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भिखारी ठाकुर : जीवन का नचनिया

शुरू से ही क्रांतिकारी रहे भिखारी। प्रचलित नाटकों से अलग उन्होंने स्वयं नाटक लिखे, जिसे वे 'नाच’ या 'तमासा’ कहते थे, जिनमें समाज के तलछट के लोगों के सुख-दुख, आशा-आकांक्षा का चित्रण होता था। स्मरण कर रहे हैं कथाकार संजीव

भिखारी ठाकुर से मेरा प्रथम परिचय नचनिया के रूप में हुआ था। वे मेरे बचपन के दिन थे। 1954-55 या ऐसा ही कोई समय था। जब उनकी नाच मंडली हमारे औद्योगिक कस्बे कुल्टी, पश्चिम बंगाल में आई थी। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि मेरे घर में भिखारी ठाकुर के ‘विदेशिया’ के रिकार्ड बजते और मेरे मौसा जी ने अपने दोनों बेटों का नाम ‘बटोही’ और ‘विदेशी’ रख छोड़ा था। कुछ सालों के उपरांत भिखारी ठाकुर फिर आए। तब तक मेरे अंदर ‘नचनिया’ विशेषण के प्रति खासा पूर्वाग्रह भर उठा था सो मैंने उनमें रुचि खो दी। उसके बाद मैं 1998 में फिर उनकी ओर तब आकर्षित हुआ, जब मैं जनांदोलनों से जुड़ा। तब मेरे लिए इतिहास के प्रचलित और पारंपरिक जननायकों के बरक्स, आम जन के ये नायक ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगे।

राजेंद्र यादव से अंतरंगता थी, वे मुझे भिखारी ठाकुर पर लिखने के लिए उकसाने लगे। मैं गिरमिटिया मजदूरों की वाणी को जुबान देने के लिए महेंद्र मिसिर को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे रहा था। आगे चलकर मैंने उस युग पुरुष का संधान और अनुसंधान किया, जो 45 साल पहले आकर मेरे दरवाजे से लौट गया था और जिसका सन् 1971 में देहावसान भी हो चुका था। मैंने उनकी लगभग सभी रचनाएं पढ़ डाली, यथासंभव संबंधित क्षेत्रों में और व्यक्तियों के पास भी जाता रहा, जिनसे कभी उनका वास्ता हुआ करता था। कुतुबपुर, छपरा के ग्रामांचल, बलिया, आरा, पटना, कोलकाता, कोलियरी अंचल आदि। जैसे-जैसे मैं गहरे उतरता गया, एक अनजाना दिगंत मेरे सामने खुलता गया और मुझे खुद पर गुस्सा आने लगा कि इस अनगढ़ हीरे की तब मैंने ‘नचनिया’ कहकर उपेक्षा क्यों की थी।

नाई जाति में जन्म लेकर भी, शिक्षा के क्षेत्र में लगभग शून्य रहकर भी, सतत् उपेक्षा, गरीबी, अपमान और जद्दोजहद के बीच, उन्होंने अपना व्यक्तित्व किस तरह निखारा, इसने मुझमें कौतुहल और उनके प्रति आदर भाव से भर दिया… ऊंची जातियों में कुछ तो उनकी इज्जत करते और कुछ ‘भिखरिया’ कहकर अपमान। उनके पुत्र शिलानाथ ने भी कुछ सच्चाईयों को छिपाने की कोशिश की लेकिन अपने खोजी स्वभाव के चलते, तमाम जोखिम उठाकर बिंदु-बिंदु जोड़कर आखिर मेंं उस मुकाम तक पहुंच गया, जिसकी मुझे तलाश थी। निगेटिव धुलता रहा और भिखारी ठाकुर का चेहरा साफ  होता चला गया।

