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गुजरात में जाति और भारतीय संस्कृति की हिंसा

यह तथ्य कि पुलिस एक मृत गाय की खाल उतारने के 'अपराध' में दलितों की बर्बर पिटाई की मूकदर्शक बनी रही, हमारी अंतरात्मा को झकझोरने वाला है। क्या आंबेडकर ने यह आशंका व्यक्त नहीं की थी कि भारतीय संविधान, उस समाज, जिसके लिए वह बनाया गया है, से कहीं अधिक प्रबुद्ध है

इसी वर्ष, कानून के कुछ स्व-नियुक्त रक्षकों ने उना, गुजरात में एक मृत गाय की खाल उतारने के ‘अपराध’ में दलितों की बर्बर पिटाई की। और यह दलितों के विरुद्ध हिंसा की पहली घटना नहीं थी। और न ही इस तरह की घटनाएं केवल गुजरात तक सीमित हैं। यह हिंसा, दरअसल, हमारे सामाजिक ढांचे में दलितों के विरुद्ध गहरे तक पैठे पूर्वग्रह का प्रकटीकरण है। यह हिंसा वर्चस्वादियों द्वारा यह दिखाने का प्रयास है कि यहाँ उनका राज चलता है। भाजपा के सत्ता में आने से गौरक्षक दलों और इसी तरह के अन्य समूहों की हिम्मत बढ़ गयी है। यह तथ्य कि पुलिस इस बर्बर हिंसा की मूकदर्शक बनी रही, हमारी अंतरात्मा को झकझोरने वाला है। क्या आंबेडकर ने यह आशंका व्यक्त नहीं की थी कि भारतीय संविधान, उस समाज, जिसके लिए वह बनाया गया है, से कहीं अधिक प्रबुद्ध है।

gujarat_protest_20161018_600_855वर्चस्वशाली जातियों के लिए किसी भी दलित समूह या संगठन का प्रतिरोध या उसके द्वारा अपनी आवाज़ बुलंद करने के प्रयास असहनीय है। वे इसे अपनी सत्ता के लिए चुनौती के रूप में देखते हैं। दलितों के विरुद्ध हिंसा की जडें ब्राह्मणवादी परम्पराओं में हैं, जो जातिगत ऊँच-नीच और भेदभाव को औचित्यपूर्ण मानतीं हैं और इनका महिमामंडन करती हैं। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणवादी/वर्चस्वशाली ताकतें उन दलित जातियों को अछूत मानतीं हैं, जो साफ़-सफाई, हाथ से मैला साफ़ करने और मृत पशुओं की खाल उतारने का काम करती हैं। स्वच्छ भारत अभियान की पूरी इमारत दलित श्रम पर ही खड़ी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विकास और आधुनिकता के सारे दावों के बावजूद, कुछ काम केवल दलितों के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। और ये सभी काम ऐसे हैं, जिन्हें गन्दा या निचला माना जाता है। हाल में, मैगसेसे पुरस्कार विजेता बेज्वाड़ा विल्सन ने कहा था कि देश में आज भी 1.8 लाख दलित, हाथ से मैला साफ़ करने को मजबूर हैं। भारत सरकार ऐसी कोई तकनीकी का विकास करने का प्रयास नहीं कर रहे है, जिससे हाथ से मैला साफ़ करने की ज़रुरत ही न रह जाये।

ब्राह्मणवादी-सामंती तबका यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं कि भारत एक विविधवर्णी, बहुवादी, बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषी और बहु-नस्लीय समाज है और उस पर एकाश्म “भारतीय संस्कृति” लादने का प्रयास भी हिंसा ही है। इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि दलितों को ‘अनुशासित’ करने और उन्हें अपनी बात मानने के लिए मजबूर करने के लिए ये शक्तियां शारीरिक हिंसा का प्रयोग करने से तनिक भी गुरेज नहीं करतीं।

