9 अगस्त को जब पूरा संसार ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मना रहा होगा और भारत के आदिवासी ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाकर 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहे होंगे, तभी 12 अगस्त को आदिवासियों पर एक फिल्म ‘खलनायक’ जैसी अभद्र और असहनीय नस्लीय टिप्पणी करेगी।
दुनिया की प्राचीन और महानतम सभ्यता ‘सिंधु घाटी सभ्यता’ पर आधारित आशुतोष गोविरकर द्वारा निर्मित फिल्म ‘मोहेंजो-दारो’ का तीखा विरोध करते हुए आदिवासी समाज ने झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में पुलिस में मामला दर्ज कराया है। गांव, तहसील और जिला स्तर से लेकर सोशल मीडिया तक में आदिवासियों ने तीखी प्रतिक्रिया दी है।
फिल्म मोहेंजो-दारो में आशुतोष गोविरकर ने आर्यों को सिंधु सभ्यता का वासी बताया है और आर्य नायक शरमन (ऋतिक रोशन) द्वारा खलनायक महम (कबीर बेदी, जो महिषासुर के लुक में हैं) और उसकी सत्ता का नाश दिखाया गया है। मोहेंजो-दारो के जारी ट्रेलर में शरमन का महम की बेटी चानी (पूजा हेगड़े) से प्यार दर्शाया जा रहा है।
मोहेंजो-दारो को बैन करने की मांग
महिषासुर को अपना देवता बताते हुए ग्राम डाही, जिला धमतरी, छत्तीसगढ़ की पंजीकृत संस्था आदिवासी एवं विशेष पिछड़ी जनजाति विकास संस्थान ने फिल्म मोहेनजो-दारो का विरोध करते हुए सभी अखबारों को प्रेस विज्ञप्ति जारी की। अध्यक्ष चंद्रप्रकाश ठाकुर, उपाध्यक्ष प्रवीण कुमार नागरची, सचिव रामलाल मरई, कोषाध्यक्ष टोकेश्वर सिंह नेताम, संयुक्त सचिव सोमनाथ मंडावी ने कहा है कि फिल्म में मूल निवासियों के देवता भैंसासुर (महिषासुर) को बड़े घृणित तरीके से फिल्माया गया है जिससे आदिम संस्कृति अपमानित और धूमिल होती है। अतः इस फिल्म के प्रदर्शन पर बैन लगाया जाए।
मोहेंजो-दारो पर मुकदमा

महाराष्ट्र में महिषासुर म्हसोबा नाम से जाने जाते हैं। कल्याण स्थित उनका आराधना स्थल। फोटो : सुधीर मौर्य
नागपुर, महाराष्ट्र के गोंड मूलनिवासी आदिवासी समाज व गोंडवाना यूथ फोर्स ने पुलिस आयुक्त व जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंप कर फिल्म मोहेंजो-दारो के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की है। ज्ञापन में बताया गया है कि फिल्म में आदिवासियों के देवता महिषासुर को खलनायक बनाकर प्रस्तुत व प्रचलित कर हमसब का अपमान किया गया है और आदिवासी समाज की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का षड्यंत्र भी किया गया है, जो प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जघन्य अपराध है। आदिवासी मूलवासी समाज ने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर फिल्म पर रोक नहीं लगी तो आदिवासी सड़क पर उतरकर आंदोलन करेंगे। शिष्ट मंडल में आदिवासी समाज तथा गोंडवाना यूथ फोर्स के सदस्य संतोष धुर्वे, किशोर वरखेड़े, अनिल कुमरे, पिंटू मरकाम, सोनू मसराम, भूपेश सिरसाम, कपिल कोटनाके, प्रह्लाद उइके, अनिल उइके, वडमेजी, रवि कंगाले तथा आदिवासी विद्यार्थी संगठन व विदर्भ ट्राइबल डॉक्टर एसोसिएशन के डॉ. नरेश कोरटी, डॉ. भूपेंद्र उइके सहित गोंड समाज के लोग बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
