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एक अंग्रेज़ी-भाषी बंगाली दलित स्त्री की कश्मकश

दलित यदि अपनी अलग पहचान स्थापित करते हैं तो इससे मुक्तिदाता और मुक्तिकामी का जाति पदक्रम छिन्न-भिन्न हो जाता है और मुक्तिदाता की कोई उपयोगिता ही नहीं बचती। इसलिए भद्रलोक हर उस व्यक्ति को बौद्धिक व मनोवैज्ञानिक तरीकों से निशाना बनाते हैं, जो इस श्रम-विभाजन को चुनौती देता है और उसकी अपनी अलग पहचान के दावे को झुठलाते हैं

पहले से ही लंबा यह शीर्षक और भी लंबा होता, यदि वह इस लेखक के संपूर्ण व्यक्तित्व (कर्तापन) को अभिव्यक्त करता। उस स्थिति में यह शीर्षक होता, ”कोलकाता, पश्चिम बंगाल में कार्यरत, बुद्धिजीवी बनने की इच्छुक, उपभोक्तावादी व सेक्स के संबंध में उभयभावी अभिमुखता (मैं जानबूझकर ‘समलैंगिक’ शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रही हूं क्योंकि मुझे नहीं मालूम कि इसका अर्थ क्या होता है) वाली, उन्नतिशील, अंग्रेज़ी-भाषी, दलित स्त्रीवादी व विचारक व्यक्ति की कश्मकश”।

भले ही ऐसा प्रतीत होता हो, परंतु यह लेख मेरी व्यक्तिपरकता के विच्छेदन, पहचान व उसे सूचीबद्ध करने का आत्ममुग्ध प्रयास नहीं है। मेरा फोकस एक ऐसे शहर और एक ऐसे विश्वविद्यालय में काम करने के अपने अनुभव को सांझा करने पर है जो देश का बौद्धिकता का अड्डा होने का दंभ भरता है। मैं एक ऐसे विद्यार्थी के रूप में अपनी बात रख रही हूं, जिसने इस विश्वविद्यालय में पांच साल पढ़ाई की है। मैं अन्य दलित विद्यार्थियों की ओर से बोलने का दावा नहीं करती और ना ही मैं उनके जातिगत भेदभाव के अनुभव को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करने का दावा कर रही हूं। ऐसे दलित विद्यार्थी हो सकते हैं जो यह कहेंगे कि उन्हें किसी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा। और ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें अपनी जाति के कारण विश्वविद्यालय में शारीरिक यंत्रणा तक भुगतनी पड़ी हो। मैं इन दोनों में से किसी शिविर में नहीं हूं। यह लेख मेरी जाति के साथ, कैम्पस में मेरी व्यक्तिगत जीवनयात्रा के बारे में है और इस बारे में भी, कि मैंने इस यात्रा को किस तरह पूरा किया और मैं उसे कैसे देखती हूं। इस दृष्टिपात की व्यक्तिगत प्रकृति इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मैं जाति के संबंध में अकादमिक उद्देश्य से भी लेखन, चिंतन और सिद्धांतीकरण करती रही हूँ

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बंगाली भद्रलोक व भद्र महिलाओं द्वारा आमतौर पर दावा किया जाता है कि बंगाल में जाति का अस्तित्व ही नहीं है। क्या हम कभी इस राज्य में जातिगत दंगों या बलात्कारों के बारे में सुनते हैं? यहां ऐसे ब्राह्मण हैं, जिन्होंने अपना यज्ञोपवीत त्याग दिया है, जो गौमांस के शौकीन हैं और जिन्हें एक ही सिगरेट, बीड़ी या चरस को अपने अनुसूचित जाति (दलित नहीं) के साथी के साथ पीने में कोई संकोच नहीं होता। यहां ऐसे आमूल परिवर्तनवादी हैं, जो सड़क किनारे चाय के ठेलों पर घंटों अड्डा जमाते हैं, किसी अनुसूचित जाति (दलित नहीं) के व्यक्ति द्वारा बनाए गए सड़कों पर बिकने वाले खाद्य पदार्थों का जमकर मज़ा लेते हैं और जो जब-तब अपने उस अनूसूचित जाति (दलित नहीं) के सहकर्मी को वर्गदंभी बताते हुए उसका मज़ाक उड़ाते हैं, जो अपने जीवन के पहले पीटर इंग्लैंड पैंट के गंदा हो जाने के डर से धूलभरे फुटपाथ पर बैठने से हिचकिचाता है।

