफेसरों की गिरोहबाजी देख सांस्कृतिक संत्रास लगा तथा शिक्षा और ज्ञान के अंतःसंबंधों की मेरी सारी अवधारणाएं धराशायी हो गयीं। शिक्षा और ज्ञान के अंतर्संबंध और अंतर्विरोध पर चर्चा एक अलग लेख का विषय है। यहां सिर्फ अपनी बहुत पुरानी जिज्ञासा साझा करना चाहता हूं कि उच्चतम शिक्षा के बावजूद लोगों को इतना मूलभूत ज्ञान क्यों नहीं हो पाता कि व्यक्तित्वगत प्रवृत्तियां जीव वैज्ञानिक नहीं होतीं बल्कि खास सामाजिक परिस्थियों में, खास सामाजिक संबंधों के तहत खास सामाजिकरण का परिणाम है? क्यों पीएचडी करके भी लोग जन्म के जीव वैज्ञानिक संयोग (या दुर्घटना) से मिली अस्मिता से ऊपर नहीं उठ पाते और हिंदू-मुसलमान से या फिर ब्राह्मण-भूमिहार से तर्कशील इंसान नहीं बन पाते?
वास्तविक या आभासी दुनिया में, वाद-विवाद में मेरी किसी तथ्यपरक तार्किक मान्यता को खारिज करने का जब किसी जातिवादी (ब्राह्मणवादी) के पास तर्क/कुतर्क नहीं होता तो कहता है नाम में मिश्र क्यों लगाता हूं? कुछ नवब्राह्मणवादी सामाजिक न्याय के लंबरदार भी तर्क-कुतर्क के अभाव में यही सवाल करते हैं। विचारों और काम की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद/जातिवाद का मूलमंत्र है। जो भी ऐसा करता है वह ब्राह्मणवाद को मजबूत करता है और प्रकारांतर से ब्राह्मणवादी है। कौन कहां पैदा हो गया इसमें न तो उसका कोई योगदान है न अपराध, इसलिए उसमें न तो शर्म करने की कोई बात है, न गर्व करने की। कौन कहां पैदा हो गया उस पर उसका वश नहीं है। जिस पर उसका वश है और जो महत्वपूर्ण वह है कहीं भी पैदा होने के बावजूद इतिहास को वह कैसे देखता है और सामाजिक गतिविज्ञान में कहां खड़ा होता है। कोई भी शिक्षित व्यक्ति मनुवादी सिद्धांतो पर आधारित ब्राह्मणवाद की बिद्रूपदाओं को न समझ सके और इस अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध न खड़ा हो तो ज्ञान के संदर्भ में शिक्षा की प्रामाणिकता संदिग्ध है। एक कर्मकांडी ब्राह्मण संस्कारोंवाले धार्मिक बालक की नास्तिकता तक की निर्मम आत्मसंघर्ष की यात्रा आसान नहीं थी, लेकिन विद्रोही को मुश्किलों से दो हाथ करने में ही आनंद तो आता ही है। इसी से उसे सामाजिक संघर्षों में शिरकत की प्रेरणा और ताकत मिलती है। जातिवाद उन्मूलन की लड़ाई दलितों की लड़ाई नहीं है, यह मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील हर विवेकसम्मत इंसान की लड़ाई है। एक अस्वतंत्र सामज में निजी स्वतंत्रता एक भ्रांति है। 18वीं शताब्दी के क्रांतिकारी दार्शनिक रूसो ने सही कहा है कि गुलामी की व्यवस्था में खुद को मालिक समझने वाला, गुलाम से भी बढ़कर गुलाम होता है। ब्राह्मणवाद नस्लवाद की ही तरह न तो जीव-वैज्ञानिक प्रवृत्ति है, न कोई शाश्वत विचार। ब्राह्मणवाद विचार नहीं, नस्लवाद की ही तरह एक विचारधारा है, मार्क्सवादी शब्दावली में में मिथ्याचेतना, जिसे हम नित्यप्रति के क्रियाकलापों और विमर्श में मिथकों और पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से निर्मित और पुनर्निर्मित करते है। ब्राह्मणवाद चूंकि एक विचारधारा है इससे लड़ाई भी प्रमुखतः विचारों की है।
यहां मैं संक्षेप में समाज में व्याप्त जातीय पूर्वाग्रह के ढाई दशकों के पार के दो अलग संदर्भों में एक ही किस्म के दो अनुभव साझा करना चाहता था लेकिन भूमिका लंबी हो गयी।
यह संस्मरण लिखने का ख्याल पश्चिम बंगाल के पूर्व शित्रा मंत्री कांति विश्वास की जीवनी पर एके बिश्वास का मेनसट्रीम (25 दिसंबर 2015) में लेख पढ़ते हुए आया था। दलितों के व्यक्तित्व व विद्वता के प्रति भौतिक शास्त्री मुरलीमनोहर जोशी या बंगाली भद्रलोक के पूर्वाग्रह, अपवाद नहीं बल्कि सवर्ण सामाजिक चेतना का अभिन्न अंग है। गौरतलब है कि 2000 में राज्यों के शिक्षामंत्रियों की बैठक में तत्कालीन केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने कांति विश्वास की विद्वता और अंतरदृष्टि की भूरि-भूरि प्रशंसा की किंतु उनके मनुवादी मन को यक़ीन न हुआ कि कोई जन्मना चांडाल भी इतना विद्वान हो सकता है। उन्होने आरोप लगाया कि कांति विश्वास बंगाली ब्राह्मण थे और दलित की फर्जी सनद बनवा लिए हैं। कांति विश्वास का जवाब था, ज्ञानार्जन ब्राह्मणों की बपौती नहीं है, जन्मना चांडाल भी ज्ञानार्जन कर सकता है।