सोशल मीडिया में विरोध के स्वर
झारखण्ड के आदिवासी चिंतक ए.के.पंकज ने फेसबुक पर पोस्ट किया है-‘मोहेंजो-दारो’ में भी ‘महिषासुर खलनायक!’ ‘इतिहास व साहित्य के बाद अब यह फिल्म भी इस झूठ को दोहराएगी कि मोहेंजो-दारो आर्यो का हैं। कबीर बेदी फिल्म में खलनायक हैं और बेदी को महिषासुर वाला आदिवासी गेटअप दिया गया है।
वरिष्ठ लेखक विनोद कुमार फिल्म की भावना पर कटाक्ष करते हैं – इतिहास का मजाक उड़ाने के लिए एक और फिल्म जल्द ही रिलीज हो रही है- मोहेंजो-दारो या मुअन जोदाड़ो। सिंधु घाटी सभ्यता का यह पुरातन शहर आदिवासी-द्रविड़ लोगों द्वारा निर्मित माना जाता है। नीली आंखों वाला गौर वर्ण रितिक कहीं से भी उस सभ्यता-संस्कृति का वाशिंदा नजर नहीं आता।
जयस (जय आदिवासी युवा शक्ति) के राष्ट्रीय संरक्षक डॉ. हीरालाल अलवा चेतावनी देते हैं – फ़िल्म मोहेंजो-दारो में आदिवासियों के इतिहास के साथ छेड़छाड़ की गई है। यह आदिवासियों को खलनायक बताती है। फिल्म ने मिथक ग्रंथों को आधार मानकर ऐतिहासिक सत्य को छुपाया है। आदिवासी समाज यह बर्दाश्त नहीं करेगा। जयस और पूरा आदिवासी समाज इसकी तीव्र भर्त्सना करता है। अगर यह फिल्म रिलीज होगी तो इसका भीषण विरोध किया जाएगा। राजस्थान के आदिवासी चिंतक रवींद्र पेरवा ने लिखा है – मोहेंजो-दारो फ़िल्म आदिवासी लोगों के इतिहास को लेकर विवाद में है। अगर फिल्म निर्माता संत जेवियर कॉलेज मुंबई के हेरस इस्टीट्यूट के फाउंडर हेनरी हेरस (1888-55) के मुअनजोदड़ो नगर के लेख जो इंडियन कल्चर जर्नल 1937 में छपा “MOHENJO DARO: THE PEOPLES AND THE LAND” को पढ़ते तो वह शायद अच्छी फ़िल्म बना पाते, मुअनजोदड़ो के लोगो और प्रान्त पर विस्तार से लिखा कि यह चार प्रान्त के वासी मीणा, भील, कोल आदि थे।
डॉ. नारायण सिंह नेताम लिखते हैं – ‘फिल्म के निर्देशक के इस कृत्य को अंतरराष्ट्रीय महत्व की चीज के साथ छेड़छाड़ की श्रेणी में देखा जाना चाहिए और इसके खिलाफ देशद्रोह के आरोप में मुकदमा करना चाहिए।
पंकज ध्रुव भी फिल्म के ऐतिहासिक संदर्भ पर सवाल उठाते हुए कहते हैं-‘फिल्म के कलाकार गोरे दिखाए गये हैं, जबकि उस काल में सांवले व काले लोगों के होने का ऐतिहासिक प्रमाण है।’ पहनावे पर भी सवाल उठाते हुए कहते हैं कि फिल्म में अभिनेत्री को सिले गये डिजाइनदार कपड़ों में दिखाया गया है, जबकि इतिहास कहता है कि उस समय स्त्री व पुरुष एक ही तरह के कपड़े पहनते थे, वह भी बिना सिले हुए। शरीर पर एक ही कपड़ा हुआ करता था जो बिना सिला हुआ होता था और शरीर के उपरी हिस्से में कपड़े नहीं होते थे। महिलाएं शरीर के उपरी हिस्से को सिर्फ गहनों से ढकी होती थी।
सिंधु घाटी सभ्यता से आदिवासी कनेक्शन