अगर कोई उस असली आमूल परिवर्तनवादी को जानना चाहता है, जो भद्रलोक और भद्र महिलाओं के हृदय में हमेशा वास करता है और जिसकी आग कब-जब भड़क उठती है, तो उसे अड्डों में अवश्य जाना चाहिए। अड्डे, बंगालियों के हृदय, मस्तिष्क और हां, उनके पेट का भी, प्रवेश द्वार होते हैं। अड्डों में बंगाली भद्र समाज के रूमानी, बौद्धिक व चिड़चिड़े पहलू अपनी पूरी नग्नता में देखे जा सकते हैं। यहां क्यूबा की क्रांति पर चर्चा हो सकती है और किसी जानीमानी अंग्रेज़ी साहित्यिक पत्रिका का संपादक किसी पंजाबी (अर्थात गैर-बंगाली) के होने की विदू्रपता को अभिव्यक्त किया जा सकता है। अभी-अभी खरीदे गए चार शयनकक्ष वाले फ्लैट की कीमत से लेकर मायावती के ऐश्वर्यशाली बंगले गरमा-गरम बहस का मुद्दा बन सकते हैं।

मैं एक ऐसी बंगाली दलित हूं जिसे लंबे समय तक भद्र समाज के सदस्यों के साथ समय बिताने और उनके व्यवहार का अवलोकन करने का सौभाग्य/दुर्भाग्य मिला है। मैं उनके स्वभाव की कुछ विचित्रताओं से वाकिफ हूं। शायद आप यह सोच रहे होंगे कि मैं अड्डों और भद्र समाज के बारे में अनावश्यक बातें कर रही हूं। परंतु इन्हीं ने मेरा जातिवाद के अत्यंत घिनौने चेहरे से परिचय करवाया है। यह घिनौना चेहरा तब सामने आता है जब आपके सहपाठी और प्रोफेसर, गैर-ब्राह्मण उपनामों वाले लोगों का मज़ाक उड़ाते हैं और फिर आपकी ओर मुस्कुराकर देखते हुए, दिखावटी क्षमायाचना करते हैं; जब आरक्षित वर्ग (दलित नहीं) के विद्यार्थियों की शैक्षणिक असफलताओं का इस्तेमाल, आरक्षण को विशुद्ध बुराई बताने के लिए किया जाता है और जब आरक्षित वर्ग (दलित नहीं) के विद्यार्थियों के अंग्रेज़ी ज्ञान में कमी को, उनके अंग्रेज़ी-भाषी शिक्षक की प्रज्ञा का अपमान बताया जाता है।

जाति ने अपना सिर तब उठाया जब मैंने ऊँची जाति के एक लड़के का साथ इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वह लैंगिक भेदभाव में विश्वास रखता था। मुझसे कहा गया कि उसने मुझे आसानी से इसलिए जाने दिया क्योंकि जाति पदक्रम में मैं उससे तीन पायदान नीचे थी। जाति ने तब भी सर उठाया जब मेरे दलित मित्रों ने, ऊँची जाति के छात्रों के साथ मेरी दोस्ती को विश्वासघात निरूपित किया। जब मेरा एक प्रेमी मुझे प्रेम से सहला रहा था, तब जाति मेरे मस्तिष्क पर छा गई और मेरे बिस्तर में घुस आई। जब मैं अपना पहला ब्रांडेड बैग खरीदने की खुशी में सराबोर थी या जब मैं महानगर में दस साल रहने के बावजूद 24 साल की उम्र में अपने जीवन का पहला हॉट चाकलेट कप पीने के अपने अनुभव को याद कर रही थी, उस समय मुझे अचानक यह ख्याल आया कि मनु ने दलितों का स्वर्णाभूषण व कीमती रत्न धारण करना प्रतिबंधित किया था।