बचपन से ही टांग अड़ाने की आदत है तथा अक्सर एक-बनाम-सब बहस में उलझ जाता हूं। 1985-1986 के दौर की कभी की घटना है। 1980 में जनता पार्टी के विगठन के बाद आरएसएस अपनी संसदीय शाखा जनसंघ को भारतीय जनता पार्टी के रूप में गठित करने के बाद, गांधीवादी समाजवाद के शगूफे के साथ सांप्रदायिक उन्माद के मंच पर रक्षात्मक मोड में था। 1984 के दिल्ली के सिख-जनसंहार के बाद कांग्रेस की चुनावी सफलता देख भाजपा ने आक्रामक सांप्रदायिकता मुहिम शुरू कर दी थी। जैसा कि अब इतिहास बन चुका है राममंदिर मुद्दे को बस्ते से निकाला गया। देश में जगह-जगह मंदिर के लिए शिलापूजन के कार्यक्रमों तथा धर्मोंमादी सभाओं का आयोजन हो रहा था। आडवाणी, जोशी, उमा भारती आदि घूम-घूम कर उन्मादी जनमत तैयार कर रहे थे। मेरी बहन बनस्थली (राजस्थान में जयपुर से 70 किमी) में पढ़ती थी। मैं उससे मिलने या किसी छुट्टी में लेने जा रहा था। अगले दिन जयपुर आडवाणी जी का रथ जयपुर पहुंचने वाला था। जयपुर से जाने वाली बसें बंद थीं। जयपुर से बनथली की ट्रेन में सार्वजनिक बहस का मुद्दा अडवाणी की यात्रा तथा मंदिर और मुसलमान शासकों की क्रूरता थी। आदतन, मान-न-मान-मेहमान की तर्ज़ पर टांग फंसा दिया। फिर क्या था छिड़ गया एक-बनाम-सब विमर्श जो धीरे-धीरे बहुत उग्र हो गया। एक आदमी बांहे चढ़ाते मेरी तरफ बढ़ा और बोला कि इतनी ऊंच-नीच, जात-पांत की बात कर रहा हूं, अपनी बहन-बेटी की शादी चमार से कर दूंगा क्या? कई बार बिना सोची-समझी प्रतिक्रिया ज्यादा कारगर हो जाती है, या फिर हो सकता सोचने की गति इतनी तीब्र होती हो कि पता न चलता हो। उस मूर्ख से जेंडर विमर्श व्यर्थ था, बांहे नीचे करने को कह मैं स्वस्फूर्त फौरी प्रतिक्रिया में बोल गया, “मैं तो खुद चमार हूं।” इस वाक्य ने रामबाण का काम किया। उग्र आक्रामक बहस मर्यादित हो गयी। लोग मेरी बात तवज्जो देकर सुनने तथा मर्यादित विमर्श में तर्क-कुतर्क पर भारी पड़ता ही है। आक्रामक उग्रता के मर्यादित विनम्रता में संक्रमण के 3 कारण मेरी समझ में आये। पहला, सांस्कृतिक संत्रास (कल्चरल शॉक़)। जिस तरह कांति विश्वास की विद्वता तथा विश्वदृष्टि देख मुरली मनोहर जोशी को सांस्कृतिक संत्रास हुआ था उसी तरह इस मंदिरवादी भीड़ को हुआ। प्रतिभा तथा व्यक्तित्व का जन्म के आधार पर मूल्यांकन का दिमाग में भरा वर्णाश्रमी कूड़ा फीजिक्स की पीएचडी नहीं साफ कर पाती तथा वह मान ही नहीं सकता कि एक नामशूद्र (चांडाल) ज्ञानी हो सकता है। इन लोगों को शॉक लगा कि एक दलित इतने लोगों से अकेले इतनी विवेकसम्मत मुखरता और तथ्यपरक तार्किकता से, सबको निरुत्तर कर सकता है? दूसरा, स्त्री मुद्दे पर मर्दवादी, उपभोक्तावादी समझ के चलते उन्हें लगा कि यह न पूछ लूं कि वह करेगा अपनी बहन बेटी की शादी मेरे साथ? और तीसरा कारण जो मेरी समझ में आया वह है, एससी-यसटी उतपीड़न ऐक्ट का डर।
दूसरी बार इसी सवाल से साबका 25 साल बाद पड़ा। अपने पूर्वी उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले में अपने गांव गया था। मोटरसाइकिल से जौनपुर जिले में किसी रिश्तेदार के यहां जा रहा था। रास्ते में एक तिराहे की चाय दुकान पर चाय-सिगरेट पीने रुका। यहां के तिराहे-चौराहे के चाय के अड्डे स्थानीय राजनैतिक-सामाजिक विमर्श के भी अड्डे होते हैं। मोबाइल फोन पर चर्चा चल रही थी। पुराने लोग बता रहे थे किस तरह ट्रंक कॉल करने कहां कहां जाना पड़ता था, वगैरह वगैरह। तभी एक 30-35 साल का दिखने वाला आदमी एकाएक