जन्म से वे अवहेलना के शिकार रहे। बाद में पिता दलसिंगार ठाकुर ने विद्यालय भेजा तो साल खत्म हो जाने के बाद भी ‘राम गति, देहूं सुमति’ लिखना नहीं आया। आता भी कैसे ? शिक्षक उनसे नाई का काम लेते..पढ़ाई छुड़वाकर फिर चारागाह में पशुओं के साथ हांक दिए गए। विद्या एक नहीं आई लेकिन विद्या की जरूरत तो थी। ‘निमंत्रण की पातियां’ जो पढऩी होती थीं, सो मित्र भगवान साव के पास गए, मुझे पढऩा सिखा दो। तीन-तीन शादियां कीं, मगर आखिर में मन को तोडऩे वाली मनतुडऩी ही संगिनी रही।

उनके जीवन के इन गर्दिश भरे सालों को मैंने ‘सूत्रधार’ में लिपिबद्ध किया है। तीस साल की उम्र में उन्हें परदेस जाना पड़ा। परदेस माने कोलकाता। फुफा मेदनीपुर में थे, सो खडग़पुर में नाईयों की पांत में नाईगिरी करने को बैठा दिया। रात में वहां रामायण पढ़ते। वहां से ही जगन्नाथपुरी की यात्रा की, फिर कोलकाता फिर घर। उनके पड़ोसी रामानंद सिंह, छोटे-मोटे जमींदार थे। राजपूत होने के बावजूद उन्होंने समय-समय पर भिखारी ठाकुर को जीने और लिखने की प्रेरणा दी।

शुरू से ही क्रांतिकारी रहे भिखारी। प्रचलित नाटकों से अलग उन्होंने स्वयं नाटक लिखे, जिसे वे ‘नाच’ या ‘तमासा’ कहते थे, जिनमें समाज के तलछट के लोगों के सुख-दुख, आशा-आकांक्षा का चित्रण होता था। ‘बिरहा बहार’ तुलसीकृत रामचरितमानस की तर्ज पर लिखा हुआ ‘धोबी-धोबिन’ का सांगीतिक वार्तालाप था। भिखारी ठाकुर ने प्रचलित लोकनायकों पर नहीं लिखा, यहां तक की मित्र रामानंद सिंह के उकसाते रहने के बावजूद कुंवर सिंह पर भी नहीं। भिखारी ठाकुर कहते ‘राजा महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की बातें ज्ञानी, गुणी, विद्धान लोग लिखेंगे, मुझे तो अपने जैसे मूहदूबर लोगों की बाते लिखने दें। बड़ी जातियों के बड़े लोग उनसे जितनी घृणा करते, उतनी ही घृणा भिखारी ठाकुर भी उनसे करते, जाति से नहीं, उनकी जातिगत शेखी से। अपनी तमाम योग्यता के बावजूद ‘रे’ या ‘भिखरिया’ कहकर पुकारे जाने पर उनका अहम् बिलबिला उठता। ‘सबसे कठिन जाति अपमाना’, ‘नाई-बहार’ में उनका जाति दंश पलटकर फूंफकार उठता।

मनुष्य को मनुष्यता के ‘दाय’ से वंचित करने वाली पंक्तियों के विरुद्ध कलम चीत्कार कर उठती। थोड़ा नाम, थोड़ा पैसा आते ही परिवार में स्वीकृति मिली और समाज में भी। फिर भी बड़ी जातियों में एक स्पष्ट अस्वीकार और तिरस्कार बना रहा भिखारी के प्रति। उन्हें नहीं पसंद था कि भिखारी स्त्री की पीड़ा दिखाएं। उन दिनों गरीबी और दहेज से तंग आकर ऊंची जातियों में बेटी बेचने की प्रथा प्रचलन में थी। किशोरियों की शादी बूढ़े या अनमेल वरों के साथ कर दी जाती थी। यह भिखारी का ही कलेजा था, जिसने इनके प्रतिकार में ‘बेटी वियोग’ जैसा मर्मांतक नाटक लिखा। ‘बेटी बेचवा’ के नाम से ख्यात यह नाटक उन दिनों भोजपुर अंचल में इतना लोकप्रिय था कि कई जगहों पर बेटियों ने शादी करने से मना कर दिया, कई जगहों पर गांव वालों ने ही वरों को खदेड़ दिया। 1964 में धनबाद जिले के कुमारधुवी अंचल में प्रदर्शन के दौरान हजारीबाग जिले के पांच सौ मजदूर रोते हुए उठ खड़े हुए। उन्होंने शिव जी के मंदिर में जाकर सामूहिक शपथ ली कि आज से बेटी नहीं बेचेंगे। यह घटना लायकडीह कोलियरी की थी।

