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गुजरात के दलित योद्धाओं को लाल सलाम

दलित आंदोलन के पास एक ताकतवर विचार है, एक सक्षम मध्यम वर्ग है, एक नही अनेक मसीहाकारी नेतृत्व मौजूद है। मध्यम वर्ग ने हमेशा राजनीतिक परिवर्तन में अग्रणी भूमिका निभाई है। मार्क्सवादी चिन्तन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तन के लिए एक हरावल दस्ते की अवधारणा सामने रखता है। आज दलित मध्यम वर्ग भारतीय समाज के इस पुनःउत्थान के लिए ऐसे हरावल दल की भूमिका निभाने में पूरी तरह सक्षम है

una1गुजरात एक बार फिर राष्ट्रीय आंदोलन का सूत्रपात करता दिख रहा है। दलितों पर अत्याचारों की जो भीषण गाथाएं इस देश में रोज लिखी जाती हैं, उनके सामने ऊना, घटनाकांड क्या है? महज एक फुटनोट। लेकिन गुजरात के दलित आन्दोलन ने जिस तरह से इस फुटनोट को अध्याय में बदला है, वह बेमिसाल है। जिस तरह से गुजरात का पूरा दलित समुदाय पिछले एक माह में ब्राह्मणवादी जकड़न भय और अत्याचार के खिलाफ सड़कों पर उतरा है, उससे पूरा देश अचंभित है। यह सही है कि ऊना से पहले भी हिन्दूवादी भाजपा सरकार के खिलाफ एक दलित लहर चल रही थी। लेकिन गुजरात का घटनाक्रम आम जनता की भागीदारी की वजह से एक अलग स्थान रखता है।

अब प्रश्न यह है कि आंदोलन किस दिशा में आगे बढ़ता है। ब्राह्मणवाद के खिलाफ मानवतावादी संघर्ष उतना ही पुराना है जितना ब्राह्मणवाद। लेकिल ब्राह्मणवाद की खासियत कुछ ऐसी है कि इसने किसी भी समतावादी आंदोलन को पनपने नहीं दिया, उनको अपने में समाहित कर लिया। वर्तमान काल में ब्राह्मणवाद को सबसे बड़ी चुनौती आंबेडकर ने दी। और ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रिया देखिए। जिस बुद्ध धर्म को आंबेडकर ने हिन्दू धर्म का तिरस्कार कर अपनाया, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उसी बुद्ध धर्म की उत्तरप्रदेश में पूरे जोरशोर से यात्रा निकाल रहा है। जनाब हमसे बचके कहां जाइएगा, जहां जाइएगा हमें पाइएगा!

15 अगस्त को ऊना में ‘दलित अस्मिता सम्मेलन’ के सफल रहने के बाद दबंग जाति के लोगों ने गोरक्षकों से मिलकर उनपर हमला बोला, लेकिन यह हमला आंदोलन को और गति ही देगा. सवाल है कि गुजरात का आंदोलन किस लक्ष्य को लेकर शान्त होगा? आनंदीबेन की बलि तो यह ले चुका है? क्या ऊना के पीड़ितों को मुआवजा, दलितो पर दायर मुकदमों को वापस लेने, थानगढ केस को फिर खोलने से आंदोलन अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा? क्या आनंदीबेन के बाद मोदी की बलि से नैया पार लग जाएगी? क्या आगामी चुनाव में गुजरात में भाजपा की पराजय काफी है? गुजरात के संघर्ष को इसके समुचित मुकाम तक पहुंचने के लिए इस आंदोलन को दलितों पर हो रहे अत्याचारों के विरोध प्रदर्शन से आगे बढ़ कर इन अत्याचारों की जड़ ब्राह्मणवाद पर प्रहार करना होगा। दलित समस्या का निराकरण अनुसूचित जाति सबप्लान बना कर, उनको भूमि के टुकड़े एलाट कर, एट्रोसिटी एक्ट को कठोर बनाकर, आरक्षण का संपूर्ण पालन कर नहीं हो सकता।

una3भारतीय संविधान का अनुच्छेद 17 छुआछूत को निषेध करता है। इस आर्टिकल को क्रियान्वित करने के लिए छुआछूत निवारण अधिनियम 1955 बनाया गया। जब इस अनुच्छेद पर संविधान सभा में चर्चा हुई तो बंगाल से सदस्य प्रोमथ रंजन ठाकुर ने कहा ‘ मेरी समझ में नही आता कि आप बिना जाति व्यवस्था को खत्म किए छुआछूत कैसे खत्म कर सकते है। छुआछूत कुछ नहीं, जाति व्यवस्था नाम की बीमारी का लक्षण मात्र है। यह जाति व्यवस्था का अंग है। सभा को इस बिन्दु पर विचार करना चाहिए। जब तक हम जाति व्यवस्था को पूरी तौर पर खत्म नहीं करते, छुआछूत की समस्या के साथ सतही छेड़छाड़ करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा’।

हकीकत यह है कि संविधान में जाति व्यवस्था का जिक्र तक नहीं है, दिशा निर्देश सिद्दान्तों तक में नहीं, जहां दुनिया भर के आदर्श प्रस्थापित किए गए। उच्च वर्गों से भरी, सीमित मताधिकार पर आधारित संविधान सभा से यह उम्मीद करना कि वह अपनी जड़ें खुद खोदेगा, एक दिवास्वपन ही हो सकती है। बाबा साहेब को संविधान निर्मात्री सभा का अध्यक्ष बना कर आजाद भारत में ब्राह्मणवाद ने आने वाली सदियों के लिए अपना प्रभुत्व सुनिश्चित किया। यह है ब्राह्मणवाद का चमत्कार! बाबा साहेब के प्रयासों के चलते जो कुछ प्रगतिशील सिद्धांत संविधान में प्रतिपादित किये गए, उनका कभी पालन नहीं हुआ। मुंह में राम बगल में छुरी, कोई चालू मुहावरा नहीं, बल्कि ब्राह्मणवाद का मूल सिद्धांत है।