आवेश में आकर बोला कि मोबाइल का ही नतीजा है कि हर गांव से 5-5 लड़कियां भाग रही हैं। स्वस्फूर्त फौरी प्रतिक्रिया में मुंह से निकल गया,“बहादुर लड़कियों को सलाम।” सब अकबकाकर मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे मैंने कोई विस्फोट कर दिया हो! सफेद दाढ़ी, शकल-सूरत से पढ़ा-लिखा दिखने वाला आदमी इतनी “गिरी हुई” बात कह दिया। “पापिनों” को बहादुर कह सलाम कर रहा है। टांग फंसाने की आदत ने फिर एक-बनाम-सब बहस में फंसा दिया। जयपुर से बनस्थली की ट्रेन का विमर्श धीरे-धीरे आक्रामक उग्र हुआ था। यह शुरू ही उग्र आक्रामकता से हुआ। प्रोफेसनल नारेबाज होने के चलते लंग-पॉवर काफी है। ट्रेन के ही सवाल की पुनरावृत्ति। “आप अपनी बेटी की शादी चमार से कर देंगे?” यह यादव वर्चस्व का तिराहा है। दलित जातिनाम गाली के रूप में इस्तेमाल पर सवर्णों की बपौती नहीं है। मेरे मुंह से फिर स्वफूर्त वही जवाब निकला, “मैं तो खुद चमार हूं।” तथा उसी तरह उग्र आक्रामकता मर्यादित विनम्रता में बदल गयी। उप्र में मायावती की सरकार थी। फिर सबने धैर्य से मेरा प्रवचन सुना तथा बोले कि मेरी बातें बिल्कुल सही हैं, लेकिन वहां नहीं चलेंगी। मैंने कहा, नहीं चलेंगी तो 5-5 की जगह 10-10 लड़कियां भागेंगी। जब भी किसी को बंधोगे, वह तुड़ाकर भागने की कोशिश करेगा ही। सबसे ज्यादा विनम्र बांहे चढ़ाने वाला युवक था। उसने मुझे चाय का पैसा भी नहीं देने दिया। सबने बड़े सम्मान से विदा किया। एक शिक्षक होने के नाते बहुत दर्द होता है सोचकर कि यह कैसी शिक्षा है जो व्यक्ति को जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से मुक्त नहीं कर पाती। पिछले 30-35 सालों में त्वरित वेग से बढ़ता दलित प्रज्ञा (स्कॉलरशिप) और दावेदारी का रथ ही इस जातिगत पूर्वाग्रह को रौंदेगा।
I deeply regret to state that Shri Kanti Biswas, former Minister, School Education, West Bengal for 22 years has passed away in May, 2016. He is survived by his daughter and son. The daughter is a school teacher and son, an IT engineer who has been working in UK.
He lived all through in an humble home in a colony which sheltered the refugees from former East Pakistan. He did not move in any official bungalow. His ministerial colleague in charge of urban housing had repeatedly asked Kanti Babu to submit an application for sanction of a plot of land out of his discretionary quota for house construction in Salt Lake City which was developed by Bidhan Chandra Roy. He did not do so.
His son who earned a good salary went to his father’s party bosses for seeking permission to build a house out of his own savings.
KAnti Biswas’ memoirs noted that the ministers after swearing were told by their party General Secretary Promod Dasgupta to honestly follow a code of conduct: Those who smoke bidi, shall continue to do so after becoming a minister. They will not turn over to cigarette.
Those who live in thatched house shall live under that even after becoming minister. Kanti Babu adhered to the code till his last day. He was visited at his modest home by many foreign dignitaries who expressed surprise over his living free from ostentation.
Many of his party and ministerial colleagues were deeply steeped into corruption. Kanti Biswas free from any blight of moral turpitude. His party had committed many wrongs and follies. But there were many honest people rare to find in many parties.
Many his soul live in peace.
प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचार ।
बहुत ही अच्छा लगा ।
धन्यवाद रामगोपल जी।