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कौशल की लूट है वेतन आयोग

अगर हम मछली का कौशल उसके पेड़ पर चढ़ने की उसकी क्षमता से नापना शुरू कर दे, तो वह जिन्दगी भर अपने आप को बेवकूफ और नकारा समझती रहेगी। हमारी आज की वेतन व्यवस्था भी कुछ ऐसी ही है। और अगर इसे बदलना है, तो हमें हमारी मूल सोचना बदलना होगा और मजदूरों और किसानों के कौशल को सिर्फ श्रम बताकर मापना बंद करना होगा

railways (1)केंद्र सरकार के सातवें वेतन आयोग की घोषणा के साथ ही देश में एकबार फिर वही बहस शुरू हो गई: किस श्रेणी के लिए ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई और किसके लिए कम! इस बहाने थोड़ी बहुत बात असंगठित क्षेत्र में हो रहे शोषण की भी हो जाती है। लेकिन, मूल मुद्दा कोई नहीं उठाता, हमारे साम्यवादी और समाजवादी साथी भी नहीं, कि सरकारी कर्मचारियों के इस वर्गीकरण का आधार क्या है? यह कौशल आधारित है? या शिक्षा आधारित? और यह कौन तय करता है कि किसकी कीमत ज्यादा होगी? और, वो देश कैसे आज़ाद कहला सकता है, जहाँ सरकार स्वयं अपने देश के नागरिकों, की कर्मचारियों की श्रेणीयों में वर्गीकरण कर, एक वर्ग के लोगों के श्रम का लगातार शोषण करे? और, वैश्वीकरण के दौर में तो यह और भी भयानक हो गया है: अब तो सरकार, हर वेतन आयोग के साथ धीरे-धीरे नीचे के श्रेणी के सारे काम ठेके पर देकर उस श्रेणी के लोगों को मिलने वाली रही-सही तनख्वाह भी एक चौथाई करते जा रही है। और सरकार की नीतियों का ही अनुसरण निजी क्षेत्र करता है| इस तरह श्रम का शोषण और गैरबराबरी  मिटने की बजाए हर वेतन आयोग के साथ बढ़ती है। ऐसे में सरकार का गैरबराबरी मिटाने का दावा एक ढकोसला भर है।

इस सोच को मैं एक किस्से से स्पष्ट करता हूं। हम लोग अपने संगठन, श्रमिक आदिवासी संगठन, के साथ म. प्र. के हरदा जिले में मनरेगा के काम में ठेके की बजाए रोजनदारी से मजदूरी भुगतान को लेकर वनमंडलाधिकारी (डीएफओ) कार्यालय पर गए। वहां डीएफओ ने हमारे एक बुजुर्ग साथी, मेरसिंग कोरकू, से पुछा……. दादा क्या तुम उस जवान जितना काम कर सकते हो? तो फिर तुम्हें एक जैसी मजदूरी कैसे दी जा सकती है? इस पर मेरसिंग बोला…… डीएफओ साहब एक बात बता – तू जैसे-जैसे बुड्ढा होता है, तो तेरी पगार बढ़ती है या कम होती है? डीएफओ बोला….बढ़ती है! इस पर मेरसिंग बोला: तो फिर मेरी पगार बुजुर्ग होने पर किस नियम से कम होती है? इसके बाद, हमें और कुछ नहीं कहना पड़ा। इस तर्क का जवाब डीएफओ साहब तो क्या, खुद सरकार और बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों के पास भी नहीं है!