भिखारी ठाकुर ने अपने नाच और उसके प्रदर्शनों से समाज में प्रवासियों, बेटियों, विधवाओं, वृद्धों व दलित-पिछड़ों की पीड़ा को जुबान दी। पिटाई और प्रताडऩा तक का जोखिम उठाया। मना करने के बावजूद लोग भिखारी का नाटक देखने जाते। भिखारी ने ‘नाई बहार’, ‘बेटी वियोग’ के अतिरिक्त ‘चौवरण पदवी’ में हिन्दुओं में जाति युद्ध के सम्यक समाधान का प्रयास किया। हिंदी भाषी क्षेत्र में नवजागरण प्राय: नहीं ही हुआ था, अगर किंचित् नवजागरण हुआ तो भिखारी ठाकुर व उनके जैसे सीवान के रसूल हज्जाम, मुरादाबाद के फिदा हुसैन नरसी व बरेली के पंडित राधेश्याम लोकधर्मी नाट्यकारों द्वारा ही सम्पन्न हुआ।

संक्रमण और संधान के घटना बहुल इस युग में गंवई चेतना का भी एक उभार आया था। साहित्य, कला और संस्कृति में इस गंवई चेतना ने कतिपय ऐसे स्थलों को भी अपना उपजीव्य बनाया, जहां हिन्दी साहित्य की नजर तक न गई थी। गदर के शौर्य, भारतीयों की दुर्दशा और गिरमिटिया मजदूरों की हूक तत्कालीन भोजपुरी और अवधी तथा अन्य बोलियों में ही सुलभ है, हिन्दी में नहीं। भिखारी इसी युग की भोजपुरी भाषी जनता के सबसे चहेते, सबसे जगमगाते सितारे थे। ये सभी नान्ह जातियों और निचले वर्ग की कुछ बड़ी जातियों के लोग थे। उपेक्षा के अपने-अपने नारकीय दलदलों से ऊपर उठकर इन उपेक्षित कलाकारों ने गीत-संगीत और नृत्य में विरल से विरल प्रयोग किए। सतह से ऐसे ही ऊपर उठता है आदमी। भिखारी ने लेखन कला और संस्कृति के स्तर पर बहुतेरे पूर्वाग्रह तोड़े, जैसे नायक कहीं से भी आ सकता है, समाज के निम्न स्तर से यानी तलछट से आया हुआ नायक ही तलछट के लोगों का दुख-दर्द समझ सकता है।

यह आलेख भिखारी ठाकुर के जीवन पर बहुचर्चित उपन्यास ‘सूत्रधार’ के लेखक संजीव से  फारवर्ड प्रेस के प्रमुख संवाददाता अमरेन्द्र यादव की बातचीत पर आधारित है।


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लेखक के बारे में

संजीव

हिंदी के प्रमुख कथाकारों में शामिल संजीव ने विभिन्न विधाओं मेंं लगभग दो दर्जन पुस्तकें लिखी हैं। भिखारी ठाकुर को केंद्र में रख लिखा गया उनका उपन्यास "सूत्रधार" बहुचर्चित रहा है। उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं - तीस साल का सफ़रनामा, आप यहाँ हैं, भूमिका और अन्य कहानियाँ, दुनिया की सबसे हसीन औरत, प्रेत मुक्ति, ब्लैक होल, डायन और अन्य कहानियाँ, खोज, गली के मोड़ पर सूना-सा कोई दरवाजा​ ( कहानी संग्रह), किसनगढ़ के अहेरी, सर्कस, सावधान! नीचे आग है, धार, पाँव तले की दूब, जंगल जहाँ शुरू होता है, आकाश चम्पा ​​​​( उपन्यास​)​, ​ऑपरेशन जोनाकी​ ​​​( ​​नाटक), ​सात समदंर पार​, ​​​​​(​​यात्रा साहित्य) और​ रानी की सराय, डायन​​​ ​(​​​बाल उपन्यास)

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