कुछ समय पूर्व, मार्क्सवादियों के शब्दों में मैं ‘उपभोक्तावादी’ बन गई। और तब यह कहा गया कि मैं दलितों के उद्धारक के वेश में एक पाखंडी हूं। यदि अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों द्वारा अटक-अटक कर अंग्रेज़ी बोलना, कथित रूप से हमारे शिक्षकों की बौद्धिकता का मखौल बनाता था तो इस भाषा पर मेरे तुलनात्मक रूप से बेहतर (चाहे वह कितना ही अधूरा व अपर्याप्त क्यों न हो) अधिकार ने मुझे आंग्लरागी कामरेडों की निगाह में वर्गशत्रु बना दिया।
इस सबका नतीजा था एक अजीब-सी कशमकश-एक तरह का बौद्धिक, भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक लकवा। क्या मुझे अपनी दलित पहचान जाहिर करनी चाहिए? क्या मुझे दलित साहित्य पर काम करने का अधिकार है? क्या दलित व गैर-दलित विद्यार्थियों की दृष्टि में मेरे क्रमश: कथित पाखंड और विश्वासघात के बावजूद मुझे यह अधिकार है? इस कशमकश ने मुझे काफी भयाक्रांत कर दिया है। इसके कारण मैं मानसिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अलग-थलग, तनावग्रस्त और अकेली महसूस कर रही हूं।

एक बार एक साक्षात्कार के दौरान एक प्रोफेसर साहब ने मुझसे एक अजीब सी बात कही और वह यह कि बंगाल में कोई दलित नहीं है। मैं केवल व्यंग्यपूर्वक मुस्कुरा दी और मैंने कुछ भी नहीं कहा। मेरा यह कहना है कि पश्चिम बंगाल में दलित इसलिए नहीं हैं क्योंकि वहां दलितों को अस्तित्व में रहने ही नहीं दिया जाता। आप जातिमुक्त ब्राह्मण, बैद्य या कायस्थ हो सकते हैं। दूसरी ओर, आप ऊँची जातियों के जातिमुक्त आमूल परिवर्तनवादियों के हाथों मुक्ति का इंतजार करने वाले अछूत हो सकते हैं या आप अनुसूचित जाति के ऐसे कर्मचारी हो सकते हैं, जो सकारात्मक कार्यवाही से प्राप्त ‘विशेषाधिकार’ का लाभ उठाने के लिए सतत शर्मिंदा रहे।

जहां तक मैं समझती हूं दलित शब्द का संबंध, संबंधित व्यक्ति की गरिमा से है और उस भेदभाव व पूर्वाग्रह के इतिहास से भी, जिसका सामना उसे आज भी ऐसे स्वरूपों में करना पड़ता है जिसका भद्रलोक का मार्क्सवाद कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सकता। शनै:-शनै: जातिप्रथा के प्रतिरोध का लंबा इतिहास भी इस शब्द के अर्थ का हिस्सा बन गया है और एक अलग पहचान का हमारा दावा-जिसमें केवल हमारा निर्धन श्रमिक वर्ग से या अछूत होना काफी नहीं है-भी अब इसके अर्थ में शामिल हैं।

जब मैं दलित के रूप में अपनी पहचान बताती हूं तो मैं एक दावा करती हूं और उस भेदभाव व पूर्वाग्रह और उनके विरोध, दोनों की मान्यता चाहती हूं। परंतु अपनी दलित पहचान को जाहिर कर मैं अनजाने में ही उस ‘श्रम विभाजन’ को भी चुनौती देती हूं जो पश्चिम बंगाल की संस्कृति का अभिवाज्य हिस्सा बन गया है। यह विभाजन है मुक्तिदाताओं (जिनमें शामिल हैं लेखक, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, डाक्टर, अर्थशास्त्री, ट्रेड यूनियन नेता, नक्सल नेता आदि) और दूसरी श्रेणी है उन लोगों की जो अपनी मुक्ति का इंतजार कर रहे हैं (जिनमें शामिल हैं किसान, घरों और फैक्ट्रियों के श्रमिक व टैक्सी व रिक्शा चालक आदि)।