हमें मेरसिंग के इस सीधे-साधे तर्क के मर्म को समझना होगा।

सत्ता संचालकों (इसमें बाज़ार की ताकत भी शामिल है) ने हमेशा से अपनी व्यवस्था की व्यूह रचना ऐसी की जिसमें आम जनता के ज्ञान को दोयम दर्जे का करार देकर, न सिर्फ उनके श्रम का शोषण किया जा सके, बल्कि उन्हें उचित मानवीय सम्मान से भी महरूम किया जा सके।असल में, किसी भी वर्ग की लूट का सबसे पहला सूत्र है: उसे वर्ग में अपने अहसास के प्रति हीन भावना भरना; वो किस भी तरह से हो सकता है: उसके रंग; जाति; लिंग; धर्म, और, इसका अगला रूप था शिक्षा के नाम पर शोषण| इसके लिए जरुरत थी, एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जिसके अमुक पादान को पाना सफलता का पहला पैमाना माना जाए; अलबत्ता, यह  जरुरी नहीं है, सत्ता संचालक खुद उसमें पारंगत हो, क्योंकि उनके पास सत्ता संचालन के अन्य गुण थे। यह व्यवस्था रियाया/आम-जनता की पहुँच से दूर थी, और कुछ अपवाद छोड़कर-  इसका काम सत्ता संचालकों के एजेंडे को संचालित करने के लिए एक विशेष वर्ग तैयार करना था। एक ऐसा वर्ग, जो थोड़े से मुआवजे (तनख्वाह) के बदले अपने समाज और आम जनता के हितों को त्याग, सत्ता हित में काम करे। जहाँ एक तरफ, अंग्रेजों के आने के पहले यह शिक्षा कुछ वर्ग और वर्ण विशेष तक सीमित थी, वहीं अंग्रेजो ने इसमें कुछ हद तक अन्य वर्गों को जोड़ इसकी स्वीकार्यता को इस हद तक बढ़ा दिया कि, आज इस व्यवस्था में शोषित वर्ग- जिसकी  98% जनसंख्या आज भी इससे दूर है-  इस मृग मरीचिका की तरफ दौड़ रहा है।

जो शिक्षा व्यवस्था इस वर्गीकरण का आधार है, 69 साल बाद भी उसके हालत ज़रा देख लें : हम राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताज़ा आंकड़े ( 2010 के आँकड़ों, जो 2013 में जारी किए गए थे ) बताते है : आज भी देश की आधी आबादी अनपढ़ है- 32 प्रतिशत लोग निरक्षर हैं और 22 प्रतिशत नाम मात्र के लिए साक्षर हैं; 82%  युवा 12 वीं आते-आते ही पढाई झोड़ देते है: गाँवों मे 3.2 प्रतिशत लोगों को ही स्नातक और स्नातकोत्तर तक पढाई पूरी कर पाए है,  ग्रामीण मुसलमान, महिला, आदिवासी युवाओं में तो यह 2 प्र०श० से भी कम है। शहरों में जरुर यह आंकड़ 17.3 प्र०श० तक पहुंचा है। यह व्यवस्था कालांतर में बेहतर हो जाएगी, यह सोचना एक छलावा ही होगा, क्योंकि आज भी 54 प्रतिश्त विद्यार्थी स्कूल-कालेज में हाजिरी नहीं दे पाते। यूनीसेफ के अनुसार,  2016 तक हमारे देश में 50 करोड़ लोग अनपढ़ या पांचवीं कक्षा से कम स्तर की पढ़ाईवाले और अन्य 30 करोड़ हाईस्कूल पास भी नहीं होंगे।

हमारे देश की 92% जनता अगर डिग्री धारक नहीं है, और श्रम मंत्रालय के 2013 के आंकड़ों के अनुसार अगर भारत में 2.95 करोड़ लोग रोजगार में लगे है, तो 4.47 करोड़ बेरोजगार है (यह तो सिर्फ वे हैं, जिनके नाम रोजगार कार्यलयों में किसी ना किसी रूप में दर्ज है)! यानी, यह व्यवस्था जितनों को रोजगार देती है, उससे से ज्यादा को बरोजगार करार देती है! वहीं,  हमारे जैसे कृषि प्रधान देश में, सिर्फ पिछले 10 सालों में 2.5 लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं। नरेन्द्र मोदी जिस रोज़गार या चीन के मुकाबले  ‘मेड इन इंडिया’ की बात कर रहे-  वे, असल में हर साल आठवीं कक्षा के बाद पढाई छोड़ने वाले 2.1 करोड़ युवाओं को आगे की डिग्री तक की शिक्षा देने चिंता करने की बजाए रोजगार-मूलक शिक्षा के नाम पर फैक्ट्रियों में खपाने की योजना बना रहे हैं- क्योंकि, सरकार के पास अब इन बचे हुए 92% जनता को स्नातक की पढाई प्रदान कराने की इच्छा शक्ति नहीं है, वह इनका उपयोग कारखानों में सस्ते मजदूर के रूप में ज्यादा देखती है।

