25 नवंबर 1949 को संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए आंबेडकर ने कहा था, ‘‘मेरी राय है कि यह मानकर कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक बड़े भ्रम को संजो रहे हैं। हजारों जातियों में बंटे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? जितनी जल्दी हमें यह अहसास हो जाएगा कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हम अभी भी एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना ही हमारे लिए बेहतर होगा क्योंकि तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता का अहसास कर सकेंगे और अपने इस लक्ष्य को पाने के तरीकों और रास्तों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकेंगे। जातियां मूलतः राष्ट्र-विरोधी हैं क्योंकि वे सामाजिक जिंदगी को बांटती हैं। वे राष्ट्रविरोधी इसलिए भी हैं क्योंकि उनसे विभिन्न जातियों के बीच ईर्ष्या और विद्वेष उत्पन्न होता है।”
इस तरह, भारत को राष्ट्र बनाने में ‘‘जाति के उन्मूलन‘‘ के महत्व को आंबेडकर अच्छी तरह समझते थे। महात्मा फुले ने भी कहा था, ‘‘आर्यों के स्वार्थी धर्म को मानने वाले, शूद्रों को नीच, नालायक और अज्ञानी मानते हैं। शूद्र, महारों को और महार, मांगों को नीच, नालायक और धूर्त मानते हैं। आर्य भट्टों ने सभी जातियों के बीच विभाजक रेखाएं खींच दी हैं और उनके साथ खाने-पीने और आपस में विवाह करने पर प्रतिबंध लगाकर उनके व्यवहार के प्रतिमानों और उनके सांस्कृतिक लक्षणों को एकदम अलग-अलग बना दिया है। इस तरह के बंटे हुए लोग आखिर एक राष्ट्र कैसे बन सकते हैं?‘‘ (महात्मा फुले समग्र वांग्मय, (मराठी) पृष्ठ 407, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)।
डा. आंबेडकर ने लिखा, ‘‘आप जाति की नींव पर कुछ खड़ा नहीं कर सकते। आप एक राष्ट्र खड़ा नहीं कर सकते, आप एक नैतिकता खड़ी नहीं कर सकते। जाति की नींव पर आप जो भी खड़ा करेगे, उसमें दरारें आ जाएंगी और वह कभी एक न रह सकेगा‘‘ (डा. बाबासाहेब आंबेडकर, राईटिंग्सि एंड स्पीचिज, खण्ड 1, पृष्ठ 66, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन, 1979)।
इससे यह पता चलता कि फुले और डा. आंबेडकर, दोनों के लिए जाति का उन्मूलन और राष्ट्र की अवधारणा कितनी महत्वपूर्ण थीं। डा. आंबेडकर हमारा ध्यान शासक वर्ग अर्थात ब्राहम्णों के सांस्कृतिक नियंत्रण की ओर भी दिलाते हैं। अपने प्रबंध ‘‘व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबिल्स?‘‘ में वे लिखते हैं,’ ‘‘भारत में शासक वर्ग मुख्यतः ब्राह्मण हैं‘‘(पृष्ठ 204)। जाति व्यवस्था के संरक्षक वीडी सावरकर और एमएस गोलवलकर, जो क्रमशः हिन्दू महासभा और आरएसएस के मुखिया थे, का मानना था कि जाति व्यवस्था, हिन्दू राष्ट्र के लिए वरदान है। सावरकर ने तो यहां तक कहा कि जहां चतुर्वर्ण नहीं है, वह मलेच्छ देश है। गोलवलकर का मानना था कि जाति व्यवस्था, हिन्दू राष्ट्र का आवश्यक लक्षण है। वे यह भी कहते थे कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र है। वे उस शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसका लोगों की भावनाओं और देश की संस्कृति पर संपूर्ण नियंत्रण था।
डा. आंबेडकर हिन्दू धर्म को फासीवादी विचारधारा मानते थे। उन्होंने लिखा, ‘‘हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः प्रजातंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद और/या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए-और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है-तो वह उन लोगों को आगे बढने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दमित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है‘‘ (सोर्स मटियरल आन डा. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)। डा. आंबेडकर स्पष्ट कहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र फासीवादी है और उसके कारण मुसलमान, ईसाई, दलित, आदिवासी और ओबीसी कष्ट भोग रहे हैं।
संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय आंबेडकर ने जोर देकर कहा कि भारत अब भी राष्ट्र बनने से बहुत दूर है। उनके विरोधी, राज्य और राष्ट्र में अंतर करते थे। हिन्दू राष्ट्रवादियों का मानना था कि राष्ट्र, राज्य से ऊपर है या दूसरे शब्दों में सरकार गौण है और राष्ट्र मुख्य है। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘‘व्ही आर अवर नेशनहुड डिफाइंड‘‘ में लिखा, ‘‘क्या हम अपने ‘राष्ट्र‘ को स्वतंत्र और यशस्वी बनाना चाहते हैं या हम केवल एक राज्य का निर्माण करना चाहते हैं, जिसमें कुछ राजनैतिक और आर्थिक अधिकार हमारे वर्तमान शासकों की बजाए किन्हीं दूसरों के हाथों में केन्द्रित होंगे?‘‘ वे आगे लिखते हैं, ‘‘हम राष्ट्र के उत्थान के हामी हैं, राजनैतिक अधिकारों के उस बेतरतीब पुलिंदे के नहीं, जिसे राज्य कहा जाता है‘‘ (पृष्ठ 3)। आरएसएस व गोलवलकर संविधान के विरोधी थे। उनके अनुसार संविधान का उद्धेश्य केवल राज्य का प्रबंधन करना है और वह राष्ट्रीय संविधान नहीं है। डा. आंबेडकर के जातिविहीन समाज के विचार के विपरीत, आरएसएस ब्राहम्ण-केन्द्रित जाति व्यवस्था को बनाए रखना चाहता था।
उनकी पुस्तक ‘‘व्ही आर अवर नेशनहुड डिफाइंड‘‘ से यह स्पष्ट है कि गोलवलकर का हिन्दू राष्ट्र से अर्थ ब्राहम्णों या आर्यों का वर्चस्व था। वे नस्ल, भाषा, संस्कृति, धर्म आदि मुद्दों पर केवल आर्यों के संदर्भ में विचार करते थे। पूर्व गवर्नर और तत्समय कांग्रेस नेता एमएस एने ने पुस्तक की भूमिका में गोलवलकर के सिद्धांत का समर्थन करते हुए लिखा, ‘‘राज्य का अर्थ मूलतः राजनैतिक एकता है जबकि राष्ट्रीयता मूलतः सांस्कृतिक और प्रसंगवश राजनैतिक है‘‘ (पृष्ठ 18)।
आज भी भारत सरकार ब्राहमणवादी संस्कृति का पालन कर रही है। वह किसी भी अन्य ग्रंथ की तुलना में वेदों, रामायण और गीता को अधिक सम्मान देती है। हमारा राज्य, संस्कृत भाषा को सबसे अधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। देश में कुछ सैकड़ा संस्कृत सीखने वालों के लिए कई संस्कृत विश्वविद्यालय हैं आंबेडकर की दृष्टि में भारत का जन्म समय से पूर्व हो गया था और अगर वे आज जीवित होते तो वे निश्चित तौर पर यह कहते कि इसमें आज भी विकृतियां और कुरूपताएं बरकरार हैं।
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