आदिवासियों की भाषा संस्कृति पर शोध कर रहे भुगलू सोरेन के मुताबिक ऐतिहासिक खोजों में इस बात का संकेत मिलता है कि आदिवासियों का मुअन जोदड़ो व हड़प्पा संस्कृति से घनिष्ठ संबंध रहा है। वे बताते हैं कि 1921 में दो पुरातत्ववेत्ताओं ने मोहनजो दारो व हड़प्पा की सभ्यता को खोज निकाला था और भारतीय इतिहास को करीब पांच-छह हजार साल पीछे तक पहुंचाया था। उसके बाद के वर्षों में मुअनजोदाड़ो व हड़प्पा संस्कृति के दर्जनों अन्य शहरों के अवशेष खोज निकाले गये हैं और उन अवशेषों से प्राप्त आलेखों, ताम्र पट्टो से जो जीवन दर्शन परिलक्षित होता है, उसका अद्भुत साम्य आदिवासी जनता के जीवन दर्शन, उनके मिथकों रूपकों से है। सोरेन बताते हैं कि इस तथ्य की गहन जांच पड़ताल 90 के दशक में निर्मल कुमार ने की थी। सोरेन के मुताबिक उन्होंने दावा किया था कि मुअनजोदड़ो-हड़प्पा से प्राप्त करीब ढाई हजार संकेत समूहों का अर्थ समझने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि आदिवासी जनता ही मुअनजोदड़ो-हड़प्पा सभ्यता की वारिस है,
असुरों के गणराज्य
राजस्थान के आदिवासी विचारक पी.एन. बैफलावत कहते हैं-आर्य आगमन से पूर्व सिन्धुघाटी सभ्यता जो वर्तमान अविभाजित पंजाब, सिंध, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात की लोथल बंदरगाह तक तथा सतलुज, व्यास, रावी, चिनाव, झेलम, हर्हावती और सिंध नदियों के किनारों पर बसी थी, जहा सैकड़ों दुर्ग और नगर बसे थे, जिनके आधिपति वत्रासुर थे। उक्त उर्वर प्रदेश के उत्तर में हिन्दुकुश पर्वत और अफगानिस्तान थे। इस विषय में डॉ. नवल नियोगी ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक ”नेटिव कल्चर ऑफ़ इंडिया दी वंडर देटवाज” में लिखा है की हड़प्पाई लोगो की (नाग, मत्स्य) संस्कृति ने एक नई प्रथा को जन्म दिया था जो गिल्ड अर्थात संघीय शासन प्रणाली थी, जो विशिष्ठ प्रकार के शिल्पी और देश रक्षार्थ योद्धा थे। यह राज प्रभुसत्ता संपन्न थी, जिसे ‘गार्ड किंग ‘ परम्परा भी कहा जाता था, यह परम्परा भारत के अतिरिक्त मेसोपोटामिया सभ्यता के आसीरिया और सुमेरिया में भी थी। प्रोटो-द्रविड़ मूलनिवासियों के अपने-अपने गणचिन्ह थे और अलग-अलग गणो के अलग-अलग जनपद थे। केन्द्र हड़प्पा और मोहजोदड़ो थे, आर्यों के आक्रमण और लम्बे संघर्ष के बाद ये बिखर गये, जिनकी पहचान आज गोंड, भील, मुण्डा, उराँव, संथाल, असुर व अन्य आदिवासी कबीलो के रूप मे की जा सकती है। गोंड लोग द्रविड़ो के साथ दक्षिण की ओर चले गये और मीणा, भील अरावली पर्वतमालाओं में तथा बाकी विंध्याचल व सतपुड़ा की श्रेणियो की कंदराओं मे अपना ठिकाना बनाया। असुर झारखण्ड, उड़ीसा व छत्तीसगढ़ की रूख कर गए।
वे बताते हैं कि सिंधु सभ्यता गणराज्य प्रणाली पर आधारित थी। सप्त सिन्धु गणराज्य वृतासुर के अधीन था। ऐसे 11 गणराज्य और थे। दूसरा गण प्रदेश जम्मू कश्मीर, नेपाल, भूटान, सिक्किम, उतरांचल और बर्मा तक महासुर के अधीन था, जिसे बाद में आर्यों ने रिश्तेदार बनाकर महादेव नाम दे दिया था और उसका महिमा मंडन कर 12 गणराज्यों पर अधिपत्य स्थापित किया। तीसरा गण प्रदेश भिंड-मुरेना पर्वतमाला और विन्ध्याचल पर्वतमाला क्षेत्र था, जिसका अधिपति शंबरासुर था। चौथा गण प्रदेश पूर्वी राजस्थान, हिमाचल प्रदेश तक फैला था जो बाणासुर के अधीन था। पांचवा गण प्रदेश पश्चिमी मध्य भारत गुजरात प्रदेश तक फैला था जो वर्तासुर के अधीन था। छठा गण प्रदेश आसाम, नागालेंड और मिजोरम तक फैला था जिसका अधिपति महिषासुर था। सातवां – गयासुर, आठवां – बंगासुर, नौंवां – उदिश्र्वासुर, दसवां – मदरासुर, ग्यारहवां – केरिल्यासुर और बारहवां गणराज्य – जम्बकासुर के अधीन था।