potters-wheelअगर, हम आज़ादी के बाद अपनी खुद की जरुरत के अनुसार शिक्षा व्यवस्था का विकास करते, जो हमारी जातिगत बुराइयों और रुढियों को तोड़कर, परम्परागत कौशल को एक मज़बूत शैक्षणिक आधार और आर्थिक दे समय के अनुसार निखारता-  तो आज दुनिया में कहाँ के कहाँ होते। लेकिन, हमने आजादी के बाद औपनिवेशिक आकाओं के उन्हीं मापदंडों को अपनाया, जो बेमेल किताबी ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ बताता था और श्रम और कला का शोषण करने वाला था। गांधी अव्यवहारिक नहीं थे, वो जानते थे कि हमारे देश में विभिन्न समुदायों के पास अटूट परम्परागत ज्ञान और समझ है। हम अपनी रोज़मर्रा की जिन्दगी में ऐसे अनेक लोगों से मिलते है- जो लिखित ज्ञान भले ही न रखते हों, लेकिन कला और कौशल के धनी होते है। आज भी मुगल ज़माने के ईमारत पूरी आधुनिक उपकरणों और साधन के बावजूद नहीं बनाई जा सकती! अपनी इंजीनियरिंग की पढाई के बावजूद मैंने उसकी व्यवहारिक समझ निर्माण साईट पर काम करने वाले मिस्त्रीयों से सीखी, जो शब्द ज्ञान में अनपढ़, लेकिन ज्यामिती की पूरी समझ रखने वाले थे। शास्त्रीय संगीत लोक संगीत से ही उपजा, जंगली जानवरों और पक्षियों पर कोई भी किताब पारधी-आदिवासीयों की समझ और मदद के बिना नहीं लिखी गई; बिना शेरपाओं के कोई पर्वतरोहण नहीं कर सका, और आदिवासियों की मदद के बिना कोई जंगल में नहीं घुस सकता| आप देख ही रहे, जंगल में कैसे नक्सलियों को इन आदिवासीयों का साथ मिलने पर उनके सामने पूरी भारत सरकार की सैन्य ताकत नतमस्तक है।

अंत में, प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक, अलबर्ट आइंस्टीन की इस बात से इस लेख का अंत करूँगा: अगर हम मछली का कौशल उसके पेड़ पर चढ़ने की उसकी क्षमता से नापना शुरू कर दे, तो वह जिन्दगी भर अपने आप को बेवकूफ और नकारा समझती रहेगी। हमारी आज की वेतन व्यवस्था भी कुछ ऐसी ही है। और अगर इसे बदलना है, तो हमें हमारी मूल सोचना बदलना होगा और मजदूरों और किसानों के कौशल को सिर्फ श्रम बताकर मापना बंद करना होगा। और परम्परागत कौशल और किताबी ज्ञान की कीमत मापने के मापदंड अलग ना हो इस दिशा में कम से कम बहस चलाना होगा| वर्ना, हर वेतन आयोग पर यह रस्म-अदायगी का रोना और टिप्पणी करना बेमानी साबित होगा।

लेखक के बारे में

अनुराग मोदी

समाजवादी जन परिषद् से सम्बद्ध अनुराग मोदी 27 वर्षों से आदिवासी ईलाके में काम करने वाला एक पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं। 1989 में मुम्बई में सिविल इंजीनियर की नौकरी से त्याग पत्र देकर नर्मदा नदी पर बने पहले बड़े बाँध, बरगी बाँध के विस्थापितों के साथ काम किया। फिर बैतूल जिले के छोटे से गाँव पतौपुरा में आदिवासीयों के साथ श्रमिक आदिवासी संगठन शुरू किया। जनपक्षधर लेखन में सक्रिय।

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