आरक्षण व्यवस्था के चलते दलितों में मध्यम वर्ग का उदय हुआ। व्यापक मताधिकार के चलते राज्यो में दलित पिछड़ा वर्ग आधारित सरकारें भी बनी। लेकिन इस सबके बावजूद जाति व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रही। देश का अधिकांश दलित तबका आज भी अशिक्षित है, बच्चे मजदूरी करने के लिए मजबूर है और वयस्क रोजी रोटी के खातिर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर हैं। समाज के हर क्षेत्र प्रशासन, चयनित निकायों, न्यायपालिका, अर्थतन्त्र में उच्च वर्ग का दबदबा बरकरार है।

गुजरात का दलित आंदोलन ब्राह्मणवाद की आखिर कील साबित हो सकता है। लेकिन इसके लिए इसे अपने लक्ष्यों को और व्यापक करना होगा। कांग्रेस और भाजपाईयो, मान्यवर कांशी राम के शब्दों में सांपनाथ और नागनाथ, से इतर एक नई राजनैतिक जमीन को तलाशना होगा। इस नई जमीन के घटक वर्तमान में मौजूद है। समाज के अलग-अलग हिस्से आंदोलित हैं । कोई जमीन पर अधिकार मांग रहा है, कोई शहर में रहने की जगह, कोई वन भूमि पर अधिकार चाहता है, कोई विनाशकारी बांधो से मुक्ति। कोई मैला ढोना बंद करना चाहता है तो कोई प्रमोशन में आरक्षण। इन सारे आंदोलनों को समझना होगा कि 1500 साल से जारी जाति व्यवस्था ही हमारी बहुसंख्यक समस्याओं की जड़ है। इसको खत्म किये बिना एक मानवतावादी प्रजातान्त्रिक समाज का निर्माण नहीं हो सकता।

una2समय की आवश्यकता है कि दलित आंदोलन अपनी बनाई चौहद्दी से बाहर निकले और सामाजिक परिवर्तन कामी सारे आंदोलनों को एक मानवतावादी नेतृत्व प्रदान करे। यह नेतृत्व एक जागरूक मानवतावादी दलित नेतृत्व ही प्रदान कर सकता। समाज में मौजूद अन्य परिर्वतनकारी विचारधाराएं अपनी ऊर्जा खो चुकी हैं। साम्यवादी आंदोलन अस्ताचल की ओर अग्रसर हैं। समाजवादी पार्टियां पारिवारिक गिरोहो में परिवर्तित हो चुकी है। व्यापक परिवर्तन की झलकी दिखाने के बाद आप ने अपनी जमीन खोने में तनिक भी देर नही की। दलित आंदोलन के पास एक ताकतवर विचार है, एक सक्षम मध्यम वर्ग है, एक नहीं अनेक मसीहाकारी नेतृत्व मौजूद है। मध्यम वर्ग ने हमेशा राजनीतिक परिवर्तन में अग्रणी भूमिका निभाई है। मार्क्सवादी चिन्तन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तन के लिए एक हरावल दस्ते की अवधारणा सामने रखता है। आज दलित मध्यम वर्ग भारतीय समाज के इस पुनःउत्थान के लिए ऐसे हरावल दल की भूमिका निभाने में पूरी तरह सक्षम है।

लेकिन जैसा कि पूर्व में कहा गया है, इस भूमिका को अदा करने के लिए दलित समाज को अपनी सीमाओं को पार करना होगा। यह समझना होगा कि केवल दलित समाज को आंदोलित करके क्या हो सकता है? दलित समाज के लिए कुछ हासिल कर लें, लेकिन जातिवाद नहीं तोड़ सकते, समाज में व्यापक परिवर्तन नहीं ला सकते, समाज के अन्य घटकों के मसलों को, उनकी समस्यायों को भी अपने आन्दोलन में स्थान देना होगा। मात्र आंबेडकरवाद से आगे बढ़ना होगा। मार्क्सवाद, लोहियावादी समाजवाद, गांधीवाद अपनी उर्जा खो चुके हैं। लेकिन इससे इन विचाधाराओं की आधुनिक भारतीय समाज के उदय में भूमिका और वर्तमान में इनकी प्रासंगिकता को नाकारा नहीं जा सकता। हर-हर मोदी का चुनाव करके और गुजरात माडल को पूरे देश में तेजी से लागू करके ब्राह्मणवाद ने जो माहौल पैदा किया है वह एक जलजला पैदा कर सकता हैं। एक ऐसा जलजला जो जाति व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेके। इस देश का बहुसंख्यक मेहनतकश तबका, गरीब-गुरबा पिछली सहस्राब्दि से इस जलजले का इंतजार कर रहा हैं। इंतजार है तो बस नेतृत्व का !

लेखक के बारे में

सुधीर कुमार कटियार

सुधीर कुमार कटियार सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन के संस्थापक हैं। सेंटर गुजरात, राजस्थान व देश के अन्य राज्यों में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के श्रमिक व मानव अधिकारों के लिए कार्य करता हैं। जाति व्यवस्था व सामाजिक परिवर्तन पर लिखे सुधीर के लेख इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली तथा दलित वौइस् में प्रकाशित हो चुके हैं।

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