कौन है असुर
असुर संस्कृति पर शोध करने वाले डॉ. नारवेन कासव टेकाम कहते हैं-असुर एक उपाधि है। सभी अनार्यों को असुर नहीं कहा जाता था, कुछ विशेष योग्यता वाले अनार्य कोयतूरों को ही यह उपाधि प्राप्त होती थी। जिस प्रकार से अंग्रेजी में “लीडर” शब्द है जिसका अर्थ नेता या नेतृत्वकारी होता है, जो लोग इस योग्य होते हैं उन्हें लीडर या नेता कहते हैं। उसी प्रकार प्रथम संभु के काल में जिन्होंने शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक व पारिस्थितिक विकास हेतु अभ्यास विधा को विकसित किया। उस विधा का पालन व अभ्यास कर उसे प्राप्त किया, जिनमें समाज व प्रकृति के प्रति जीवट गुण था, उन्हें विशेष योग्यता के कारण “असुर” नामक सम्मान (उपाधि) प्राप्त हुआ। इन्हें ही बाद में गण्ड प्रमुख, गण्डराज, गण्डसेवक आदि नियुक्त किया जाता था। चूंकि ये गण्डप्रमुख होते थे, इसलिए आर्य आक्रमणकारियों का टकराव इन्हीं से विशेष रूप से था। इसलिए आर्य ग्रन्थों में असुर और आर्य(देव) का वर्णन मिलता है।
“असुर” शब्द का अर्थ – असुर दो शब्द ‘असु + र’ से बना है। जिसमें असु = प्राण, योग्यता, क्षमता होता है, और र= रमना, बहना, प्रवाहित होना। अर्थात जिनके अंदर विशेष योग्यता वाला प्राण, योग्यता, क्षमता प्रभावित होता था, बहता था, गति करता था उसे हमारे पूर्वज सम्मान से “असुर” नामक उपाधि से संबोधित करते थे। उसके नाम के साथ असुर शब्द जोड़ते थे। जैसे संभुशेक को महासुर, नाग टोटम धारी, सिंधुघाटी क्षेत्र के नायक को वृतासुर, माहिष टोटम धारी नायक को महिषासुर, बलिसुर, बलिपुत्र को बाणासुर, वर्तासुर आदि। आज भी हमारे अनेक पेन शक्तियों के साथ यह असुर नामक महान उपाधि जुड़ा हुआ है, जैसे – कोलासुर, भैंसासुर, गोंगोसुर आदि।
फिल्म की सत्यता पर स्पष्टीकरण
फिल्म ‘मोहेंजो-दारो’ के बारे में आईएएनएस से चर्चा करते हुए फिल्म के नायक ऋतिक रोशन कहते हैं, इस शहर के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। खुदाई में मिले पुरावशेषों से इस स्थान के बारे में लोगों को पता चल पाया है। खुदाई में अलग-अलग तरह की चीजें सामने आईं, जिसके आधार पर समाज में भिन्न-भिन्न धारणाएं बनीं। इन विभिन्न धारणाओं में से एक धारणा का चुनाव कैसे किया गया? इस सवाल पर उन्होंने कहा, आशुतोष ने पुरातत्वविदों की मदद से इनमें से एक धारणा को चुनकर उसके आधार पर फिल्म बनाई है। अगर फिल्म देखने के बाद कोई ये बोले कि मोहेंजो-दारो में तो यह सब नहीं था और जो दिखाया गया है वह गलत है, तो गलत सिद्ध करने के लिए भी तो किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है।