दलितों को गौवध करने से रोकने की उनकी कोशिश से हिन्दू धर्म को नुकसान ही होगा क्योंकि इससे दलित हिन्दू धर्म के खिलाफ हो जायेंगे। भारत के दलित आन्दोलन का मुख्य लक्ष्य समानता पाना और जातिवाद से मुक्ति हासिल करना है। दलित हिन्दू समाज में ही रहना चाहते हैं, परन्तु सम्मान और समानता के साथ।

सन 1927 में, महाड में भाषण देते हुए आंबेडकर ने कहा था, “अतः, अगर हमें हिन्दू समाज को मज़बूत करना है तो हमें चातुरवर्ण व्यवस्था और अछूत प्रथा को उखाड़ फेंकना होगा। हमारे समाज को हमें एक जाति और समानता के दो पायदानों पर खड़ा करना होगा”। दलित समुदाय, ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। वह जातिगत ऊंच-नीच, सत्ता और अछूत प्रथा के खिलाफ खडा है। उना की घटना ने गुजरात के दलितों को एक कर दिया। दलित इसके विरुद्ध सड़कों पर उतर आये। उनमें से हरेक को ऐसा महसूस हुआ मानों वह भी उना का पीड़ित है। अहमदाबाद में दलितों ने 31 जुलाई को एक महासम्मेलन आयोजित किया, जिसमें उन्होंने अत्याचार का शिकार हो रहे अपने साथियों के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित की और सरकार को उसकी तन्द्रा से जगाने का प्रयास किया। महासम्मेलन में यह जोर देकर कहा गया कि दलितों के कमज़ोर होने का एक कारण उनकी भूमिहीनता भी है। भेदभाव और अछूत प्रथा की जड़ में भूमिहीनता ही है। इस महासम्मेलन ने 1927 में महाड़ सत्याग्रह के लिए आंबेडकर के नेतृत्व में एकत्रित हुए भारी जनसमुदाय की याद ताज़ा कर दी।

dalit-convention_ahmedabadमहासम्मेलन में यह मांग की गयी कि दलितों के साथ समानता का व्यवहार किया जाये और उनके खिलाफ हिंसा तुरत बंद हो। इस महासम्मेलन में दलितों और मुसलमानों की एकता की आवश्यकता भी प्रतिपादित की गयी क्योंकि दलित और मुसलमान दोनों एक ही दमनकारी व्यवस्था के शिकार हैं।

गुजरात में दलितों के एकजूट होने की प्रक्रिया की शुरुआत सन 1981 और 1985 के आरक्षण-विरोधी दंगों से हुई, जिनके दौरान ऊंची जातियों के हिन्दुओं ने दलितों पर हिंसक हमले किये। ज्ञातव्य है कि वे पटेल, जो उस समय अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का विरोध कर रहे थे, अब स्वयं अपने लिए ओबीसी का दर्जा और आरक्षण चाहते हैं।

दलित आन्दोलन, हिंसा और जाति की पारंपरिक नैतिकता और सत्ता के विरुद्ध लड़ाई है। इस लड़ाई का चरित्र कमोबेश अहिंसक और प्रजातान्त्रिक है। यह ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म के खिलाफ संघर्ष है। आंबेडकर भी जातिवाद के विरुद्ध थे, ऊंची जातियों के लोगों के विरुद्ध नहीं। वे एक सच्चे राष्ट्रवादी थे और उन्होंने भारतीय समाज की एकता और अखंडता को मजबूत करने के लिए काम किया। उन्होंने हमारे समाज के मूल विरोधाभासों की ओर हमारा ध्यान खींच कर दलितों और गैर-दलितों को एक करने की कोशिश की। कुछ अतिवादी और विघटनकारी तत्त्व, दलितों को ‘ऊंची जातियों’ के विरुद्ध खड़ा कर एक तरह का ध्रुवीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं। यह बाबासाहेब आंबेडकर की सोच के एकदम खिलाफ है।


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लेखक के बारे में

मुकेश कुमार बैरवा

मुकेश कुमार बैरवा, दिल्ली विश्वविध्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज में अंग्रेजी के सहायक प्राध्यापक हैं

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