किताबों की किसी भी दुकान में चले जाईए या प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों की शिक्षकों की सूची पर नजऱ डाल लीजिए या सामाजिक बदलाव के प्रति समर्पित किसी भी छोटी-मोटी पत्रिका के लेखकों पर-हर जगह आपको भट्टाचार्यों, मुखर्जियों, बोसों और दासगुप्ताओं की भरमार दिखेगी। फिर, उन हज़ारों महिलाओं और पुरूषों के उपनाम जानने का प्रयास कीजिए, जो किसी भी राजनीतिक रैली या सभा की भीड़ होते हैं या उन पुरूषों के, जो हर सुबह सड़कों पर झाड़ू लगाते हैं और हमारे कचरे को उठाते हैं या उन महिलाओं के, जो भद्रलोक के घरों को साफ रखने के लिए रोज़ दूर-दूर से आती हैं।

इस संदर्भ में एक ब्राह्मण टैक्सी चालक या एक दलित व्याख्याता या (विशेषकर) सामाजिक कार्यकर्ता, आंखों की किरकिरी और नैतिक व राजनीतिक दृष्टि से अस्वीकार्य होता है। यह भद्रलोक का सामंतवाद है, जिसे तोड़-मरोड़कर उस पर उनकी आमूल परिवर्तनवादी सोच का कलेवर चढ़ा दिया गया है। भद्रलोक मार्क्सवाद को एक ऐसी जाति के लोगों/भद्रलोक की आवश्यकता रहती है, जो दूसरी जाति के लोगों, छोटोलोक के मुक्तिदायक बन सकें। अगर छोटोलोक अचानक स्वयं के दलित होने का दावा करने लगें और स्वयं ही अपने मुक्तिदायक बन जाएं तो वे छोटोलोक को मुक्त करने के भद्रलोक के विशेषाधिकार को चुनौती देते हैं और निर्भरता व सत्ता और वर्चस्व और अधीनता की व्यवस्था को भी। ऐसा करके वे उस आंदोलन के इतिहास पर अपना दावा प्रस्तुत करते हैं, जिसका फोकस दलितों के अभिकर्तृत्व पर था और जो सवर्णों की उदारता और उनके आमूल परिवर्तनवादिता को संदेह की निगाह से देखता था।

दलित यदि अपनी अलग पहचान स्थापित करते हैं तो इससे मुक्तिदाता और मुक्तिकामी का जाति पदक्रम छिन्न-भिन्न हो जाता है और मुक्तिदाता की कोई उपयोगिता ही नहीं बचती। इसलिए भद्रलोक हर उस व्यक्ति को बौद्धिक व मनोवैज्ञानिक तरीकों से निशाना बनाते हैं, जो इस श्रम-विभाजन को चुनौती देता है और उसकी अपनी अलग पहचान के दावे को झुठलाते हैं। सवाल यह नहीं है कि मुझे अपने आप को दलित पहचान देना चाहिए या नहीं या मुझे इसका अधिकार है या नहीं। प्रश्न यह है कि ऐसा करने वाले व्यक्ति को बौद्धिक व भावनात्मक रूप से जिस तरह अलग-थलग कर दिया जाता है, उसके चलते क्या मैं वैसा करने की हिम्मत जुटा सकती हूं। मैं एक ऐसी कशमकश में फंसी हुई हूं, जिसकी जड़ें दुनिया में अकेले रह जाने के मानवीय भय में है। मुझे बहुत प्रसन्नता होगी अगर मुझे गलत सिद्ध कर दिया जाए। मुझे बहुत अच्छा लगेगा यदि कोई अन्य बंगाली दलित, मेरी इस स्थापना का विरोध करे और एक बेहतर चित्र प्रस्तुत कर सके।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

द्रिशादवती बर्गी

द्रिशातवती बर्गी जाधवपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर हैं और वर्तमान में विश्वविद्यालय के स्त्री अध्ययन केंद्र से एमफिल कर रही हैं

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