क्या हो सकते हैं निष्कर्ष
मोहेंजो-दारो फिल्म तथ्य की संदेहास्पदता का फायदा उठाकर या एक धारणा का चुनाव कर आदिवासी समाज को खलनायक साबित कर रहा है। जिस तरह से पुराणों, ग्रंथों में बिना स्पष्ट उदाहरण के एक मिथक साहित्य को रचा गया और लोगों के कोमल मन पर प्रहार करते हुए तरह-तरह के सामाजिक कुरीतियों-बेडियों में जकड़ दिया गया, उनके पूर्वजों को खलनायक घोषित कर दिया गया, वहीं नस्लीय खेल अब फिल्मों और टीवी सीरियलों के माध्यम से खेला जा रहा है। सवाल है कि अपनी मनमाना व्याख्याओं के साथ अच्छी फिल्मों पर कैंची चलाने वाला सेंसर बोर्ड इस इतिहास विरोधी फिल्म को रिलीज होने से रोक सकेगा?
(महिषासुर आंदोलन से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘महिषासुर: एक जननायक’ (हिन्दी)। घर बैठे मंगवाएं : http://www.amazon.in/dp/819325841X किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र उपलब्ध होगा )
-एक चाय वाले, झाड़ू-पोछा, चौका-बर्तन करने वाली, निहायत गरीब के बेटे से आप कितने प्रश्न पूछना चाहते हैं। बेचारा कितना माशूम है। चलिए,छोड़िये उसे। उसकी माशूमियत का जरा ध्यान रखिये। अभी खेलन-कूदने के दिन हैं उसके। यह दुनिया बहुत छोटी है। अभी उसने पूरी दुनिया में कहाॅं खेला है। जा ..जा ….जा….बेटा….जा…खेल-कूद……जा……
I was eagerly waiting for this movie to see the depiction of our ancient culture on the big screen … But after hearing the previews from the people quite disappointed …. I will not say many things about this movie … But yes proper research should have been done before making such kind of movies … As I also belong to the tribal community … I have read works done by many scholars regarding relativity of the emergence of Mohenjo Daro with Munda tribe … One small example – the name of that place “Moenjo daruu”was given by Munda tribe ..(“Moenjo “- given after the name of a tree which was found in abundance in that place and “Daruu” means tree )… This means Moenjo tree … And this kind of nomenclature of any place at that time period was very much natural… Because people used to recognize any place with the help remaining surroundings like tree , hills, rivers etc and so the naming were also done very naturally… Like this there are so many relativity of Munda tribes and the emergence of “Moenjo daro”
Sale teri jindgi bahut jld nrk bnega.
Tera real adress de akela aaunga nsl khatam krunga tera kutta.
Aadiwasion k dawo ki parhtal honi chahiye kyoki voh log bhi isi desh k nagrik hai kahi na kahi kisi n kisi treh se ye log bhi desh ki unnati mei auor sanrakshan mei hisedar hai ithas mei un ko najarandaj karna hi ik bada karn hai ki we log un dharmo ko garehn kar rahe hai jo is dharti ki
upaj nahi hai